डॉ. रामविलास शर्मा का पहला लेख (1934)

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परिमल की कविताओं से कहीं गिरी कविताओं को मैंने लोगों को बार-बार पढ़ते देखा है और परिमल को ऊटपटांग बताते सुना है, इससे जनता के गिरे टेस्ट का ही पता चलता है। उसका उत्तर कवि को गालियां देना नहीं, वरन स्वयं काव्य-मनन कर उसे समझने की शक्ति उत्पन्न करना है। मैंने ‘अभ्युदय’ (जुलाई 23, 1934) में श्री ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ का उक्त कवि के ऊपर लिखा हुआ लेख पढ़ा। लेख एक पार्टी प्रौपेगैंडा था; कवि की कविता का कोई विशेष निरूपण न था। इन पार्टियों में कौन सत्य पर या कौन असत्य पर है, इससे मुझे कुछ सरोकार नहीं। ‘निराला’ जी की पार्टी पाॅलिटिक्स की और व्यक्तिगत नीति की मुझे यहां विवेचना नहीं करनी। पर उनकी कविता पर दुरूहता, नीरसता, अर्थहीनता तथा छंदों के ऊटपटांगपन के आक्षेप नए नहीं हैं। एक हिन्दी-प्रेमी और विशेषकर कविता-प्रेमी के नाते मुझे यह आक्षेप खटकते अवश्य हैं। यदि वे किसी बात के परिचायक हैं तो कवि की नहीं, वरन जनता की अक्षमता के ही। किसी नए कवि की कविता का तुरंत ही जनप्रिय हो जाना सुकर नहीं। जब शेली और कीट्स जीवित थे तब इने-गिनों को छोड़ उनकी प्रतिभा को कोई न जानता था। उस समय बायरन और टाॅम मूर की तूती बोलती थी। पर इस समय मूर और बायरन से शेली की बराबरी करने का कौन दावा करता है? शेली और कीट्स के ऊपर समालोचकों ने उस समय कैसे कठोर आक्रमण किये, यह किसी अंग्रेजी साहित्य से संपर्क रखने वाले से छिपा नहीं। आजकल के इसी भांति की दुरूहता के आक्षेपों से निराला जी का काव्य-सौंदर्य भी सदा के लिये छिपा न रहेगा।
निराला जी की कविता नए युग की आंखों से यौवन को देखती है। नायक-नायिकाओं की रसरीति के बहुत-से वर्णन हुए, पर यहां एक नवीन सौंदर्य है। यौवन का ज्वार हृदय-सीमाओं के ऊपर उफना रहा है और सामने कवि-संसार की चिरपरिचिता और चिरपूजिता नारी एक नवीन सौंदर्य को लेकर अवतरित हुई है। इस कविता में वियोगी की गर्म आहें नहीं हैं, आंसुओं की वृष्टि नहीं है; वियोग में भी मिलन के लिये उद्दाम वासना है। शेली की कविता में मिलन में भी आंसू हैं। कांता से मिलते ही कवि का हृदय टूक-टूक हो जावेगा। अपनी प्रेमिका से कवि कहता है कि इस हृदय को फिर अपने हृदय से लगा ले, जहां यह अंत में टूट जावेगा -कीट्स की कविता में इसके विपरीत संसार-सौंदर्य के प्रति उल्लास है। वही हम निराला जी की कविता में पाते हैं। निराला जी के लिये यह लिखना –
विरह अहह कराहते इस शब्द को,
किस कुलिश की तीक्ष्ण चुभती नोक से,
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखाउतना ही दुर्लभ है, जितना पंत जी के लिये यह लिखना कि –
बहने दो, रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है,
यौवन-मद की बाढ़ नदी की
किसे देख झुकती है?
यह नहीं कि निराला जी ने विरह, मृत्यु आदि विषयों पर लिखा न हो। जहां लिखा है वहां खूब लिखा है। जीवन का दिन बीत चुका। शरीर के अंगों से प्राण-शक्ति निकला चाहती है! उसी का कितना सजीव चित्र है –
हमारा डूब रहा दिनमान!
विकल डालियों से झरने ही पर है पल्लव-प्राण –
हमारा डूब रहा दिनमान!
‘निराश यौवन का शेष’ नाम की कविता में अद्भुत चित्रण है। बसंत बीत गया और नायिका अब पछता रही है कि हाय –
सुमन भर न लिये सखि वसंत गया!
जब प्रियतम साथ था तब –
विवश नयनोन्मादवश हंसकर तकी
देखती ही देखती ही री मैं थकी,
अलस पल, मग में ठगी-सी रह गई,
मुकुल-व्याकुल श्री सुरभि वह कह गई –
सुमन भर न लिये, सखि वसंत गया!
हर्ष-हरण-हृदय नहीं निर्दय क्या?
इस प्रकार की निराला जी की कविताएं बहुत नहीं। उनकी अधिकांश सुंदर कविताओं में तो यौवन और सौंदर्य अनेक-अनेक रूप धारण कर हिलोरें लेते हैं। पहिले की इसकी शैली के प्रत्यक्ष वर्णन देखिए। यहां अनंग-सौंदर्य का नहीं, वरन सुन्दर वस्तु का चित्रण है –
देख यह कपोत-कंठ
बाहु बल्ली कर सरोज
उन्नत उरोज पीन क्षीण कटि-
नितम्बभार-चरण सुकुमार –
गतिमंद – मंद
छूट जाता धैर्य ऋषि मुनियों का;
देवी-भोगियों की तो बात ही निराली है।यह पंचवटी-प्रसंग में सुन्दरी के रूप में सुपर्णखा की उक्ति है।
निशा का देखिए कितना सजीव वर्णन है। निःशरीर की भी कवि सशरीर के रूप में कल्पना करता है –
भूषण बसन सजे गोरे तन,
प्रीति भीति कांपे पग डर मन,
बाजे नुपुर रुन-रिन रन-छन,
लाज विवश सिहरी।
खड़ी सोचती नमित नयन-मुख,
रखती पग उर कांप पुलक-मुख
हंसि अपने ही आप सकुच धनि
गति मृदु मंद चली।
निशा के उर की खिली कली।प्रियतम के पास पहुंचने पर उसी अभिसारिका को देखिए –
मूंद पलक प्रिय की शय्या पर
रखते ही पग उर धर-धर-धर
कांप उठा वन में तरु-मर्मर
चली पवन पहली।
निशा के उर की खिली कली।
पहली दो लाइनों में नायिका अपने प्रिय की शय्या पर पग रखती है। इसके आगे का वर्णन कवि नहीं करता। प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से मिलकर अपने-आप को भूल जाते हैं। कानों में केवल दूर पत्रों का मर्मर शब्द सुनाई देता है और अंग में मधुर वायु का झोंका लगता है। सहसा हवा का झोंका लगने से, बादल गरजने से, और दूर कहीं संगीत की ध्वनि कान में पड़ने से प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से और सट जाते हैं। कवि ने उसी बात को प्रत्यक्ष न कह इस लाक्षणिक ढंग से कहा है।
कवि जो उपमाएं देता है, उनके जीवित चित्र खींच देता है। नव-विवाहिता वधू –
वह नव वसंत की किसलय कोमल लता,
किसी विटप के आशय में मुकुलिता
और अपनता।
उसके खिले कुसुम संभार
विटप के गर्वोन्नत वक्षःस्थल पर सुकुमार
मोतियों की मानो है लड़ी
विजय के वीर हृदय पर पड़ी।
जिस प्रकार शेली की कविताओं में कभी-कभी उपमाओं की भरमार हो जाती है, इसी प्रकार ‘तुम और मैं’ नामक कविता में भी उपमाओं का तांता लगाकर तुम और मैं को विश्वमय कर दिया है।
तुम प्रेममयी के कंठहार
मैं वेणी काल नागिनी
तुम कर-पल्लव झंकृत सितार
मैं व्याकुल विरह रागिनी
तुम पथ हो मैं हूं रेणु
तुम हो राधा के मनमोहन
मैं उन अधरों की वेणु
इस तरह के चित्र कवि की प्रायः प्रत्येक कविता में मिलेंगे। अतः अधिक उदाहरणों की आवश्यकता नहीं।
ऊपर कहा जा चुका है कि निराला जी ने यौवन और सौंदर्य की कविता की है। उनका प्रेम न वासना ही है, न वासनाहीन प्रेम ही। दो सुन्दर युवक-युवतियों में जो प्रेम होता है, उनके हृदय में वासना और त्याग के जो भाव उठते हैं, कवि ने उन्हीं के अनेक पहलुओं को देखा है। कवि के प्रेम का आदर्श वही है जो शेली और कीट्स का है-
ज्ीम विनदजंपदे व िवनत कममचमेज सपमिए ेींसस इम
ब्वदनिेमक पद च्ंेेपवदे हवसकमद चनतपजलए
।े उवनदजंपद.ेचतपदहे नदकमत जीम उवतदपदह ेनदए
. म्चपचेलबीपकपवद ;ैीमससमलद्ध
(हमारे जीवन के अंतरतम स्रोत पे्रम की स्वर्णिम पवित्रता में एक हो जावेंगे, जैसे की प्रातः काल सूर्य के प्रकाश में पर्वतीय झरने एक-दूसरे से मिल जाते हैं – ‘शेली’)

प्दजव ीमत कतमंउ ीम उमसजमकए ंे जीम तवेम
ठसमदकमजी पजे वकवनत ूपजी जीम अपवसमजए
.म्अम व िेजण् ।हदमे . ;ज्ञमंजमेद्ध
(वह उसके स्वप्न में मिल गया, जैसे कि रोज अपनी सुगंधि ह्नायोलेट की गंध से मिला देता है – ‘कीट्स’)
यहां हम शरीर और मन की एकता देखते हैं। जैसा कि कीट्स का सिद्धांत था, मनुष्य शारीरिक प्रेम की सीढ़ी पर चढ़ वासनाहीन प्रेम को प्राप्त करता है। इस भाव को निराला जी ने अपने भ्रमर गीत में अमर लेखनी से अंकित कर दिया है। भ्रमर अपनी प्रेयसी कविता को देख कर कहता है –
मिल गए एक प्रणय में प्राण,
मौन, प्रिय, मेरा मधुमय गान!
प्रेम की एकता में जब प्राण एक हो गए, तो कवि का गान बंद हो गया। कली की सुगंधि से ही वह पहिले आकर्षित हुआ था और उसके सौंदर्य को देखकर उसके हृदय से संगीत फूट पड़ा था –
खिली थीं जब तुम, प्रथम प्रकाश,
पवन कंपित नव यौवन हास,
वृंत पर टलमल उज्जवल प्राण
नवल यौवन कोमल, नव ज्ञान
सुरभि से मिला आशु आह्नान
प्रथम फूटा प्रिय, मेरा गान।
अब उसकी अनैसर्गिक छवि को भी देखिए। सारा संसार उसके रूप-रस को पीता है। भ्रमर भी उसकी नग्न सुंदरता को देख, उसी के प्राणों से अपने प्राणों को मिला देता है –
वन्य-लावण्य-लुब्ध संसार
देखता छवि रुक बारंबार
सहज ही नयन सहस्र अजान
रूप विधु का करते मधुपान।
मनोर॰जन में गु॰जनलीन
लुब्ध आया, देखा आसीन
रूप की सजल प्रभा में आज
तुम्हारी नग्न कांति नव लाज।
मिल गए एक प्रणय में प्राण
रुक गया, प्रिय, तब मेरा गान।
यह तो हुई प्रेम के आदर्श की बात। पर उठता यौवन और उसकी भावनाओं का जैसा चित्रण निराला जी ने किया है, वैसा बड़े-बड़े कवियों में ढूंढ़ने पर ही मिलेगा।

बंद क॰चुकी के सब खोल दिये प्यार से
यौवन-उभार ने
पल्लव-पर्यंक पर सोती शेफालिके।
मूक आह्नान भरे लालसी कपोलों के
व्याकुल विकास पर
झरते हैं शिशिर से चुंबन गगन के।
रूप की एक-एक रेखा बोल रही है।
इसी भांति –
विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी – स्नेह स्वप्न मग्न –
अमल-कोमल-तनु तरुनी जूही की कली,
दृग बंद किये, शिथिल-पत्रांक में।
और भी –
कांप उठी विटपी यौवन के
प्रथम कंप मिस मंद पवन से
सहसा निकल लाज चितवन के
भाव सुमन छाये।
दूरस्थ नायक के पास अभिसारिका निशि का जाना हम ऊपर देख चुके हैं। अब सुप्त नायिका के पास दूर से नायक का आना देखिये। दूसरे उद्धरण के आगे –
बासंती निशा थी,
विरह-विधुर प्रिया संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आई याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात
;।दक पश्सस बवउम जव जीमम ंहंपद उल सवअम जीवनही पज ूमतम जमद जीवनेंदक उपसमेण्द्ध . ठनतदे
आई याद चांदनी की धुली हुई आधी रात
आई याद कांता की कंपित कमनीय गात
फिर क्या? पवन
उपवन-सर-सरित गहन-गिरि-कानन
कु॰ज लता-पु॰जों को पार कर
पहुंचा जहां उसने की केलि कली खिली साथ।
वन-उपवन, कु॰ज-लता-पु॰जों को पार करते हुए आतुर पवन के चित्र की सुंदरता पर ध्यान दीजिए। अब उस सोती नायिका के इस उत्कृष्ट वर्णन को देखिए –
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह?
नायक ने चूमे कपोल,
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इसपर भी जागी नहीं, चूक क्षमा मांगी नहीं
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूंदे रही-
किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये? कौन कहे?
नायक नहीं जानता कि वह सचमुच सो रही है अथवा उसका आना जान, जान-बूझ कर आंखे मूंदे हुए है। दोनों ही प्रकार की क्रियाएं हुआ करती हैं। पर वह अपने आवेग को नहीं रोक सकता –
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोकों झाड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह, सारी झकझोर डाली
मसल दिये गोरे कपोल गोल
इस पर तो नायिका जाग पड़ी, किंवा जागने का बहाना किया –
चैंक पड़ी युवती,
चकित चितवन निज चारो ओर फेर
हेर प्यारे को सेज पास,
नम्र मुखी हंसी-खिली,
खेल रंग, प्यारे संग।
सदियों की वही पुरानी बात पर कवि के अनुभव की सजगता ने कविता की रग-रग में स्पंदन भर दिया है।
प्रेमिका आनन्दमय जीवन के आलोक में स्नान के लिये अपने सोते प्रियतम को बुलाती है।
वासना प्रेयसी बार-बार
श्रुति-मधुर मंद स्वर में पुकार
कहती, प्रतिदिन के उपवन के
जीवन में, प्रिय, आई बहार,
बहती इस विमल वायु में
बस चलने का बल तोलो –
मुदित दृग खोलो।
एक दूसरी प्रभाती में भी तोरूलता दक्ष की भांति –
ैजपसस इंततमक जील कववते
प्रेमिका पुकारती है –
बंद तुम्हारा द्वार!
मेरे सुहाग श्रृंगार!
द्वार यह खोलो!
हृदय-रत्न में, बड़े यत्न से आज
कुसुमित कु॰ज-द्रुमों से सुरभित साज
स॰िचत कर लाई, पर कब से व॰िचत!
ले लो, प्रिय, ले लो, हार नहीं,
यह नहीं प्यार का मेरे,
कोई अमूल्य उपहार!
एक तीसरी नायिका की पुकार सुनिये –
सहृदय समीर जैसे
पोंछो प्रिय नयन नीर,
शयन शिथिल बांहें
भर स्वप्निल आवेश में,
आतुर उर वसन मुक्त कर दो
सब सुक्ति सुखोन्माद हो;
छूट छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमल
ऋजु-कुटिल प्रस्तर कामी के केश गुच्छ।
तन मन थक जायं –
यह दिमाग से जबरदस्ती निकाल कर लिखी गई कविता नहीं। इसमें यौवन का स्वाभाविक आवेश और सौंदर्य है। श्रृंगार की कविता तब हानिकारक होती है, जब कवि में निर्जीव वासना मात्र रह जाती है। ब्रज भाषा के अंतिम काल के कवियों ने जैसे अपने-अथवा अपने पोषकों के मन में काम-भावनाएं जाग्रत करने के लिये कविता लिखी उसके विपरीत मन की आकुल तरंगों के सीमा तोड़ने पर यह कविता कवि-हृदय से फूट निकली है – जैसे किसी नायिका का संगीत अंतःपुर को पार करता हुआ दूर सुनाई देता है।
डनेपब ेूममज ंे सवअम ूीपबी वअमतसिवू ीमत इवूमत . ैीमससमलण्
निराला जी की प्रकृति विषयक कविता है, उसमें भी वैसे ही भाव हैं, जो प्रकृति को देखकर एक मत्त कवि हृदय में उठेंगे। उठते हुए श्याम घन को देख कवि अपने गान को हृदय मंे ही दबाकर नहीं रख सकता –
आज श्याम-घन श्याम, श्याम छवि,
मुक्त कंठ है तुम्हे देख कवि
अहो कुसुम-कोमल कठोर पवि!
शत-सहस्र-नक्षत्र-चंद रवि संस्तुति
नयन मनोर॰जन,
बने नयन अ॰जन
बरसते हुए बादल को देख कवि किसी दर्शन शास्त्र कवि किसी दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान आदि के चक्कर में नहीं पड़ता। बरसते मेघ को देख उसका हृदय भी आनन्द से नाच उठता है और मेघ से केवल यही प्रार्थना करता है –
वाह! खूब बरसा, और बरस।
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घनघोर!
राग-अमर अंबर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष –
बरस तूं बरस-बरस रसधार!
नदी नाले तथा सर्वत्र पानी बहता देख कवि की स्वाभाविक उक्ति है –
देख-देख नाचता हृदय
बहने को महाविकल-बेकल,
आसमान से उतरती हुई संध्या के चित्र को देखिए-
अलसता की-सी लता
किन्तु कोमलता की वह कली,
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बांह
छांह-सी अंबर पथ से चली।
संध्या के सौंदर्य को देखकर भी कवि का गान रोके नही रुकता-
कवि का बढ़ जाता अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कंठ से
आप निकल पड़ता तब एक विहाग।
इस प्रकार की निराला जी की कविताओं का अनूठापन यही है कि उनमें सच्चा प्रकृति-जन्य आनंद है। एक उत्कृष्ट प्रकृति-प्रेमी के हृदय में किसी सुंदर दृश्य को देखकर जो भाव उदय होंगे, उन्हें ही हम यहां पाते हैं। इनमें वर्ड्स वर्थ की भंाति कोई प्रकृतिवाद नहीं है। पर इनकी स्वाभिकता तथा भावावेग मनुष्य को बरबस प्रकृति के सामने ला खड़ा करेंगे। एक उदाहरण और लीजिए। प्रातःकालीन प्रकृति की शोभा देख कवि का हृदय पुलकित हो उठता है। वह अपने हृदय को अपने आराध्य के चरणों पर अर्पित करना चाहता है। पहिले वह अरुण किरणों की छवि देखता है। फिर-
मार पलक परिमल के शीतल
छन छन कर पुलकित धरणी तल,
बहती है वायु, मुक्त कुंतल,
अर्पित है चरणों पर मेरा यह हृदय-हार –
मेरे जीवन पर, प्रिय, यौवन-वन के बहार!
सुगंधित वायु पृथ्वी के हृदय को पुलकित करती है; साथ ही कवि-हृदय को भी। यहां कौन बड़ा कौन छोटा, कौन चेतन कौन अचेतन? पृथ्वी, कवि, वायु सब एक ही संसार के एक दूसरे की भाषा समझने वाले प्राणी हैं। शेली में प्रकृति के प्रति जो अभेद तन्मयता देखते हैं, वही यहां है।
ऊपर दिये गए उद्धरणों से पाठक देखेंगे कि निराला जी की कविता समझने के लिये किसी रहस्यवाद, छायावाद और फिलाॅसफी में पारंगत होने की आवश्यकता नहीं। कविता हृदय की भाषा है। उसको समझने के लिये अधिक आवश्यकता भावुकता की है, न कि फिलाॅसफी की। उसका रस लेने के लिये भावों को सभ्य बनाना चाहिए। अपने कविता के स्वाद को सुशिक्षित बनाना चाहिए। जिस प्रकार खान-पान में सभी का स्वाद एक समान ऊंचा और बारीक नहीं होता उसी प्रकार कविता के सूक्ष्म भावों की सुंदरता जांचने की शक्ति भी सबमें समान नहीं रहती। उन्नीसवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध लेखक मैथ्यू अर्नोल्ड ने अपने एक लेख में ‘टेस्ट’ (स्वाद) को सुशिक्षित करने की सलाह दी है। इसके लिये उन्होंने एक तरीका भी बताया है कि प्रसिद्ध कवियों के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध काव्य-स्थलों पर निशान लगा लो। फिर पढ़ो देखो की तुम्हें अन्यत्र से वहां अधिक आनन्द आता है कि नहीं। जितनी ही अधिक अच्छी कविता पढ़ो, ‘टेस्ट’ उतना ही सुसंस्कृत होता जायगा।
अंग्रेज कवि डाॅन और ब्राउनिंग ने अपनी कविता को अधिकांश में जिस प्रकार दुरूह बना दिया है, वैसा निराला जी ने नहीं किया। यदि हम उनके भावों को नहीं समझते तो इसलिये नहीं कि कवि उटपटांग बोलता है, वरन इसलिये कि वह हमसे अधिक ऊंचाई पर हैं। इसके लिये कवि नीचे उतरकर न आवेगा, हमें ही ऊपर चढ़ना पड़ेगा।
जिस प्रकार हम किसी बड़े कवि की किसी लाइन पर अटक, उसी के रस-सिंधु में गोते लगाते रह जाते हैं वही बात यहां भी है। ऊंचे काव्य की यही निशानी है। कवि कहे थोड़ा, पर उसमें इतना रस हो कि पढ़ने वाला उसी में डूबता उतराता रहे। भौंरा फूल के पास जा उसके सौरभ पर मस्त होकर गूंजता रह जाता है।
देख पुष्प-द्वार
परिमल-मधु-लुब्ध मधुप करता गु॰जार।
ऐसी ही कविता को अंग्रेजी में ैनहहमेजपअम चवमजतल (लाक्षणिक कविता) कहते हैं।
निराला जी ने अपने छंदों के विषय में स्वयं बहुत कुछ लिखा है। उनके विषय में अधिक न कह। भाषा के विषय में इतना ही कहूंगा कि शब्द चुने हुए और प्रसाद रस से पूर्ण होते हैं।
आंखे अलियों-सी, किन मधु की गलियों में फंसी,
बन्द कर पांखें पी रही हैं मधु मौन
अथवा सोहैं कमल-कोरकों में? बन्द हो रहा गु॰जार-
जागो फिर एक बार!
यदि एक भी कर्कश शब्द हो तो बताइए! क, म, प आदि कोमल अक्षरों की आवृत्ति से कितना माधुर्य आ गया है। इसी प्रकार का शब्द-माधुर्य ऊपर के अन्य उद्धरणों में भी मिल सकता है। आधुनिक कवियों में मैं निराला जी को सबसे मधुर भाषा लिखने वालों में से समझता हूं। निराला जी की कविता राम विलास शर्मा

2 Replies to “डॉ. रामविलास शर्मा का पहला लेख (1934)”

  1. रामविलास जी ने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध का एक बड़ा हिस्सा भाषाविज्ञान की समस्याओं से जूझने में लगाया. भाषाविज्ञान को उन्होंने न सिर्फ रुचिकर और बोधगम्य बनाया बल्कि कई रूढ़िवादी-भ्रामक धारणाओं से मुक्ति भी दिलाई. उन्होंने हिंदी भाषाविज्ञान की एक वैकल्पिक परिकल्पना पेश की. इस परिकल्पना की विचारोत्तेजक पड़ताल के लिए देखें प्रो. वीर भारत तलवार का लेख हिंदी भाषा विज्ञान की दूसरी परम्परा

  2. एक अच्छा आलोचक समग्रता में सोचता हैं तथा वर्तमान समय को संपूर्ण समस्याओं से जूझकर उनके समाधान प्रस्तुत करते हुए भविष्य का खाका भी प्रस्तुत करता हैं। डॉक्टर शर्मा का सपना है की भारत का समाज एक समता मूलक समाज बने, जो विदेशी मूल्यों का अनुकरण न करते हुए प्रगतिशील बने, उन्हें भारतीय संस्कृति की गरिमा का ख्याल हमेशा रहता है, इसीलिए वे ऋग्वेद, महाभारत, रामायण, पुराण आदि से सन्दर्भ प्राप्त करते हैं. जितनी व्यापक दृष्टि के साथ उनका लेखन है, उतनी ही व्यापक दृष्टि के साथ उसका मूल्यांकन किया जिए, तभी न्याय सांगत मूल्यांकन होगा.

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