बुद्धिजीवियों का निर्माण – अंतोनियो ग्राम्शी

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क्या बुद्धिजीवी अपने आप में कोई स्वायत्त और स्वतंत्र सामाजिक समूह होते हंै या हर सामाजिक समूह के अपने विशिष्ट बुद्धिजीवी होते हैं? आज तक विभिन्न श्रेणियों के बुद्धिजीवियों ने अपने निर्माण की ऐतिहासिक प्रक्रिया में जो विविध रूप अख्तियार किये हैं उसके कारण यह समस्या काफी जटिल है।
इनमें से सबसे प्रमुख दो रूप हैं:
1. आर्थिक उत्पादन की दुनिया के हर मौलिक क्षेत्र में अपनी विशिष्ट भूमिका के जरिये अस्तित्व में आने वाला हर सामाजिक समूह खुद अपने साथ आवयविक रूप से बुद्धिजीवियों के एक या अधिक संस्तरों का निर्माण करता है जो कि उसे समरूपता प्रदान करते हैं तथा उसे न सिर्फ उसकी आर्थिक बल्कि सामाजिक तथा राजनैतिक भूमिका के प्रति सचेत करते हैं।
पूंजीपति अपने साथ औद्योगिक टेक्नीशियन, राजनैतिक अर्थशास्त्रियों तथा नई संस्कृति और कानून व्यवस्था के प्रबंधकों का निर्माण करता है। यह बात गौरतलब है कि कुछ निदेशात्मक तथा तकनीकी (बौद्धिक) क्षमताओं से परिभाषित उद्यमी खुद भी एक उच्चतर सामाजिक स्तर का प्रतिनिधित्व करता है। उसके पास न केवल अपने क्षेत्र की गतिविधियों, बल्कि अन्य क्षेत्रों की भी कुछ तकनीकी क्षमताएं होनी ही चाहिए, कम से कम उनकी जो कि आर्थिक उत्पादन के समीपवर्ती हों। उसे निवेशकों और ग्राहकों के ‘विश्वास’ तथा जनसमूहों का व्यवस्थापक होना चाहिए।
अगर सभी उद्यमियों में नहीं तो कम से कम उनके एलीट तबके में तो सामान्य रूप से समाज प्रबंधन की क्षमता होनी ही चाहिए। इसमें अपने वर्ग के विस्तार हेतु अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिये सेवाओं के जटिल तंत्र से लेकर राज्यतंत्र तक के प्रबंधन की क्षमता शामिल है या कम से कम उनमें इतनी क्षमता तो होनी ही चाहिए कि वे ऐसे कार्यकारी नुमाइंदों को चुन सकें जिन्हें व्यवसाय के इतर अन्य संबंधों के प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी जा सकें। यह देखा जा सकता है कि हरेक नया वर्ग अपने साथ अपने ‘‘आवयविक’’ बुद्धिजीवियों का भी निर्माण करता है तथा अपने विकास की प्रक्रिया में उसे विस्तार देता है। आवयविक बुद्धिजीवी नवीन सामाजिक प्रकारों की प्राथमिक गतिविधियों (जिन्हें नए वर्ग ने महत्ता प्रदान की) के आंशिक पहलुओं के ‘‘विशेषज्ञ’’ होते हैं।
यहां तक कि सामंतों के पास भी एक खास किस्म की तकनीकी (सैन्य) क्षमता होती थी और इस तकनीकी सैन्य क्षमता पर कुलीन वर्ग के एकाधिकार के खात्मे के साथ ही सामंतवाद के संकट की शुरुआत हुई। लेकिन सामंती दुनिया और उसके ठीक पहले की क्लैसिकल सभ्यता में बुद्धिजीवियों का निर्माण एक ऐसा सवाल है जिसे पृथक रूप से विश्लेषित किया जाना चाहिए। जिन साधनों और तरीकों के जरिये इसका निर्माण और विकास हुआ उसका ठोस अध्ययन आवश्यक है। अतः यह चिन्हित करने योग्य है कि हालांकि किसान जनता उत्पादन की दुनिया में एक बुनियादी भूमिका अदा करती है, लेकिन वह न तो अपने ‘‘आवयविक’’ बुद्धिजीवी विकसित करती है, न ही ‘‘पारम्परिक’’ बुद्धिजीवियों के किसी तबके को ‘‘आत्मसात’’ कर पाती है। हालांकि अन्य सामाजिक समूह किसानों से ही अपने बुद्धिजीवी प्राप्त करते हैं तथा पारम्परिक बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से की जड़ें भी किसान समुदाय में होती हैं। हर ‘बुनियादी’ सामाजिक समूह जो कि इतिहास में अपने से ठीक पहले की आर्थिक संरचना की उपज और इस संरचना के विकास की एक अभिव्यक्ति होता है बुद्धिजीवियों की श्रेणियों को पहले से मौजूद पाता है (कम से कम अब तक के इतिहास में यही दिखता है), जो कि सामाजिक और राजनैतिक रूपों में सबसे जटिल और रेडिकल परिवर्तनों में भी उनकी एक अबाधित निरंतरता का आभास देता है।gramsci
बुद्धिजीवियों की इस श्रेणी का सबसे ठेठ उदाहरण पादरियों के रूप में देखने को मिलता है जिन्होंने काफी लम्बे समय तक (इतिहास के पूरे एक दौर में जो कि आंशिक रूप से इसी एकाधिकार द्वारा परिभाषित होता है) बहुत सी महत्वपूर्ण सेवाओं: धार्मिक विचारधारा, उस दौर का दर्शन और विज्ञान, साथ-साथ स्कूल, शिक्षा, नैतिकता, न्याय, दान, अच्छे कार्य इत्यादि पर एकाधिकार बनाए रखा। पादरियों की यह श्रेणी बुद्धिजीवियों की ऐसी श्रेणी के तौर पर समझी जा सकती है जो भूपति कुलीन वर्ग के साथ आवयविक रूप से संबद्ध थी। इस श्रेणी के न्यायिक अधिकार कुलीन वर्ग के समान थे, जिसके साथ यह भूमि के सामंती स्वामित्व तथा सम्पत्ति से जुड़े राजकीय विशेषाधिकारों का उपभोग करता था। पादरी समूह द्वारा अधिरचनात्मक क्षेत्र से संबंधित एकाधिकार संघर्ष और बाधाओं के परे नहीं था। इसीलिए राजा की बढ़ती हुई शक्ति (जो बाद में निरंकुशता तक पहंुची) ने बुद्धिजीवियों की अन्य श्रेणियों (जिनके गहन और ठोस अध्ययन की जरूरत है) को प्रोत्साहन और विस्तार दिया। इस प्रकार हम कुलीन राजसी बौद्धिकों के एक नए तबके का निर्माण होते देखते है। प्रशासकों, विद्वानों, वैज्ञानिकों, सिद्धांतकारों और गैर-पुरोहित दार्शनिकों से निर्मित इस तबके के अपने खास विशेषाधिकार होते थे।
पारम्परिक बुद्धिजीवियों के ये संवर्ग अपनी एक ‘विशिष्ट सामुहिकता की धारणा’ के जरिये अपनी निर्बाध ऐतिहासिक निरंतरता तथा अपनी विशिष्ट योग्यताओं को अनुभूत करते हंै इस प्रकार वे अपने आपको प्रभुत्वशाली सामाजिक समूहों से स्वायत्त तथा स्वतंत्र रूप में प्रस्तुत करते हैं। राजनैतिक तथा विचारधारात्मक क्षेत्रों में उनकी इस आत्मछवि की परिणतियां व्यापक होती हैं। सम्पूर्ण भाववादी दर्शन का संबंध बड़ी आसानी से बुद्धिजीवियों के सामाजिक ताने-बाने द्वारा अख्तियार इस पोजीशन से जोड़ा जा सकता है और उस सामाजिक यूटोपिया की अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसके जरिये बुद्धिजीवी खुद को एक ऐसे स्वायत्त और स्वतंत्र समुदाय के रूप में कल्पित करते हैं, जिसका अपना विशिष्ट चरित्र है।
इस पर ध्यान देना चाहिए कि अगर पोप तथा चर्च का उच्च पादरी समूह सेनेटर बेन्नी तथा एग्नेली की बनिस्बत खुद को ईसा तथा उनके शिष्यों के अधिक जुड़ा समझते हैं तो यही बात जेन्टील तथा क्रोंचे के बारे में लागू नहीं होती। उदाहरण के तौर पर खासकर क्रोंचे खुद को अरस्तू और प्लेटो से ज्यादा जुड़ा महसूस करता है, लेकिन दूसरी ओर वह सेनेटर एग्नेली और बेन्नी से अपने जुड़ाव को भी नहीं छिपाता और ठीक इसी बिन्दु पर का्रेंचे के दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण विशिष्टता लक्षित की जा सकती है।
‘‘बुद्धिजीवी’’ शब्द की स्वीकृति की ‘‘व्यापकतम’’ सीमाएं क्या हैं? क्या बुद्धिजीवियों की विविध और पृथक गतिविधियों को परिभाषित करने वाला ऐसा कोई एक स्थिर प्रतिमान तलाशा जा सकता है, जो उन्हें बुनियादी तौर पर अन्य सामाजिक समूहों की गतिविधियों से अलग भी कर सके। सामाजिक संबंधों के उस सामान्य ताने-बाने जिसमें बुद्धिजीवियों के क्रियाकलाप (अतः उन्हें साकार करने वाले बुद्धिजीवी समूह) अवस्थित होते हैं, की बजाय स्वयं बुद्धिजीवियों की विशिष्ट गतिविधियों में इस तरह के किसी प्रतिमान को अंतर्निहित मानना मेरे खयाल से सबसे आम पद्धतिगत चूक है। उदाहरण के लिये कोई कामगार या सर्वहारा असल में अपने शारीरिक या मशीनी कार्य से नहीं बल्कि, विशिष्ट परिस्थितियों एवं सामाजिक संबंधों में इस कार्य को सम्पन्न करने से परिभाषित होता है। (इस मान्यता से इतर कि विशुद्ध शारीरिक श्रम जैसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं होता यहां तक कि टेलर द्वारा प्रयुक्त ‘‘प्रशिक्षित गुरिल्ला’’ शब्दावली भी कुछ निश्चित सीमाओं को संकेतित करने वाला रूपक ही है: कोई भी शारीरिक कार्य यहां तक कि सबसे तुच्छ और यांत्रिक समझे जाने वाले कार्यों में भी एक न्यूनतम तकनीकी योग्यता यानी एक न्यूनतम सृजनात्मक बौद्धिक गतिविधि निहित होती है।) हम देख चुके हैं कि पूंजीपति अपने क्रियाकलाप के कारण एक हद तक बौद्धिक ढंग की कुछ निश्चित योग्यताए रखता ही है यद्यपि समाज में उसका स्थान इसकी बजाय उन सामान्य सामाजिक संबंधों द्वारा निर्धारित होता है जो उद्योग में उसकी हैसियत निर्धारित करते हैं।
इसलिए कहा जा सकता है कि सभी मनुष्य बुद्धिजीवी होते हैं, हालांकि सभी समाज में बुद्धिजीवी की भूमिका नहीं निभाते।
जब हम बुद्धिजीवियों और गैर-बुद्धिजीवियों के बीच फर्क करते हैं तो असल में हम बुद्धिजीवियों की पेशेवर श्रेणी की प्राथमिक सामाजिक भूमिका को चिन्हित कर रहे होेते हैं, यानी हमारा ध्यान इस बात पर होता है कि उनकी विशेष पेशेवर गतिविधि की दिशा किस ओर है, बौद्धिक व्याख्या की ओर या मांसपेशीय गतिविधियों की ओर। अर्थात हम बुद्धिजीवियों के बारे में तो बात कर सकते हैं लेकिन गैर-बुद्धिजीवियों के बारे में नहीं क्योंकि गैर-बुद्धिजीवियों जैसी कोई चीज होती नहीं। चूंकि बौद्धिक गतिविधियों तथा मांसपेशीय गतिविधियों का संबंध सदा एक सा नहीं रहता इसलिये विशिष्ट बौद्धिक गतिविधियों में मात्रात्मक भिन्नताएं होती हैं। बौद्धिक प्रयासों के सभी रूपों को बहिष्कृत करके कोई मानवीय गतिविधि संभव नहीं है। रचयिता मनुष्य को बौद्धिक मनुष्य से अलग नहीं किया जा सकता। हर मनुष्य अपनी पेशागत गतिविधियों के बाहर कुछ बौद्धिक कार्य करता है, यानी चाहे वह एक ‘दार्शनिक’, एक कलाकार, एक सहृदय हो वह विश्व की किसी विशिष्ट संकल्पना में हिस्सेदारी करता है, नैतिक आचरण की एक सचेत दृष्टि रखता है और इस तरह वह दुनिया की एक संकल्पना को बनाए रखने या नई विचार प्रणालियों को अस्तित्व में लाकर उसे रूपांतरित करने में योगदान देता है।
अतः बुद्धिजीवियों के एक नए संस्तर के निर्माण की समस्या विकास के किसी खास बिन्दु पर हर व्यक्ति में अस्तित्ववान बौद्धिक गतिविधियों के आलोचनात्मक विस्तार से जुड़ी हुई है। पेशीय गतिविधियों के साथ बौद्धिक गतिविधियों को एक नए संतुलन की दिशा में रूपांतरित करते हुए तथा यह सुनिश्चित करते हुए कि सामान्य गतिविधि के तौर पर लगातार भौतिक तथा सामाजिक दुनिया को बदल रही पेशीय गतिविधियां स्वयं में विश्व की एक नई संकल्पना का आधार बन जाएं।
(अतः बुद्धिजीवियों के एक नए संस्तर के निर्माण की समस्या विकास के किसी खास बिन्दु पर हर व्यक्ति में अस्तित्ववान बौद्धिक गतिविधियों के साथ पेशीय गतिविधियों को एक नए संतुलन की दिशा में रूपांतरित करते हुए तथा यह सुनिश्चित करते हुए कि सामान्य गतिविधि के तौर पर लगातार भौतिक तथा सामाजिक दुनिया को बदल रही पेशीय गतिविधियां स्वयं विश्व की एक नई संकल्पना का आधार बन जाए आलोचनात्मक विस्तार से जुड़ी हुई है।) परम्परागत तथा पतनशील बुद्धिजीवी विद्वान, दार्शनिक तथा कलाकारों की ही निर्मिति होते हैं, इसीलिये विद्वान, दार्शनिक और कलाकार होने का दावा करने वाले पत्रकार भी अपने को ‘‘सच्चा’’ बुद्धिजीवी मानते हैं। आधुनिक विश्व में औद्योगिक श्रम (अपने कच्चे तथा अपरिष्कृत रूप में भी) सेे घनिष्ठ तौर पर संबद्ध तकनीकी शिक्षा ही नए तरह के बुद्धिजीवियों के निर्माण की बुनियाद बनेगी।
इस आधार पर व्तकपदम छनवअव साप्ताहिक ने नए तरह की बौद्धिकता के कुछ रूपों को विकसित करने तथा इसकी अवधारणाओं को निर्धारित करने का प्रयास किया जो कि इसकी सफलता के मुख्य कारणों में से था क्योंकि इस तरह की अवधारणा जीवन के वास्तविक रूपों के विकास की महात्वाकांक्षाओं के अनुरूप थी। नए बुद्धिजीवी के निर्माण की पद्धति अब वाकपटुता – जो अनुभूति और आवेग का वाह्य कारक है – में नहीं, बल्कि निर्माता, संगठनकर्ता, ‘‘प्रोत्साहक’’ के रूप में व्यावहारिक जीवन में सक्रिय हस्तक्षेप में निहित होती है न कि इसके मात्र वक्ता के रूप में। हमें कार्यरूपी तकनीक से विज्ञानरूपी तकनीक और इतिहास की मानववादी संकल्पना की ओर बढ़ना होगा जिसके बिना विशेषज्ञ तो हुआ जा सकता है परन्तु निर्देशक (विशेषज्ञ और राजनैतिक) नहीं।
बौद्धिक भूमिकाओं के निर्वहन के लिये ऐतिहासिक रूप से विशिष्ट श्रेणियां बनी हुई हैं। इनकी निर्मिति सभी सामाजिक समूहों से संबद्ध होती है परन्तु विशेष तौर पर इसकी सम्बद्धता ज्यादा महत्वपूर्ण समूह से होती है। प्रभुत्वशाली समूह की संबद्धता में ये सबसे व्यापक तथा जटिल विस्तार पाते हैं। प्रभुत्व की ओर बढ़ रहे किसी सामाजिक समूह का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण उस संघर्ष में दिखता है जो वह पारम्परिक बुद्धिजीवियों को ‘विचारधारात्मक तौर पर’ अपने साथ शामिल करने के लिये करता है, शामिल और विजित करने की यह प्रक्रिया और तेज तथा प्रभावोत्पादक बन पड़ती है यदि वह समूह साथ ही साथ अपने आवयविक बुद्धिजीवियों के निर्माण में भी सफलता प्राप्त कर ले।
मध्ययुगीन दुनिया से विकसित हुए समाजों में व्यापक अर्थो में शैक्षिक संगठन तथा गतिविधियों का असाधारण विकास आधुनिक दुनिया में बौद्धिक प्रकार्य तथा श्रेणियों द्वारा अख्तियार किये गए महत्व का सूचक है। प्रत्येक व्यक्ति विशेष की ‘‘बौद्धिकता’’ को व्यापक और गहन बनाने की कोशिश के साथ-साथ एक और प्रयास विभिन्न विशेषज्ञताओं को बहुगुणित तथा विशेषीकृत बनाने का भी हुआ है। इसे शैक्षणिक संस्थानों के प्रत्येक स्तर पर देखा जा सकता है, जिसमें विज्ञान तथा तकनीक के सभी क्षेत्रों में ‘‘उच्च संस्कृति’’ को प्रोत्साहित करने वाली संस्थाएं तक भी शामिल हैं।
स्कूल वह साधन है जिसके जरिये विभिन्न स्तरों के बुद्धिजीवियों के विभिन्न स्तर विकसित किए जाते हैं। किसी भी राज्य में विशेषज्ञ संस्थानों की संख्या तथा उनके स्तरीकरण के द्वारा बौद्धिक प्रकार्यों की जटिलता वस्तुनिष्ठ ढंग से मापी जा सकती हैः किसी राज्य में शिक्षा जितने व्यापक दायरे को समेटेगी, स्कूल प्रणाली में जितने अधिक ‘‘उध्र्वाधर’’ ‘‘स्तर’’ होंगे, वहां की सांस्कृतिक दुनिया तथा सभ्यता उतनी ही जटिल होगी। इसकी तुलना का एक बिन्दु औद्योगिक तकनीक के क्षेत्र से प्राप्त किया जा सकता है: किसी देश के औद्योगीकरण की माप इस बात से होती है कि वह मशीन तथा मशीनों का उत्पादन करने वाली मशीनें बनाने में कितना सक्षम है तथा इस बात से भी कि कितनी परिशुद्धता के साथ वह मशीनें तथा मशीन बनाने के उपकरण निर्मित कर सकता है। वह देश जो प्रयोगशाला में वैज्ञानिक प्रयोगों के लिये उपकरण बनाने तथा इन उपकरणों की जांच हेतु अन्य उपकरण बनाने में सबसे ज्यादा सक्षम होगा उसके तकनीकी-औद्योगिक क्षेत्र सबसे जटिल होंगे तथा सभ्यता उच्चतम स्तर की। यही बात बुद्धिजीवियों तथा बुद्धिजीवियों की तैयार करने के लिये समर्पित संस्थानों पर भी लागू होती है। स्कूल तथा उच्च संस्कृति के संस्थान आपस में सम्मिलित किए जा सकते हैं। इस क्षेत्र में भी, गुणवत्ता को मात्रा से पृथक कर के नहीं देखा जा सकता है। सबसे परिष्कृत तकनीकी-सांस्कृतिक विशेषज्ञता के लिये आवश्यक है कि प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा का यथासम्भव अधिकतम प्रसार हो। श्रेष्ठ बौद्धिक योग्यता के चुनाव तथा विस्तार के लिये अधिकतम संभव आधार प्रदान करना – यानी उच्च संस्कृति तथा उच्च स्तरीय तकनीक के लिये लोकतांत्रिक ढांचा तैयार करना – स्वाभाविक तौर से कुछ समस्याएं भी उत्पन्न करता हैः यह मध्यस्तरीय बौद्धिक समुदाय के लिये बेराजगारी उत्पन्न करता है, सभी आधुनिक समाजों में वास्तव में यह समस्या सामने आ रही है।
यह ध्यान देने की बात है कि वास्तविक अर्थों में बौद्धिक संस्तरों के विस्तार का आधार कोई अमूर्त लोकतंत्र नहीं होता, बल्कि यह ठोस पारम्परिक ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के अनुरूप होता है। ऐसे सामाजिक स्तरों का विकास हुआ है, जो पारम्परिक रूप से बुद्धिजीवियों को ‘‘उत्पन्न’’ करते हंै, यह स्तर ऐसे स्तरों (पेटी बुर्जुआ, मध्यवर्ती भूस्वामी बुर्जुआ तथा पेटी बुर्जुआ और मध्यवर्ती शहरी बुर्जुआ) से जुड़ जाते हैं जिनकी दक्षता इसे ‘‘संजोने’’ में होती है। ‘‘आर्थिक’’ दायरों में विभिन्न प्रकार के विद्यालयों (शास्त्रीय तथा पेशेवर) का वैविध्यपूर्ण वितरण तथा इनके बीच की विभिन्न श्रेणियों की वैविध्यपूर्ण महात्वाकांक्षाए, बौद्धिक विशेषज्ञता की विभिन्न शाखाओं को निर्धारित करती हैं तथा उन्हें आकार देती हैं। इस प्रकार इटली में ग्रामीण बुर्जुआ खास तरह के राज्य कर्मचारियों और पेशेवर लोगों का निर्माण करते हैं, जबकि शहरी बुर्जुआ उद्योग के लिये तकनीकी विशेषज्ञों का। फलस्वरूप उत्तरी इटली ज्यादातर तकनीकी विशेषज्ञों का तथा दक्षिणी इटली कर्मचारी तथा पेशेवर लोगों को पैदा करता है।
बुद्धिजीवियों तथा उत्पादन की दुनिया के बीच के संबंध उतने प्रत्यक्ष नहीं होते हंै जितने कि अन्य बुनियादी सामाजिक समूहों के साथ उनके संबंध होते हैं। बल्कि यह समाज की पूरी बनावट तथा उसकी जटिल अधिरचना विभिन्न मात्राओं में इसमें ‘‘मध्यस्थता’’ का कार्य करती है (जिसमें बुद्धिजीवियों की भूमिका स्पष्ट रूप से ‘‘संचालकों’’ की होती है।) यह संभव होना चाहिए कि हम विभिन्न बुद्धिजीवियों के विभिन्न संस्तरों की ‘‘आवयविक गुणवत्ता’’ को तथा बुनियादी सामाजिक समूहों से उसके संबंध की कोटि को आंक सकें तथा अधिरचना में नीचे से उपर तक (अधिरचनात्मक आधार से उपर की तरफ) उनके प्रकार्यों का सोपानक्रम निश्चित कर सकें। फिलहाल, हम अधिरचना के दो मुख्य ‘‘स्तर’’ तय कर सकते हैंः पहला जिसे ‘सिविल सोसायटी’ कहा जा सकता है जो कि सामान्य तौर पर ‘‘निजी’’ कहे जाने वाले क्रियाकलापों का समूह होता है तथा दूसरा ‘‘राजनैतिक समाज’’ या ‘‘राज्य’’। ये दोनों स्तर एक तरफ तो ‘‘वर्चस्व’’ की भूमिका निभाते हैं जो कि प्रभुत्वशाली वर्ग पूरे समाज में प्रयुक्त करता है तथा दूसरी ओर ‘‘प्रत्यक्ष प्रभुत्व’’ या नियंत्रण जो राज्य तथा ‘‘न्यायिक’’ सरकारों के माध्यम से स्थापित होता है। जिन प्रकार्यों पर हम चर्चा कर रहे हैं वे स्पष्ट रूप से आपस में संबद्ध तथा संगठनात्मक ढंग के हैं। बुद्धिजीवी प्रभुत्वशाली समूह के कार्यकारी ‘‘नुमाइंदे’’ के रूप में राजनैतिक सरकार तथा सामाजिक प्रभुत्व स्थापित करने की सबाल्टर्न भूमिकाएं निभाते हैं। इसमें शामिल हैंः
1. प्रभावशाली समूह द्वारा सामाजिक जीवन पर थोपे गए सामान्य निर्देश के प्रति बड़ी आबादी की ‘‘स्वतःस्फुर्त’’ स्वीकृति; यह स्वीकृति ‘‘ऐतिहासिक’’ रूप से प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा अपनी प्रतिष्ठा (और तद्जनित आत्मविश्वास) द्वारा संभव होती है, जिसे प्रभुत्वशाली वर्ग उत्पादन की दुनिया में अपनी हैसियत और भूमिका के जरिये हासिल करता है
2. राज्य की दंडात्मक शक्ति के उपकरण जो सक्रिय या निष्क्रिय रूप से अपनी सहमति प्रदान न करने वाले समूहों पर ‘‘कानूनी’’ रूप से अनुशासन लागू करते हैं। पूरे समाज के लिये इन उपकरणों का निर्माण निर्देश और नियंत्रण के संकट के उन क्षणों के लिए किया गया है जब स्वतःस्फूर्त सहमति का लोप हो जाए।
समस्या को इस रूप में प्रस्तुत करना बुद्धिजीवी की अवधारणा को यथेष्ट विस्तार कर देता है। लेकिन यही एकमात्र ढंग है जिसके जरिये यथार्थ के अधिकतम निकट पहुंचा जा सकता है। यह जाति की पूर्वधारणा से भी उलझता है। सामाजिक वर्चस्व तथा राजकीय प्रभुत्व स्थापन की प्रक्रिया निश्चित रूप से एक विशिष्ट श्रम विभाजन और तद्जनित योग्यताओं के पदानुक्रम को जन्म देती है जिनमें से कुछ की कोई प्रत्यक्ष निर्देशात्मक या संगठनात्मक भूमिका नहीं दिखती। उदाहरण के तौर पर सामाजिक और राजकीय निर्देशों के उपकरणों में शारीरिक और यांत्रिक चरित्र के कार्यों (गैर-प्रशासनिक कार्य, अधिकारी और कर्मचारियों की बजाय एजेंट) की एक पूरी श्रृंखला मौजूद होती है। इस भेद का करना उसी तरह अपरिहार्य है जिस तरह अन्य भेदों को करना अपरिहार्य होगा। असल में बौद्धिक क्रियाकलाप को उसकी आंतरिक विशेषताओं की शर्तों पर उन स्तरों के आधार पर विभेदित किया जाना चाहिए जो चरम विरोध के क्षणों में वास्तविक गुणात्मक भिन्नता के रूप में व्यक्त होते हैं – उच्चतम स्तर पर विविध विज्ञानों, दर्शनों, कलाओं इत्यादि के निर्माता होंगे और सबसे निचले स्तर पर क्षुद्र ‘‘प्रशासक’’ तथा पहले से मौजूद, पारम्परिक, संचित भौतिक सम्पदा को व्यक्त करने वाले लोग होंगे।
आधुनिक विश्व में इस ढंग से समझी गई बुद्धिजीवियों की श्रेणियों में अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। लोकतांत्रिक नौकरशाही व्यवस्था ने भारी मात्रा में ऐसे कार्यों को विकसित किया है, जो उत्पादन की सामाजिक आवश्यकता के लिहाज से अनौचित्यपूर्ण हैं लेकिन प्रभुत्वशाली समूह की राजनैतिक जरूरतों के लिहाज से आवश्यक हैं। अतः अनुत्पादक ‘‘श्रमिक’’ (लेकिन किसके संबंध में और किस उत्पादन पद्धति के लिये अनुत्पादक) की लोरिया की अवधारणा को कुछ हद तक उचित ठहराया जा सकता है अगर कोई इस तथ्य को ध्यान में रखे कि ये लोग अपनी हैसियत का इस्तेमाल राष्ट्रीय आय के एक बड़े हिस्से को लेने के लिये करते हैं। बड़ी मात्रा में बुद्धिजीवियों के निर्माण ने व्यक्तियों को मनोवैज्ञानिक रूप से तथा व्यक्तिगत योग्यताओं के अर्थ में मानकीकृत कर दिया है और वैसी ही परिघटना उत्पन्न की है जैसी अन्य मानकीकृत जनसमूहों के साथ हुई है: प्रतियोगिता जिसके चलते पेशे की सुरक्षा के लिये आवश्यक संगठनों का निर्माण, बेरोजगारी, स्कूलों में अति उत्पादन तथा प्रवास इत्यादि। अंतोनियो ग्राम्शी

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