वर्गबद्ध साहित्य के समाज में आज तक जो-जो ख्यातिलब्ध कलाकृतियाँ हुई हैं, वह सारी प्रचारकीय ही थीं । श्रेष्ठ कला प्रचारकीय होती ही है और बेहतर प्रचार कलात्मक बन जाता है । श्रेष्ठ कला का विषय मनुष्य होने के कारण और मनुष्य का जीवन व भावनाएँ-संवेदनाएँ वर्गबद्ध समाज में वर्गीय गुणों से घिरे होने के कारण कला में वर्गीय रूप आ ही जाता है ।
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बहस बदलाव के लिये