मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति – विजयदेव नारायण साही

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मार्क्स और एंगेल्स मूलतः आर्थिक-राजनीतिक विचारक है। मार्क्स और एंगेल्स की साहित्य में गहरी दिलचस्पी थी और कहा जाता है की मार्क्स ने बालजाक की विस्तृत समीक्षा लिखने का विचार भी किया था, परन्तु राजनीतिक व्यस्तताओं के कारण यह संकल्प पूरा न हो सका। यदि यह संकल्प पूरा होता तो बहुत शुभ होता, क्योंकि तब हमें मार्क्स की प्रणाली का विस्तृत रूप समझने को मिलता। मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की पद्धति में कला, विशेषतः साहित्य का क्या स्थान है, इसे जानने के लिए आज हमारे पास मार्क्स की साधारण विचारधारा, सामाजिक-आर्थिक ग्रंथों में आये हुए कला अथवा साहित्य-सम्बन्धी छिट-पुट उल्लेख तथा पत्रों और सामयिक समीक्षाओं में साहित्यिक कृतियों अथवा साहित्यकारों पर प्रकट किये हुए संक्षिप्त विचार, इतनी सामग्री ही उपलब्ध है। स्पष्ट है कि साहित्य और सौन्दर्य जैसे विशिष्ट विषय की समीक्षा के लिए, जिसमें मात्रा एवं आग्रह-मात्र के भेद से पद्धति और विश्लेषण में भारी अन्तर पड़ जाने की सम्भावना रहती है, इतनी सामग्री पर्याप्त नहीं है। इसलिए मान्यताओं की स्थापना में थोड़ी सावधानी बरतने की आवश्यकता है।
सबसे पहले मार्क्स की मानव-चेतना-सम्बंधी साधारण विचारधारा को ही लें। इस सम्बन्ध में उनके आधार और प्रासाद वाले रूपक से सभी परिचित हैं। आजकल अधिकतर कम्युनिस्ट समालोचना में इस उदाहरण की ही बाढ़ दिखलाई पड़ती है। मार्क्स ने इस मिद्धान्त को ‘क्रिटीक ऑफ पोलिटिकल एकानामी’ में व्यक्त किया है: ‘‘उत्पादन-सम्बन्धों के कुल जोड़ से समाज का आर्थिक ढांचा बनता है जो असली आधार है और उसी के ऊपर कानूनी और राजनीतिक प्रासाद खड़ा होता है जिसके अनुरूप सामाजिक चेतना के निश्चित स्वरूप बनते हैं। भौतिक जीवन से उत्पादन की प्रणाली ही सामान्यतः सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन की प्रक्रियाओं का नियमन करती है। लोगों की चेतना उनकी अवस्था का नियमन नहीं करती, बल्कि उनकी सामाजिक अवस्था ही उनकी चेतना का नियमन करती है।’’ लेकिन यह ‘नियमन’ करने की क्रिया मार्क्सीय पद्धति में उतनी आसान और सीधी नहीं है जैसा कि साधारणतः समझा जाता है। साधारण ढंग से हम यों कह सकते हैं: राजनीति, विधान, धर्म, दर्शन, साहित्य और कला आदि उच्च मानसिक क्षेत्रों में हम समाज के नक्शे की छाप देख सकते हैं। यह छाप कहीं सीधी है तो कहीं इतनी धुंधली और अपरिचित कि पहचानना कठिन हो जाता है। फिर ये बौद्धिक या मानसिक प्रक्रियाएं बराबर अपनी सामाजिक जड़ों से दूर होती जाती हैं, अपना अलग वर्ग स्थापित करती हैं, अपने स्वतः विकासमान नियम बनाती हैं और स्वयं सामाजिक आधार को प्रभावित करती हैं इस प्रकार सामाजिक संगठन की छाप में भारी अन्तर पड़ जाता है ऐसी दशा में मार्क्स का विशेष आग्रह इस बात पर है कि हर बौद्धिक प्रवाह या प्रक्रिया की गति को ‘हर दृष्टांन्त में अलग-अलग व्यावहारिक और प्रयोगशील अनुशीलन के आधार पर, बिना किसी रहस्यात्मकता या दिमागी उड़ान के’ समझा और देखा जाय।
चेतना-प्रक्रिया के कुछ स्वरूप आधार के अधिक निकट होते हैं और कुछ दूर है। ‘‘जिस क्षेत्र का हम अनुशीलन कर रहे हैं, वह आर्थिक जगत् से जितनी ही दूर और शुद्ध कल्पनात्मक विचारधारा के जितना ही निकट होगा, उतना ही उसके विकास में हमें आकस्मिक घटनाओं का आधिक्य दिखलाई पडेगा, उतने ही उसकी रेखा में हमें घुमाव-फिराव नजर आयेंगे। इस प्रकार सामाजिक प्रभाव की दृष्टि से बौद्धिक प्रक्रिया के स्वरूपों के एक सोपान की कल्पना की गई है। इस बात को याद रखना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, मार्क्सवाद के उत्तराधिकारियों ने धीरे-धीरे इन सोपानों के अंजर-पंजर ढीले कर दिए और प्रगतिवाद तथा सामाजिक यथार्थ के नाम पर ऊंची उड़ानों को जमीन पर रेंगने के लिए विवश कर दिया।

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‘लुडविग फायरबाख’ में एंगेल्स की यह सोपानमूलक कल्पना स्पष्ट है। इसके अनुसार विधान और राजनीति-शास्त्र के क्षेत्र ‘आधार’ के सबसे निकट है। इनसे भी ‘‘ऊंची उड़ने वाली विचारधाराएं, अर्थात वे जो आर्थिक आधार से और भी दूर हैं, धर्म और दर्शन का रूप ग्रहण करती हैं।’’ अथवा ‘‘धर्म भौतिक जीवन से सबसे अधिक दूर है और उससे सबसे अधिक अलग मालूम पड़ता है।’’ धर्म की विवेचना में एंगेल्स ने दो मार्के की बातें कहीं हैं। जहां तक ‘‘विचारधारा के उन स्वरूपों का सम्बन्ध है जो हवा में और ऊंची उड़ान मारते हैं, जैसे धर्म, दर्शन आदि, इनके पीछे एक प्रागैतिहासिक पंूजी होती है, जिसे हम आज निरर्थक कल्पना ही कह सकते हैं और यह पूंजी ऐतिहासिक युग में भी चालू रहती है।… इस तमाम आदिकालीन ऊल-जलूल के लिए आर्थिक कारण खोजना या उसमें सिर खपाना निस्सन्देह पांडित्य-प्रदर्शन की सीमा होगी।’’ दूसरी बात यह कि ‘‘इसलिए: एकबार जब धर्म बन जाता है तो उसमें हमेशा रूढ़िगत तत्व उपस्थित रहते हैं, जिस तरह सभी चेतना-क्षेत्रों में रूढ़ि एक जबरदस्त परम्परावादी शक्ति का काम करती है।’’ साहित्य और कला के इतिहास में ‘धर्म और दर्शन’ तथा रूढ़ियों को ‘परम्परावादी शक्ति’ का कितना हाथ है, यह ‘व्यावहारिक और प्रयोगशील अनुशीलन’ का विषय है, ‘दिमागी उडा़न’ का नहीं।
इस सोपान में कला और साहित्य का स्थान कहां है ? ग्रीक कला का विवेचन करते हुए मार्क्स ने कहा है: ‘‘ग्रीक कला, ग्रीक पुराण को पहले मान-कर ही चलती है। यह तथ्य सर्वविदित है कि ग्रीक-पुराण न केवल ग्रीक-कला का कोष था बल्कि वह धरती थी जिससे वह निकली और फली-फूली।’’ यह याद रखने की बात है कि यह धर्म अथवा पुराण वहीं ‘उल- जलूल’ है जिसकी हर सूरत के लिए ‘आर्थिक कारण’ नहीं खोजा जा सकता और जो आर्थिक आधार से बहुत दूर क्या ‘सबसे अधिक दूर’ है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कविता धर्म से भी एक सीढ़ी ऊपर है। प्लेखानोव और कॉडवेल ने भी इसको माना है, यद्यपि उनके रास्ते अलग-अलग हैं। यहां काडवेल के विश्लेषण के एक पहलू का जिक्र करना दिलचस्प होगा। काडवेल ने पुराण के दो युग माने हैं। एक भेदहीन आदिकालीन साम्यवादी समाज का युग: इसमें पुराण जीवित रहता है अर्थात हर नये अनुभव के साथ उसमें नये देवी-देवता, नई अलौकिक लीलाएं जुड़ती चलती हैं। काडवेल के अनुसार वहां पुराण और काव्य एक-दूसरे से एकात्म होते हैं। दूसरा युग वह है जब समाज वगों में बंट जाता है। यहां पुराण जड़ हो जाता है। नये देवी-देवता अब उसमें नहीं जुड़ सकते और पुराने देवताओं या लीलाओं के लिए भी एक सचेत-प्रकिया ‘विश्वास’ या ‘आस्था’ की आवश्यकता हो जाती है, जिसका आधार शासकवर्ग की शक्ति होती है। यहां से कविता और पुराण के रास्ते अलग हो जाते हैं। भारतीय समाज का इतिहास युरोप के तथाकथित मार्क्सवादियों को किस प्रकार पग-पग पर झुठलाता है इसका यह एक अच्छा उदाहरण है। काडवेल ने शायद यह कभी सुना भी न होगा कि भारत नाम के इस विचित्र देश में अठारह पुराणों का जन्म वर्ग-समाज के अन्दर हुआ, तैतीस करोड़ देवता बने (और एक से एक काव्यमय), गौतम बुद्ध ईश्वर के अवतार हो गए, जयचन्द, विद्यापति और सूरदास-जैसे कवियों ने मिलकर राधा नाम की एक नई देवी की स्थापना कर दी, तुलसीदास ने ‘मानस’ में एक नया ही पुराण बनाकर खड़ा कर दिया। और न जाने कितनी और ऐसी रंग-बिरंगी कल्पनाएं उभरी, चमकी और जनता के गले का हार बन गई – और इन सबके लिए न तो किसी शासकवर्ग की आवश्यकता पड़ी, न किसी केन्द्रित चर्च-संगठन की, न ऊपर से लादे हुए ‘विश्वास’ की।
भारत के पूरे इतिहास में अंग्रेजों के जड़ जमाने के पहले जीवन्त पौराणिक आख्यानों के निर्माण का काम कभी बन्द नहीं हुआ। साथ ही, आदिम जातियों के समाज की तरह पुराण और काव्य में पूरा एकात्म भी नहीं रहा। दोनों काव्यमय हैं, जीवन्त हैं। घुल-मिल भी जाते हैं। साथ ही अलग-अलग भी प्रवाहित होते हैं। परन्तु शुद्ध काव्य और पुराण में कालान्तर नहीं है।
इस्लाम के अभ्युदय और मध्यकालीन फारसी काव्य में इन दोनों से अलग एक दूसरा ही दृश्य दिखलाई पड़ता है। यहां एक सिरे से पौराणिकता है ही नहीं, या है भी तो केवल स्वाद चखने-भर को। फिरदौसी ने शाहनामे में कुछ मिलती-जुलती चीज खड़ी भी की, जो नमूना बनकर रह गई।
यह कहना कि साहित्य समाज पर आधारित है एक बात है, कि साहित्य समाज की अनुकृति है, दूसरी बात है, और साहित्य सामाजिक यथार्थवाद है तीसरी और बिलकुल भिन्न बात है। पहला निष्कर्ष यह है की मार्क्स और एंगेल्स के विचार से साहित्य समाज पर आधारित है; उसे हम उसकी छाया भी कह सकते हैं, लेकिन यह बहुत ही बिगड़ी हुई, शायद चेतना के अन्य स्तरों की अपेक्षा सबसे अधिक बिगड़ी हुई छाया है और आर्थिक विकास से उसकी समानान्तर उतनर ही स्पष्ट होगी ‘‘जितना लम्बा युग और जितना चौड़ा क्षेत्र हम अध्ययन के लिए लें।’’
साहित्यिक प्रतिच्छाया में यह परिवर्तन, विकृति या बिगाड़ क्यों पैदा होता है? साहित्य ही क्यों, चेतना के अन्य स्वरूपों में भी यह विकृति क्यों उत्पन्न होती है? मार्क्स और एंगेल्स का उत्तर स्पष्ट है। इसलिए कि चेतना के विकास की दिशा का निरूपण उसके विकास के नियम भी करते हैं। जितने वेग और स्वच्छंदता के साथ ये नियम काम करते हैं उतना ही छाया में अन्तर पड़ता जाता है और जितना ही चेतना का स्वरूप ‘ऊची उडानें’ लेगा, उतनी ही इन नियमों की क्रियाशीलता बढ़ती जायगी। कानून के क्षेत्र में भी, जो एंगेल्स के अनुसार सामाजिक आधार के सर्वाधिक निकट है, यह विकृति पैदा होती है। ‘‘आधुनिक राज्य में कानून को न केवल सामान्य आर्थिक अवस्था का अनुसरण और उसकी अभिव्यक्ति करना पड़ता है, बल्कि उसे एक ऐसी अभिव्यक्ति भी होना पड़ता है जो ‘अपने में तर्क संगत’ (जोर एंगेल्स का) हो और जो अपने अन्तविरोओं के कारण स्पष्टतः असंगत न मालूम पड़े और इस संगति को प्राप्त करने के लिए आर्थिक स्थितियों की प्रतिच्छाया में अधिक-से-अधिक काट-छांट होती जाती है।’’ ‘यह अपने में तर्कसंगत’ अगर स्वतः सिद्ध नियम नहीं है तो क्या है?
आर्थिक विकास के अतिरिक्त, उसके मौजूद, और उसके साथ साहित्य में काम करने वाले ये अन्य नियम क्या हैं? यहीं पर इसका खयाल आता है कि अगर मार्क्स बालजाक पर पुस्तक लिखने का संकल्प पूरा करता तो बड़ा ही शुभ होता। क्योंकि यह अध्ययन और अनुशीलन का एक अलग ही क्षेत्र है। लेकिन फिर भी मार्क्स-एंगेल्स का दृष्टिकोण उस सम्बन्ध में स्पष्ट है। स्वयं आर्थिक-उत्पादन के क्षेत्र में मार्क्स का कहना है: ‘‘जानवर सिर्फ अपनी जाति की माप और आवश्यकता के अनुसार निर्माण करते हैं, जबकी आदमी हर जाति की माप के अनुसार निर्माण करता है और हर जगह तद्विषयक अन्तर्वर्ती माप प्रस्तुत कर सकता है। इसलिए आदमी सौन्दर्य के नियमों के अनुसार भी निर्माण करता है।’’ ये सौन्दर्य के नियम जो आर्थिक क्षेत्र में भी दिखलाई पड़ रहे हैं, हजारगुने वेग से साहित्य के क्षेत्र में काम करते हैं। मार्क्सवादी आलोचक का यह महान उत्तरदायित्व है कि उनका अध्ययन और अनुशीलन करे और उनके आधार पर साहित्य के इतिहास को समझे और आज के तथा भविष्य में साहित्य की दिशा तथा उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में मत व्यक्त करे; क्योंकि ये नियम ही साहित्य को साहित्यिकता प्रदान करते हैं; उसे अन्य मानसिक अभिव्यक्तियों से विशिष्टता प्रदान करते हैं – येही नियम, जिनका सारा जोर सामाजिक प्रतिच्छाया को बिगाड़कर बदल देने ही में लगता है।
साहित्य में प्रवृत्तिवाद के सम्बन्ध में एंगेल्स का मत छाया के परिवर्तन के महत्व को और भी स्पष्ट कर देता है। ‘प्रवृत्ति’ अपने शुद्ध रूप में वह सामाजिक सत्य की सीधी छाया ही है, जो कम्युनिस्ट आलोचकों को बहुत प्यारी है। एंगेल्स की साफ राय है कि ‘प्रवृत्ति’ की स्पष्टता साहित्य के लिए अहितकर है। ‘‘तुम्हारे उपन्यास के दोष की जड़, उसी उपन्यास में ही है। साफ लगता है कि तुम्हें लोगों के बीच अपने सिद्धान्तों की घोषणा करने की आवश्यकता महसूस हो रही है… मैं प्रवृत्तिमूलक काव्य का विरोध नहीं कर रहा हूं… लेकिन मेरी समझ में यह प्रवृत्ति अपने-आप परिस्थितियों और घटनाओं से प्रवाहित होनी चाहिए। बिना किसी विशिष्ट संकेत के; और लेखक के लिए यह आवश्यक नहीं है कि चित्रित सामाजिक संघर्षों के भावी ऐतिहासिक समाधानों को भी पाठक के ऊपर लाद दे।’’
एंगेल्स ने यहा एक साधारण सिद्धान्त और आलोचनात्मक दृष्टिकोण की व्याख्या की है। प्रवृत्तिवाद का ‘विरोध न करना’ एक बात है और प्रवृत्तिवाद को ही साहित्यिक आलोचना का आधार और निर्णयात्मक मानदण्ड मानना बिलकुल दूसरी बात है। यह प्रवृत्तिवाद, प्रगतिवाद का नकाब लगाये, या ‘सामाजिक यथार्थ’ का जामा पहने, जब भी साहित्य के अपने नियमों के विरुद्ध सीधी प्रतिच्छाया का आग्रह करेगा, साहित्य की शक्ति और श्रेष्ठता को आघात ही पहुंचायगा। यह वर्तुुल अथवा वक्र रेखा को जबरदस्ती सांचे में कसकर सीधी रेखा बनाने का प्रयास है। वर्तुल रेखा, जो साहित्यकार का सत्य है, सीधी रेखा के, जो तथाकथित क्रान्तिकारी के दिमाग में उपजती है, इस दबाव के विरुद्ध विद्रोह करती है। साहित्यकार चिल्लाकर पुकारता है: ‘‘ ‘साहित्य’ को प्रचार मत बनाओ’’ कमिसार सर्द शब्दों में उत्तर देता है: ‘‘मेरी सीधी रेखा इतिहास की अनिवार्यता है; इस अनिवार्यता को पहचानो, यही सबसे बड़ी स्वतन्त्रता है।’’ और ताकि साहित्यकार अनिवार्यता के महत्व को भली भांति समझ जाय। कमिसार ‘सेंसर’, जेल और यातना की ओर एक इशारा कर देता है। साहित्यकार अगर अक्लमन्द हुआ तो उसके लिए यह काफी होता है।
छाया का यह परिवर्तन साहित्य के लिए मूलभूत प्रश्न है – वह प्रश्न जो साहित्य की साहित्यिकता का प्राण है – इस तथ्य की स्वीकृति मार्क्स के दृष्टिकोण का अविभाज्य अंग है। यह परिवर्तन विषय-वस्तु और रूप-विधान का मात्र यांत्रिक सम्बन्ध नहीं है, जिसके अनुसार रूप-विधान विषय-वस्तु का दास बनाकर रख दिया गया है। अपने आगे आने वाले उत्तराधिकारियों के लिए चेतावनी की तरह मार्क्स पूछता है: ‘‘कठिनाई इसे समझने में नहीं है कि ग्रीक-कला और काव्य सामाजिक विकास के कुछ स्वरूपों से सम्बद्ध है। जानने की बात यह है कि आज भी हमारे लिए वह कुछ सूरतों में सौन्दर्यात्मक आनन्द के स्रोत, तथा असाध्य आदर्श और नमूने क्यों बने हुए हैं?’’
मार्क्स के उत्तराधिकारियों में से किसी ने शायद जैक लिण्डसे के अतिरिक्त इस अर्थपूर्ण और गागर में सागर भरने वाले प्रश्न का उत्तर तो नहीं ही दिया, कभी इतनी ईमानदारी और आग्रह के साथ इस प्रश्न को दुहराया भी नहीं। मार्क्स साहित्य की एक सार्वभौमिकता की कल्पना करता है जो वर्गहित ही नहीं, सामाजिक युग को भी पार करके नये आनन्द की सृष्टि करता है। यह विशेषाधिकार अर्थ-शास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शन आदि चेतना के अन्य स्तरों को नहीं दिया गया है। किसलिए साहित्य को यह युग-युग-व्यापी शक्ति मिलती है। क्या केवल इसलिए कि साहित्य शासकवर्ग का हथियार है, या तत्कालीन समाज की अनुकृति है या इसलिए कि वह इसके अतिरिक्त, इसके बावजूद कुछ और है उत्तर स्पष्ट है। साथ ही साहित्य के आलोचक के लिए दूसरा सवाल भी स्पष्ट है। वह ‘कुछ और’ क्या है ?
यह सार्वभौमिकता और सौन्दर्य अथवा अनुभूति की गहराई, केवल विषय-वस्तु को पाठक तक पहुंचाने का स्वरूप या माध्यम नहीं है। वह साहित्यिक या कलात्मक उपलब्धि का चरम आदर्श है, उसकी अनिवार्य शतें है। इसलिए वह आलोचक के अनुशीलन का क्षेत्र है, कृतिकार का प्राण है, साहित्य की सफलता उसकी उत्तेजक शक्ति तक सीमित नहीं है। आलोचक चाहे सामाजिक विकास के नियम से कितनी ही अच्छी तरह परिचित क्यों न हो, सिर्फ इतना ही उसके लिए काफी नहीं है। लासाल के नाटक ‘सिकिंगेन’ पर अपने विचार व्यक्त करते हुए एंगेल्स कहता है: ‘‘तुम्हारे राष्ट्रीय जर्मन-नाटक को पहली और दूसरी बार पढ़ने के बाद, मैं विषय-वस्तु तथा उसके उपयोग दोनों के विचार से, कुछ इस जोर के साथ प्रभावित हुआ कि विवश होकर मुझे उसे कुछ देर के लिए उठाकर अलग रख देना पड़ा; विशेषतः इसलिए और भी कि इन दिनों की साहित्यिक निर्धनता ने मेरी रुचि को कुछ इस तरह भदेस बना दिया है। (शर्म की बात है, लेकिन मानूंगा अवश्य) कि दो कौड़ी की चीजें भी पहली बार पढ़ने पर मुझे प्रभावित कर देती हैं। इसलिए एक बिलकुल तटस्थ, पूर्णतः ‘समीक्षात्मक’ दृष्टि प्राप्त करने के लिए मैंने सिकिंगेन को अलग कर दिया।’’ काश पोलितब्यूरो के सदस्यगण इससे आधी भी विनम्रता का प्रदर्शन करते। मार्क्स ने स्पष्टतः कहा है: ‘‘कला का आनन्द उठाने के लिए आवश्यक है कि आदमी कलात्मक रूप से सुसंस्कृत हो।’’
अब हम अपने पहले निष्कर्ष में आवश्यक बातें जोड़ लें: जिन कारणों से साहित्यिक प्रतिच्छाया में विकृति उत्पन्न होती है, उनके पीछे साहित्य और सौन्दर्य के अपने नियम हैं, जो सामाजिक आवश्यकता के बावजूद काम करते हैं। इन नियमों की क्रियाशीलता के कारण ही साहित्य ऊंची उड़ानें भरता है और उसमें सार्वभौमिकता एवं श्रेष्ठता उत्पन्न होती है। आलोचना के सामने असली सवाल सामाजिक यथार्थ का नहीं है, बल्कि उस यथार्थ की विकृतियों के अध्ययन का है। इसीलिए आलोचक के लिए आवश्यक है कि वह कलात्मक रूप से सुसंस्कृत हो और छाया में इस परिवर्तन का आनन्द ले सके।
साहित्य में सामाजिक सत्य के पहले मसीहा प्लेटों का सिर भी इस अनिवार्य विकृति की दीवार से जा टकराया था और उसने झुंझलाकर कहा था: ‘‘ये सारे कवि केवल ऐन्द्रजालिक और झूठे हैं, इनको कान पकड़कर निकाल बाहर कर दो।’’ इतना तो मानना ही पडे़गा कि प्लेटो उन लोगों से अधिक ईमानदार है जो बेचारे कवि को मानव-आत्मा का शिल्पी कहते हें, लेकिन काम वही करते हैं।
अन्त में यह कहना आवश्यक है कि मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में हीगेल के अद्वैतात्मक नियतिवाद का अंश काफी हद तक मौजूद है, विशेषतः उन स्थानों पर जहां मार्क्स आंकड़ों से न जूझकर शुद्ध दार्शनिक खंडन-मंडन में व्यस्त हो जाता है। भेद आग्रह का है परन्तु नियतिवाद और प्रयोगात्मक प्रयास, दोनों की शाखाएं फूटती हुई दिखलाई पड़ती हैं। परवर्ती मार्क्सवादियों में इस आग्रह-भेद से परस्पर विरोधी विचारधाराओं और राजनीतियों की टकराहट इतिहास-विदित है लेकिन यह हठ कि साहित्यिक कृतिकार राजनीतिक भूमिका भी ग्रहण करे, राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना में कलाकृतियों को हेय समझा जाय, मार्क्सवादी साहित्यक दृष्टि की मौलिक अथवा अनिवार्य स्थापना नहीं है। यह घटना बाद में घटी है। प्रवृत्ति की अनिवार्यता की सूझ जर्मनी, फ्रांस और इंग्ंलैण्ड की मार्क्सवादी त्रिवेणी में रूस की एक नई धारा के सम्मिश्रण का परिणाम है और यहां हम प्लेखानोव की छाया-तले पहुंच जाते है। मार्क्सवादी समीक्षा की दूसरी मंजिल आरम्भ होती है।
पुश्किन और चेखव से लेकर रूसी क्रान्ति तक हम यह देखते है कि हर साहित्यिक कृति में एक गूढ़ प्रवृत्तिमूलक राजनीतिक संकेत छिपा हुआ है। जार के निरंकुश, एकछत्र और जनतन्त्रहीन राज्य में अनिवार्य था कि हर सामाजिक आलोचना एक राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर ले। जितनी तीव्रता से जार का सेंसर काम करता था, उतनी ही राजनीतिक प्रवृति की यह कला मंजती जाती थी। रूसी साहित्य की यह विशेषता मार्क्सवाद के आगमन के पूर्व ही वहां काम कर रही थी। जिस प्रकार तॉलस्तॉय ने अपने लेख ‘कला क्या है’ में अपने नैतिक आग्रह के कारण शेक्सपीयर को, यहां तक कि स्वयं अपने लिखे हुए बहुत-से उपन्यासों को उठाकर फेंक दिया, वह सब जानते है। लेकिन तालस्ताय का यह साहसिक कार्य कोई नया जादू नहीं था जो सिर चढ़-कर बोला। इसका आवाहन शताब्दी के प्रारम्भ में बेलिन्स्की, चेर्नीशेव्सकी के समय से ही हो रहा था।
यह उत्तराधिकार प्लेखानोव को मिला। मार्क्सवादी साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में ‘प्रगतिशील’ शब्द का सबसे पहले प्रयोग शायद प्लेखानोव ने ही किया। प्लेखानोव ने साहित्य को वगों की, विशेषतः शासक-वर्ग की, अभिव्यक्ति कहकर एक कड़ी और जोड़ी। इस आलोचनात्मक दृष्टि ने मार्क्स की साधारण विचारधारा का फन्दा साहित्य के ऊपर डाला और सोपान-मूलक कल्पना पर पहला आघात किया। प्लेखानाव कहता है: ‘‘हुईमां का दृष्टान्त एक बार फिर यह सिद्ध करता है कि कला का काम सैद्धान्तिक विषय-वस्तु के बिना नहीं चल सकता। लेकिन जब कलाकार अपने समय की महत्वपूर्ण सामाजिक प्रवृतियों की ओर से आंखे मूंद लेता है, उसकी कृतियों में व्यक्त किये गए विचारों का मूल्य काफी घट जाता है। परिणाम यह होता है कि स्वयं कृतियों को क्षति पहुंचती है। यह तथ्य कला और साहित्य के इतिहास के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि इसका निरीक्षण हर पहलू है से होना चाहिए।’’
इसकी तुलना एंगेल्स से कीजिए: ‘‘अन्तिम दो अंको से यह स्पष्ट है कि तुम बिना कठिनाई के कथोपकथन को सजीव और प्रवाहयुक्त बना सकते हो और चूंकि यह बात प्रथम तीन अंको में भी पैदा की जा सकती है, कुछ दृश्यों के अतिरिक्त (जो हर नाटक में होते हैं), अतः मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि अपने नाटक को रंगमंच के लिए प्रस्तुत करते समय तुम इसका ध्यान रखोगे। निस्सन्देह इससे सैद्धान्तिक विषय-वस्तु को क्षति पहुंचेगी, पर यह अनिवार्य है।… मेरी राय में सैद्धान्तिक तत्वों के लिए सजीव यथार्थ को नहीं छोड़ना चाहिए। शिलर के लिए शेक्सपीयर को भूलना नहीं चाहिए।’’
प्लेखानोव बड़ी दृढ़ता के साथ घोषित करता है: ‘‘जिस प्रकार सेब के पेड़ से सेब ही पैदा होगा और नाशपाती के पेड़ से नाशपाती ही, उसी प्रकार जो भी कलाकार मध्यमवर्गीय दृष्टिकोण ग्रहण करेगा, अनिवार्यतः श्रमिक आन्दोलन के विरुद्ध हो जायगा। ‘‘ह्रास के युगों में कला अनिवार्यता ह्रासोन्मुख ही होगी।’’ फिर भी मार्क्सवाद का अनुभव है:
‘‘यह सर्वविदित है कि कला के सर्वोच्च विकास के कुछ युगों का कोई भी स्पष्ट सम्बंध न तो समाज के साधारण विकास के साथ और न भौतिक आधार अथवा उसकी व्यवस्था के ढांचे के साथ ही मालूम पड़ता है। आज के राष्ट्रों या शेक्सपीयर की भी तुलना में ग्रीक-कला का दृष्टांन्त इसका साक्षी है।’’
इसी तरह अन्य कई उद्धरण दिये जा सकते हैं। प्लेखानोव का आग्रह मार्क्स से भिन्न है यह स्पष्ट दिखलाई पड़ रहा है। साहित्य-सम्बन्धी मार्क्सीय सिद्धान्तों में कौन-सा परिवर्तन आ गया है? आग्रह का यह भेद साहित्य-दर्शन में किस अन्तर का द्योतक है?
प्लेखानोव ने समाज के आर्थिक आधार और कला में कार्य-कारण-सम्बन्ध स्थापित किया। वह पूछता है: ‘‘क्या यह सम्भव है और किन स्तरों पर, कि स्थिति और चेतना के बीच, एक ओर समाज की अर्थनीति और टेकनीक तथा दूसरी ओर उसकी कला के बीच कार्य-कारण-सम्बन्ध का निरीक्षण किया जा सके?’’ उसका उत्तर है: ‘‘कला के विकास का उत्पादक-शक्तियों के साथ कार्य-कारण-सम्बन्ध है, चाहे यह सम्बन्ध सदा सीधा न हो।’’ आदिम साम्यवाद से समाज के वर्ग-विभाजन-युग में पर्दापण करने के पश्चात् इस कार्य-कारण में मध्यन्तर-मात्र पड़ जाता है’’ कलात्मक-सृजन अनिवार्यता द्वारा सभ्य समाज में आदिम समाज से किसी दशा में कम बाधित नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि सभ्य समाज में उत्पादन-प्रणाली और टेकनीक पर कला की सीधी निर्भरता समाप्त हो जाती है।’’
मार्क्स-एंगेल्स समाज और साहित्य के इस सम्बन्ध को व्यक्त करने के लिए दूसरे शब्दों-प्रभावित, नियमित, आबद्ध, आदि का प्रयोग करते हैं। उनके लिए समाज सीमाएं निर्धारित करता है, परन्तु साहित्य की हर गति का कारण नहीं बनता। ‘‘जो तथ्य’’ मार्क्स लिखता है, ‘‘उन लेखकों को निम्न मध्यमवर्ग का प्रतिनिधि बनाता है वह यह है कि अपने मस्तिष्क में वे उन सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाते, जिनका अतिक्रमण निम्न-मध्यमवर्ग अपने जीवन में नहीं कर पाता; कि बराबर वे सैद्धांतिक रूप से उन्हीं प्रश्नों और समाधानों की ओर दौड़ते हैं जिस ओर व्यावहारिक रूप से भौतिक स्वार्थ और सामाजिक मर्यादा उस वर्ग को ढकेलती है। साधारणतः किसी वर्ग के राजनीतिक और साहित्यिक प्रतिनिधियों और मूल वर्ग के बीच यही सम्बन्ध रहता है।’’
रूपक की भाषा में हम यों कह सकते हैं कि मार्क्स के अनुसार पतंग भूमि से डोर द्वारा बंधी हुई है। उसकी ऊंचाई की सीमा का निर्धारण डोर की लम्बाई करेगी। लेकिन आकाश में वह किस वेग से उड़ेगी, कैसे-कैसे चक्कर खायगी, कौन-सी अदाएं दिखलायगी। यह सब आकाश के ऊपर हवा की गति से नियंत्रित होगा। प्लेखानोव के अनुसार हवा के वेग द्वारा केवल इतना ही तय होगा कि पतंग की पूंछ ऊपर रहेगी या उसकी नोक। उड़ने का कारण तो डोर ही है।
इसके अतिरिक्त प्लेखानोव मात्र इस उड़ाने वाली डोर से ही सन्तुष्ट नहीं है। उस भूमि को भी वह स्पष्टतः बता देना चाहता है, जो डोर का नियन्त्रण करती है। अतः प्लेखानोव का दावा है: ‘‘यदि यह सही भी हो कि कला, साहित्य की भंाति, जीवन की प्रतिछाया है, तो भी यह वक्तव्य बड़ा अस्पष्ट है। यह जानने के लिए कि कला किस प्रकार जीवन को प्रतिबिम्बित करती है, जीवन की मशीनरी को समझना पड़ेगा।’’ सभ्य-समाजों में इस मशीनरी का मुख्य यन्त्र वर्ग-संघर्ष है और यदि हम केवल इस मुख्य यन्त्र की परीक्षा करें, वर्ग-संघर्ष का लेखा-जोखा रखें और उसके विभिन्न बहुमुखी पहलुओं का निरीक्षण करें, तो ही हम किसी प्रकार संतोषप्रद रूप में सभ्य-समाज के ‘आध्यात्मिक’ इतिहास की गुत्थी सुलझाने में समर्थ हो सकते है। विचारों का ‘अभियान’ वर्गों के इतिहास और उनके पारस्परिक संघर्षों का प्रतिबिम्ब है।’’
क्या मनोरम द्वन्द्वन्याय है। इसमें बस इतना और जोड़ दीजिए: जिस तरह सेब-से-सेब, नाशपाती-से-नाशपाती… आदि… उसी तरह हर साहित्यकार एक वर्ग और केवल एक वर्ग का ‘हथियार’ होता है। आलोचना का उत्तर-दायित्व समाप्त हो गया। दूध-का-दूध और पानी-का-पानी कर दिया गया।
प्लेखानोव ने आलोचनात्मक दृष्टिकोण के वे दो भ्रामक और प्रसिद्ध विभाजन किये जो आज कम्युनिस्ट-आलोचना का अन्त बनकर रह गए हैं। ‘कला-कला के लिए’ अथवा ‘कला समाज के लिए’ लेकिन प्लेखानोव के पक्ष में इतना कहना पड़ेगा कि इस प्रश्न को एक तथाकथित समाधानहीन विरोधाभास के रूप में रखने के साथ ही उसे यह अनुभव भी हो रहा था कि यह विरोधाभास उतना अबाधित नहीं है, जैसा समझा जा सकता है। इसीलिए उसने एक ओर यह कहा कि ‘कला कला के लिए’ का सिद्धान्त कुछ अवस्थाओं में सामाजिक सड़ांध से कवि को उबारने और इसके विरुद्ध विद्रोह करने में सहायक भी हो सकता है। दूसरी ओर उसने यह भी कहा कि हर विचार जो समाज के लिए शुभ है कला में अभिव्यक्त नहीं हो सकता। लेकिन प्लेखानोव का यह अनुभव क्षीण ही है। बाद की कम्युनिस्ट-आलोचना में .प्रवृत्तिवाद के प्रवेग ने इन कमजोर खपच्चियों को तिनकों की तरह बहा दिया। यह प्रश्न तोते की तरह रटा जाने लगा, विरोधाभास की कल्पना अधिक से अधिक अबाधित होती गई। रेनेसांस की परम्परा की अन्तिम बूंदें भी – जो रफाएल, शेक्सपीयर और गेटे के बीच से प्रवाहित होती आई थी, इस मरुस्थल में आकर सूख गई। हंगरी के विश्वविद्यालय में सौन्दर्यशास्त्र के आचार्य लूकाक्स की कलम से निकल गया। ‘‘पूंजीवादी समाज की कुरूपता और चरित्रहीनता के विरुद्ध विशुद्ध कला का विद्रोह कभी प्रगतिशील हो सकता है, कभी प्रतिक्रियावादी, यह इस पर निर्भर करता है कि वह किसके विरुद्ध और कितनी तीव्रता के साथ व्यक्त किया गया है।’’ इस पर कमिसार जोजेफ रेवाई ने डांटते हुए कहा: ‘‘विशुद्ध कला की यह ‘समझ’ मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र के दृष्टिकोण से प्रयाण है और ‘लेखक के समाज के ऊपर खड़े होने की भ्रामक प्रवंचना’ के विरुद्ध लूकाक्स के अन्य कथनों को व्यवहारतः निरर्थक बना डालती है। नहीं, यह हाथी दांत के मीनारों वाला जीवन-दर्शन’ न कभी प्रगतिशील था और न हो सकता है। आवश्यकता इसको ‘समझने’ या इसके लिए बहाने खोजने की नहीं है, इसके विरुद्ध युद्ध करने की है।’’
इस तथाकथित विरोधाभास के अबाधित बना देने में जो अहितकर दबाव वर्तमान है उसे देखते हुए ही प्लेखानोव ने गोर्की की ‘मां’ की आलोचना की। उसने गोर्की का यह कहकर विरोध किया कि ‘मार्क्सवादी विचारों का प्रचारक’ मात्र बन गया है। उसने गोर्की को सलाह दी, ‘‘मुख्यतः संगत तर्क की भाषा में बात करना कृतिकार के लिए ठीक नहीं है, उस कृतिकार के लिए जो मुख्यतः चित्रों की भाषा में बात करता है।’’ प्लेखानोव का कहना था कि ‘तर्क की भाषा’ का स्थान आलोचना में है जिसे ‘भौतिक विज्ञान की भांति वस्तुपरक’ होना चाहिए। आलोचक का कार्य मात्र यह नहीं है कि उन लेखकों की प्रशंसा करे जो उसकी रुचि की सामाजिक प्रवृतियों की अभिव्यक्ति करें और उन की निन्दा करें जो उसकी रुचि के विरुद्ध हों।
सैद्धान्तिक रूप से लेनिन और प्लेखानोव की साहित्यिक दृष्टि में बहुत अन्तर नहीं है। परन्तु धारा को जिस ओर प्लेखानोव ने मोड़ा था उसका उसी दिशा में बढ़ता हुआ प्रवाह अवश्य दिखलाई पड़ता है। लेनिन के साहित्य-संबधी कुछ थोड़े-से वक्तव्यों और लेखों में हम ‘प्रतिच्छाया’ वाले सिद्धान्त की सीधी अभिव्यक्ति पाते हैं। वस्तुतः प्रवृत्तिवाद के मूर्त स्वरूप का ‘आग्रह लेनिन में है, परन्तु उसके मन में कला के साधारण, ‘सार्वभौमिक’ महत्व का आदर कम नहीं है। कमिसार जोजेफ रेवाई का कहना है: ‘‘लेनिन का ‘पार्टी साहित्य’ वही वस्तु नहीं है जो एंगेल्स का ‘प्रवृत्तिवादी साहित्य’ है। लेनिन का कहना है कि ‘साहित्यिक कार्य पूर्णतः मजदूर-कार्य का अंश बन जाना चाहिए। उसे एक वृहत एवं समवेत सोशल डेमोक्रेटिक मशीन का पुरजा बन जाना चाहिए जिसका परिचालन समस्त मजदूर-वर्ग का जागरूक हरा-वल करे’… यह स्पष्ट है कि पार्टी साहित्य-सम्बन्धी लेनिन के विचार एंगेल्स के दृष्टि बिन्दु से कई कदम आगे हैं।’’
लेकिन कमिसार रेवाई अपने इस विद्वत्तापूर्ण लेख में इसका जिक्र नहीं करते कि उसी लेख में लेनिन यह भी कहता है कि इस मशीन और पुरजे के रूपक को बहुत शाब्दिक अर्थ नहीं दिया जाना चाहिए। वह तुरन्त स्पष्टीकरण करता है: ‘‘इसमें तो कोई सन्देह हो ही नहीं सकता कि इस विषय में अपेक्षाकृत अधिक व्यक्तिगत पहल, व्यक्तिगत रुचि, विचार-क्षेत्र और कल्पना, रूप-विधान और विषय-वस्तु की स्वतंत्रता की गारंटी अत्यन्त ही आवश्यक है।’’ लेनिन के अनुसार सोशलिस्टों का काम मध्यवर्गीय साहित्य के विरुद्ध एक ऐसा साहित्य प्रस्तुत करना है जो ‘श्रमिक वर्ग से स्पष्टतः जुड़ा हुआ’ हो तथा जिसका आधार ‘श्रमिकों के प्रति सहानुभूति’ हो। वह आगे कहता है: ‘‘हमारा यह तात्पर्य बिलकुल ही नहीं है कि किसी प्रकार की एकरूप व्यवस्था, या समस्या का समाधान ऊपरी आदेशों द्वारा लादा जाय।’’
लेकिन यह 1905 की बात है। 1946 में सोवियत रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के इस आज्ञा-पत्र पर विचार कीजिए, और दांतों तले उंगली दबाइये: ‘‘चूंकि जनता की कम्युनिस्ट शिक्षा के माध्यम के रूप में रंगमंच का अत्यधिक महत्व है इसलिए केन्द्रीय समिति कला-समिति तथा सोवियत लेखक-संघ की परिषद को आदेश देती है कि समकालीन सोवियत-जीवन पर नाटक-रचना की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करें।’’ शिकायत की वजह यह थी कि सोवियत लेखकगण, ऐतिहाहिक नाटक बहुत लिखने लग गए थे।
स्पष्ट है कि लेनिन की कल्पना में साहित्य अभी वर्ग से पूरी तरह तादात्म्य स्थापित नहीं कर सका है, यद्यपि दोनों की दूरी बहुत-कुछ कम हो गयी है। लेनिन कला की श्रेष्ठता का कायल था, यद्यपि उसे अपने ‘वर्ग-हित’ से छुट्टी कम मिलती थी। गोर्की एक घटना का जिक्र करता है। लेनिन बीथोवेन का कोई संगीत सुनकर बोला: ‘जो तो करता है इसे प्रतिदिन सुनूं; क्या चमत्कारपूर्ण मानवोपरि संगीत है – सोच-सोचकर गर्व से भर जाता हूं… आदमी क्या-क्या कमाल कर सकता है।’’ फिर आंखें जरा खिच गई, एक उदास मुस्कराहट के साथ उसने आगे कहा: ‘‘लेकिन मैं अक्सर संगीत नहीं सुन सकता। इससे मन पर प्रभाव पड़ता है। जी चाहता है कि भोली, मीठी बातें करूं और उन लोगों की पीठ ठोकूं, जिन्होंने इस नरक में रहते हुए भी इतना सौन्दर्य उपजाया है। और भाई, आजकल किसी की पीठ नहीं ठोंकना चाहिए — खतरा है कि लोग कहीं तुम्हारा हाथ ही न काट खाएं।’’
लेनिन की दृष्टि में अभी साहित्य और कला ने ‘हथियार’ का रूप धारण नहीं किया है। कम्युनिस्ट-पार्टी भी अभी पूरे जोर के साथ मैदान में नहीं आई है। परंतु तात्कालिकता का आग्रह, जो बाद में चलकर कम्युनिस्ट आलोचना का अपरिहार्य अंग हो गया, दिखलाई पड़ता है। स्पष्ट है कि लेनिन के संकेत के पश्चात् इस प्रश्न का अपने पूरे वेग से उठना अनिवार्य था। 1917 की रूसी-क्रान्ति के पश्चात आलोचना के क्षेत्र में इन नये सवालों की बाढ़ दिखलाई पड़ती है। मायकोव्स्की ने जो मजदूर-संस्कृति का जबरदस्त हल्ला बोला, चारों तरफ छाती पीट-पीटकर क्रान्ति का रुख देखने वाली जो भीड़ उठी, उसने मार्क्सवादी आलोचना के सामने कम्युनिस्ट पार्टी को बड़ा भारी प्रश्न-चिन्ह बनाकर खड़ा कर दिया।’’
1925 में जिस व्यक्ति ने इस प्रश्न का उत्तर देने की चेष्टा की, वह ट्राट्स्की था। वह उस समय कान्तिकारी रूस में युद्ध-मंत्री था। रिले के अन्तिम दौड़ने वाले की तरह हांफता हुआ ट्राट्स्की कहता है: ‘‘मार्क्सवादी पद्धति नई कला के विकास का मूल्यांकन करने का अवसर उपस्थित करती है, उसके समस्त स्रोतों को खोजती है, आलोचनात्मक प्रकाश द्वारा पथ को उजागर करके सर्वाधिक प्रगतिशील प्रवृत्तियों को सहायता पहुंचाती है, लेकिन इससे अधिक कुछ भी नहीं करती। कला को अपने माध्यमों द्वारा ही अपनी राह बनानी पड़ेगी। मार्क्सवादी प्रणाली और कलात्मक प्रणाली एक ही वस्तु नहीं है। पार्टी श्रमिकवर्ग का नेतृत्व करती है, इतिहास की विशाल गति का नहीं। कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जिसमें पार्टी स्पष्टतः और आदेशात्मक ढंग से नेतृत्व करती है। कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें वह सहायता करती है और कुछ ऐसे क्षेत्र है जिनमें वह केवल अपना नया विन्यास करती है। कला का क्षेत्र वह नहीं है जिसमें पार्टी को आदेश देने की आवश्यकता हो। कला की रक्षा करना और सहायता करना पार्टी का काम है, परन्तु नेतृत्व केवल अव्यक्त रूप से ही हो सकता है।’’
ट्राट्स्की ने क्रान्तिकारी साहित्य को दो भागों में बांटा। एक वह जो स्पष्टतः क्रान्ति के विषय में, उसके आग्रहपूर्वक समर्थन में हो। दूसरा वह जो क्रान्ति के विषय में न होकर ‘क्रंाति का साहित्य हो’ अर्थात् उस व्यक्ति की साधारण भावनाओं का साहित्य हो जो क्रंान्ति के बीच से निकला है, क्रंान्ति का पुत्र है। दोनों ही संक्रमण कालीन हैं। परन्तु पहला अनिवार्य रूप से ‘मजदूरवर्ग की तानाशाही’ का परिणाम है और उसके साथ समाप्त हो जायगा। दूसरे में ही भविष्य के बीज छिपे हुए हैं। यही आगे चलकर ‘समाजवादी साहित्य’ का आधार बनेगा। यह साहित्य संकुचित अर्थों में उपयोगितावादी नहीं है, यह मानवीय भावनाओं का सहज साहित्य है जो एक विशिष्ट अर्थ में गहरी, सार्थक और सम्पूर्ण हो गई हैं। मगन होकर ट्राट्स्की समाजवादी-साहित्य का सपना देखता है।
‘‘यह नई समाजवादी कला कॉमेडी को जीवित करेगी, क्योंकि भावी मानव हंसना चाहेगा। वह उपन्यास को नया जीवन देगी। वह गीतों को सम्पूर्ण अधिकार प्रदान करेगी, क्योंकि नया आदमी पुराने लोगों से बेहतर और अधिक शक्तिशाली ढंग से प्यार करेगा, वह जीवन और मृत्यु के प्रश्नों पर विचार करेगा। नई कला उन समस्त पुराने स्वरूपों को पुनर्जीवित करेगी, जो सृजनात्मक आत्मा के विकास में प्रतिफलित हुए उन स्वरूपों का ह्रास और पतन आत्यन्तिक नहीं है, अर्थात् यह नहीं समझना चाहिए कि वे स्वरूप नये युग की आत्मा से बिलकुल ही मेल नहीं खा सकते। नये युग के कवि के लिए कुल इतना आवश्यक है कि वह मानव-जाति के विचारों को फिर से विचारे, उसकी अनुभूतियों का फिर से अनुभव करे!’’
स्पष्ट प्रवृत्तिवाद और साधारण मानवीय भावना के बीच कम्युनिस्ट-आलोचना का अन्तर्विरोध अपने चरम रूप में ट्राट्स्की के सामने आया। ट्राट्स्की थोड़ी देर हिचकिचा, पर अन्त में उसने अपना वोट साधारण भावना के डिब्बे में छोड़ दिया। लेकिन वह उस डिब्बे में वोट डालने वाला अन्तिम व्यक्ति था।
समाजवादी यथार्थवाद के आगमन के साथ मार्क्सवादी आलोचना का तीसरा अर्थात् कम्युनिस्ट-युग प्रारम्भ होता है जिसके फिकरों, ध्वनियों, शब्दावली और गद्य से हम पूरी तरह परिचित हैं। लेनिन, ट्राट्स्की, लूनांचार्स्की और गोर्की के बाद की कम्युनिस्ट-आलोचना का इतिहास साहित्य में कम्युनिस्ट-पार्टी के अभ्युदय और सम्पूर्ण प्रभुत्व की एकस्वर कहानी है। साहित्य अब पूरे तौर से हथियार हो गया है और साहित्यकार समाज का प्रतिबिम्ब न होकर अब ‘मानव आत्मा का शिल्पी’ हो गया है। यह मानव आत्मा के ऊपर पच्चीकारी क्योंकर होती है? ‘समाजवादी’ साहित्य के बीच से खड़े होकर साथी ज्दानोव ट्राट्स्की की कब्र पर फातिहा पढ़ते हैं: ‘सोवियत लेखकों की बड़ी भारी पति सोवियत शक्ति और पार्टी से घुल-मिलकर एकाकार हो गई है और उसे पार्टी-नेतृत्व, केन्द्रीय समिति की दैनन्दिन देख-रेख और सहायता तथा साथी स्तालिन का अथक सहयोग प्राप्त हो गया है।’… कलात्मक बिम्ब की सत्यता और यथार्थता सैद्धान्तिक परिशोधन, श्रमिक जनता को समाजवाद की मनोवृत्ति में दीक्षित करने, के काम से जुड़ जानी चाहिए। इसी पद्धति को हम उपन्यास एवं साहित्यिक आलोचना में समाजवादी यथार्थ कहते हैं।’’… ‘‘इसी कारण ऐसा है कि अपने को दीक्षित करने और अपने सैद्धान्तिक हथियारों को समाजवादी मनोवृत्ति के अनुसार समुन्नत करने का अथक परिश्रम वे अपरिहार्य शर्तें हैं जिनके बिना सोवियत लेखकगण अपने पाठकों के दिमाग को बदल नही सकते और इस प्रकार मानव-आत्मा के शिल्पी नहीं हो सकते।’’
इस सैद्धांतिक परिशोधन का निचोड़ कमिसार रेवाई के शब्दों में यह है: ‘जीवन को प्रतिबिम्बित करने और श्रेष्ठ साहित्य के सम्बन्ध में कम्युनिस्ट- विश्व-दर्शन की स्वीकृति, जिसके अनुसार लेखक का काम यह है कि जोश के साथ उठ खड़ा हो और हंगरी के जीवन में कम्युनिस्ट-पार्टी के नेतृत्व में जो महान परिवर्तन हो रहा है उसके लिए पुकारकर कहे, वाह! वाह! बहुत ठीक।’’
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रगतिवादियों के विषय में कहते हैं कि इनके सिद्धान्त और उद्देश्य बहुत सुन्दर हैं, लेकिन ये लोग कम्युनिस्ट-पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं, यही जरा खटकता है। अगर ये लोग दल द्वारा परिचालित होना छोड़ दें तो सब ठीक हो जाय। निस्सन्देह अपने इस आग्रह में द्विवेदी जी व्यायापक लोक-मंगल की भावना और उदार मानवतावाद से प्रेरित हैं, परन्तु हम विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहते हैं कि वे असम्भव की मांग कर रहे हैं। कम्युनिस्ट-पार्टी ही तो ‘प्रगतिवाद’ का सम्पूर्ण सिद्धान्त और उद्देश्य है। रूस की पार्टी की केन्द्रीय समिति का प्रस्ताव है: ‘‘सोवियत साहित्य की, जो संसार का सबसे प्रगतिशील साहित्य है, प्राण-शक्ति इसी में है कि उसके लिए जनता और राज्य के हितों के अतिरिक्त न कोई उद्देश्य है और न हो सकता है।’’ ‘राज्य’ का अर्थ तो स्पष्ट है। इस ‘जनता’ का अर्थ समझने में कोई भ्रम न हो जाय, इसलिए एक बार फिर कमिसार रेवाई का स्पष्टीकरण प्रस्तुत है: ‘‘पार्टी के नेतृत्व के द्वारा ही यह सम्भव है कि जनता की मांगे, आवश्यकताएं और आलोचनाएं लेखकों के पास पहंुचायी जायें; श्रमिक जनता के जीवन के अनुसार साहित्य को सज्जित कर दिया जाय जिससे वह शताब्दियों के प्रवाह में अलग हो गया था और साहित्य को समाजवादी निर्माण ओंर सामाजिक दीक्षा का सेवक बना दिया जाये।’’
एक ओर धीरे-धीरे साहित्य को प्रतिबिम्ब, फिर वर्ग का प्रतिबिम्ब, फिर मजदूर का प्रतिबिम्ब बनाया गया; दूसरी ओर जनता को समेटकर मजदूरवर्ग, फिर मजदूरवर्ग को कम्युनिस्ट-पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी को भी पार्टी नेतृत्व में केन्द्रित कर दिया गया। इस अप्रत्यक्ष परन्तु निश्चित परिणति को इसलिए गति और भी मिली कि इससे आलोचना का कार्य अत्यधिक सरल और लचीला हो गया जो एक ‘हथियार’ के लिए आवश्यक है।
सम्भवतः इसी कारण समकालीन कम्युनिस्ट आलोचकगण प्रगतिशील साहित्य के सार्थक अन्वेषण के लिए साहित्य के विशाल इतिहास में डुबकी लगाने की आवश्यकता नहीं समझते। एक थका देने वाली एकरसता के साथ कम्युनिस्ट आलोचक लेखक के सम्मुख केवल इतना प्रश्न रखना ही पर्याप्त समझते हैं: कला कला के लिए है अथवा समाज के लिए। यह विरोधाभास कितना भ्रामक है, इसका संकेत हम पहले कर चुके हैं। लेखक स्पष्टतः यह मानता है कि कला समाज के लिए है। इसके पश्चात आलोचना का पूरा कर्तव्य इतना ही सिद्ध करना रह जाता है कि समाज का सच्चा हित, कम्युनिस्ट-पार्टी की विजय, उसके राज्य की स्थापना और उसके आदशों का पालन करने में ही है। साहित्यालोचन से अधिक इन तर्कों का क्षेत्र राजनीति से भी अधिक अंध-श्रद्धा और अंध-विश्वास के बीच है। अमरीका के कम्युनिस्ट-लेखक हॉवर्ड फास्ट एक धार्मिक विश्वास के रूप में दुहराते हैं:
‘‘मार्क्सवादियों का विश्वास है कि समस्त लिखित इतिहास सभ्यता के प्रभात से आज तक वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। यह वर्ग-संघर्ष दास-सभ्यता, सामन्तवाद और पूंजीवाद की मंजिलों से गुजर चुका है। अब पूंजीवाद के विरुद्ध श्रमिकों का संघर्ष समाजवाद की स्थापना करेगा… शोषण का अन्त हो जायेगा… मार्क्सवादियों का विश्वास है कि इस अन्तिम परिवर्तन, एंगेल्स के शब्दों में मानवपूर्व इतिहास की यह समाप्ति संसार के प्रत्येक देश में कम्युनिस्ट-पार्टी, मजदूरों की पार्टी, के नेतृत्व में होगी।’’ टीटो के अनुभव के पश्चात् इसमें इतना ही जोड़ना और बाकी है, ‘‘और कम्युनिस्ट-पार्टी भी वह, जिसे सोवियत यूनियन मान्यता प्रदान करे।’’
पार्टी की कार्य-प्रणाली के अनुसार आलोचक पार्टी के सांस्कृतिक मोर्चे का सक्रिय कार्यकर्ता भी होता है। उसका कार्य है बुद्धिजीवियों में पार्टी का प्रचार। अतः कौशल की वेदी पर उसे साहित्यक दृष्टि का बलिदान भी करना पड़ता है। लेखक का साहित्य कुछ भी हो, किन्तु यदि वह सोवियत यूनियन का बौद्धिक अनुशासन स्वीकार करता है तो… उसे ‘मित्र’ लेखकों में शामिल कर लिया जायगा। यदि यह बात उसके गले नहीं उतरी तो उसे ‘शत्रु’ लेखक मान लिया जायगा; और जो कुछ ढुम-मुल दिखलायी पड़ा तो उसे ‘सहयात्री या सम्भावित सहयात्री’ की कोटि में रख दिया जायगा। अब इसके बाद आलोचक का काम इतना ही है कि समझाकर, फुसलाकर, लालच देकर, धमकाकर और गाली देकर इन ढुल-मुल सहयात्रियों को गोल में शामिल करने योग्य बनाकर ‘पक्का’ कर दिया जाय। अगर सहयात्री-लेखक ‘मार्क्सवाद’ या ‘पार्टी-नेतृत्व’ के नाम से घबराता है तो अमरीकी लेखक अल्बर्ट माल्ट्ज के शब्दों में लेखक के मौलिक अधिकारों की घोषणा कीजिए: ‘‘मैं गलत रास्ते पर कायम रहने का अधिकार चाहता हूं। मैं स्पष्टतः कहता हूं कि मैंने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनके कारण मैं कलापक्ष के विचार से और ऐसे लेख जिनके लिए मैं सैद्धान्तिक रूप से लज्जित हूं। परन्तु उनके ऊपर यह निर्णय मेरा है और मैं यह बरदाश्त करने के लिए तैयार नहीं हूं कि उन्हें छापने या न छापने का अधिकार किसी ऐसे दलाल के हाथ में सौंप दिया जाय जो किसी केन्द्रीय समिति- का अध्यक्ष बन बैठा हो। मैं यह समझने के लिए उससे अपने को बिलकुल बराबर मानता हूं कि मुझे किस उम्मीदवार… को वोट देना चाहिए, किस संगठन का सदस्य बनना चाहिए और क्या लिखना चाहिए!’’
आप भ्रम से श्री अल्बर्ट माल्ट्ज को एक ‘टुटपुजिया निम्न-मध्यमवर्गीय बुद्धिविलासी’ न समझ बैठंे। श्री अल्बर्ट माल्ट्ज अमरीका के ‘कम्युनिस्ट लेखक’ हैं जिनकी कहानियां सोवियत यूनियन के कहानी-संग्रह में छप चुकी हैं। साहित्य तो ‘हथियार’ बना ही, आलोचना तो हथियार बनी ही, अब मार्क्सवाद भी एक ‘हथियार’ बन गया है जिसे अवसर देखकर निकालिये; यदि अवसर ठीक न हो तो अलग रख दीजिए और दूसरे हथियारों से काम लीजिए। उद्देश्य एकमात्र है, ‘सहयात्रियों’ की तलाश और उनकी मालिश और पालिश!
इस आपा-धापी में ‘सहयात्रियों’ की दशा सबसे दयनीय है वे एक विचित्र असमंजस के शिकार हैं। अपनी पूरी ईमानदारी के साथ वे अपने कुछ बचे हुए विश्वासों को, जो मुख्यतः साहित्यिक विश्वास हैं, पकड़े रहते हैं और मन में कहते हैं: ‘‘मैं कम्युनिस्टों से भिन्न हूं। मुझे अपने विश्वास प्यारे हैं, लेकिन कम्युनिस्ट-पार्टी में उदार लोगों की कमी नहीं है। ईश्वर करे, इनकी शक्ति बढ़े। ये लोग मेरे प्यारे विश्वासों को मुझसे नहीं छीनेंगे। मैं इसी तरह बना रहूंगा।’’ लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। सत्ता प्राप्त करने के बाद कमिसार रेवाई की घोषणा है: ‘‘जो लोग जमाने के साथ कदम मिलाकर नहीं चल सकते, उन्हें अपने को ही दोष देना चाहिए। हम पर यह आरोप कोई नहीं लगा सकता कि इन समस्त लम्बे वर्षों में हमने उन लोगों के लिए अपनी परिधि को विस्तृत नहीं किया जिन्हें हमने समझाने का प्रयास किया, अक्सर फुसलाया भी ताकि वे अपने अतीत को भूल जाये और ‘जनता के जनतन्त्र’ में शामिल हो जायें। यह हमारा दोष नहीं है कि कई लोगों ने ऐसा नहीं किया… सहयोगी या सहयात्री लेखकों को खुब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सहयोगी या सहयात्री होना केवल एक संक्रमणकालीन स्थिति है, एक ऐसा स्थान है जहां वे कायम नहीं रह सकते।’’
कुछ लेखक ऐसे भी हैं जिन्हें इस नये शब्द ‘जनता के जनतंत्र’ के सम्बन्ध में भ्रम हो जाता है कि यह कोई नई वस्तु है। लूकाक्स को भी यही भ्रम हो गया था। इसलिए कमिसार रेवाई स्पष्ट करता है: ‘‘हमारे ‘जनता के जनतंत्र’ के श्रमिक वर्ग की तानाशाही में परिणत हो जाने पर आवश्यक हो गया है कि सैद्धंातिक दृष्टि में सुधार कर लिए जायें और कुछ पुराने और अस्पष्ट विचारों का संशोधन अथवा त्याग कर दिया जाय; उदाहरणतः वे विचार अथवा वृत्तियां जिनकी सम्मति में अपने प्रथम उल्लास में भी जनता का जनतंत्र पूंजीवाद और समाजवाद के बीच कोई विशेष तीसरा रास्ता है।’’ और स्तालिन के अनुसार श्रमिकवर्ग की तानाशाही की परिभाषा यह है: ‘‘श्रमिकवर्ग की तानाशाही तभी सम्पूर्ण होती है जब वह केवल एक पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, द्वारा परिचालित हो, जो नेतृत्व में किसी दूसरी पार्टी के साथ बंटवारा नहीं करती है और न उसे करना ही चाहिए।’’
तात्कालिकता के इस विशाल अभियान के बीच कुछेक ऐसे भी सिरफिरे आलोचक होते हैं जो कभी-कभी भटककर पुराने साहित्य और इतिहास की वाटिका में चले जाते हैं। यदि उसका प्रभाव उन पर पड़ गया तो फौरन ‘कुत्सित समाजशास्त्रीयता’ की छाप उन पर लग जाती है। इस ‘कुत्सित समाजशास्त्रीयता’ का क्या अर्थ होता है, इसे समझने के लिए एंजोल फ्लोरंेस द्वारा सम्पादित ‘साहित्य और मार्क्सवाद: एक सोवियत साहित्यिक वाद-विवाद’ बड़ी रोचक पुस्तक है। इसमें तीन-चार प्रकार के आलोचक हैं। सभी एक-दूसरे को कुत्सित समाजशास्त्री कहते हैं। प्रश्न है: ‘पुुराने महान साहित्यकारों की महानता का क्या रहस्य है?’ साहित्य को ‘वर्ग-स्वार्थ का प्रतिबिम्ब’ से लेकर ‘पीड़ित मानवता की युग-युग की पुकार’ तक कहा गया है। इसमें सबसे उदार ‘पीड़ित मानवता की पुकार’वादी श्री माइखेल लीफशित्स हैं और इस पुस्तक में छपे उनके चार लेखों के पश्चात उनका निष्कर्ष यह है: ‘‘श्रमिकवर्ग की तानाशाही की तैयारी जनता के लम्बे और हठी संघर्ष द्वारा हुई है, उस संघर्ष द्वारा जिसका प्रारम्भ समाज में असमानता के द्वारा हुआ और जो समस्त इतिहास के वर्ग-संघर्ष की प्रमुख स्थापना है।’’ साहित्य युग-युग से इसी तैयारी का प्रतिबिम्ब है। अब सारी गुत्थी सुलझ गई। अफसोस इसी बात का है कि बेचारे होमर, शेक्सपीयर, वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास को अपने इस सौभाग्य की जानकारी नहीं हो सकी कि इतने मनोयोग से वे इस बीसवीं शताब्दी में कम्युनिस्ट पार्टी के एकछत्र राज्य की तैयारी कर रहे थे।
समकालीन कम्युनिस्ट-आलोचना की एक पकड़ इसी बात में कि वह साहस के साथ मानवता के महान अतीत साहित्य की ओर नहीं ताक सकती है छोटे-छोटे लेख ही उसका अन्त हैं। एक भी कम्युनिस्ट-आलोचक ऐसा नहीं जो साहित्य का सम्पूर्ण इतिहास लिखने का साहस कर सके और अन्त में कॉडवेल और लूकाक्स की भांति ‘असंगतियों का भण्डार’, ‘विरोधाभासों का कोष’ अथवा ‘कुत्सित समाजशास्त्री’ बनकर न निकले। इतनी एकांगी कसौटी को लेकर सारे साहित्य को कसने के लिए दौड़ पड़ने वाले सचमुच प्रतिभाशाली समीक्षक कॉडवेल और लूकाक्स के आंसू पोंछने के लिए हम केवल इतना कह सकते हैं, क्या करोगे भाई, दोष तुम्हारा नहीं है। दोष उस साहित्य का ही है जिससे तुम अनायास ही उलझ पड़े।’’

3 Replies to “मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति – विजयदेव नारायण साही”

  1. apka pryas sarahniya raha hai.ummid hai ki app is tarah ke durlabh lekh uplabdh karate rahenge. ashih kumar apurna

    FROM – BANARAS HINDU UNIVERSITY, HINDI DEPARTMENT
    MOB.8874120736

    1. डिबेट के लिए कोई अलग कॉलम नहीं, बल्कि पूरी वेबसाईट ही है. अगर आपकी टिपण्णी संक्षिप्त है तो आप यहीं कमेंट बॉक्स में लिख सकते हैं और अगर आपके पास विस्तृत लेख हो तो उसे हमें मेल कर सकते हैं. संपादकों की नजर से गुजरने के बाद वो वेबसाईट पर पब्लिश हो सकता है. शुक्रिया!

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