मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति – विजयदेव नारायण साही

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रगतिवादियों के विषय में कहते हैं कि इनके सिद्धान्त और उद्देश्य बहुत सुन्दर हैं, लेकिन ये लोग कम्युनिस्ट-पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं, यही जरा खटकता है। अगर ये लोग दल द्वारा परिचालित होना छोड़ दें तो सब ठीक हो जाय। निस्सन्देह अपने इस आग्रह में द्विवेदी जी व्यायापक लोक-मंगल की भावना और उदार मानवतावाद से प्रेरित हैं, परन्तु हम विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहते हैं कि वे असम्भव की मांग कर रहे हैं।….

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दलित साहित्य : शालीनता का प्रश्न – जयसिंह मीणा

दलित साहित्य ने यथार्थ की हमारी समझ को निश्चय ही विस्तृत किया है, लेकिन दलित लेखकों आलोचकों ने यथार्थवाद की एक बेहद संकुचित धारणा निर्मित की है, जिसके अनुसार केवल जाति और जातिगत शोषण ही यथार्थ है इसके अलावा बाकी सब ‘ब्राह्मणवाद’ है। यथार्थ की इस संकुचित धारणा के चलते दलित साहित्य एक तरह के सपाटपन और विषयगत दुहराव का शिकार हो रहा है।

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‘असली’ की असलियत – बद्री नारायण

उत्प्रवासों के असंख्य तंतुजालों से बनी इस सभ्यता में प्रामाणिक रूप से यह पता लगाना अत्यंत कठिन है कि कौन सी जातियां असली मालिक रही हैं। यह तो कहा जा सकता है कि कौन किस भूमि पर पहले आया, और बाद में, पर कौन कहां का मूल निवासी है यह तय करना अत्यंत कठिन है। हालांकि प्रामाणिक रूप से यह तय करना कठिन है कि कौन उस भूमि पर पहले आया और कौन बाद में।

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क्या साहित्य प्रोपेगैंडा है ? – शिवदान सिंह चौहान

हमारे ये कतिपय आलोचक चन्दबरदायी या भूषण की कविता में अथवा अपनी रचनाओं में व्यक्त उद्गारों में किसी वर्ग का प्रोपैगैंडा नहीं देखते। यदि कोई राजकुमारों और राजकुमारियों, कोमलांगियों और सूटबूटधारी पुरुषों के विषय में लिखता है तो वह उनकी दृष्टि में प्रोपैगैंडा नहीं है किन्तु यदि कोई किसान मजदूर या मुफलिसों की बस्तियों के बारे में लिखता है तो वह प्रोपैगैंडा है।

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क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं ? – प्रेमचंद

राष्ट्रवाद ऐसे उपजीवी समाज को घातक समझता है और समाजवाद में तो उसके लिए स्थान ही नहीं। और हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय।

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स्त्री विमर्श की दृष्टि में हिंदी व्याकरण की सृष्टि

‘पुरुष’ का विलोम ‘स्त्री’ – ऐसा पढ़ाने वाले बच्चों के मन में कैसा लिंगभेदी जहर भर रहे हैं। अपनी अज्ञानता में वे घरेलू कलह व हिंसा का बीजारोपण कर रहे हैं। ‘पुरुष’ व ‘स्त्री’ को प्रकृति ने विलोम नहीं पूरक बनाया है। पूरकता सहयोगी होती है, विलोमता संघर्षी।

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रुसी क्रांति का दर्पण : लियो तॉलस्तॉय – लेनिन

एक तरफ – सामाजिक झूठों और ढोंगों का अत्यंत मजबूत, सीधा और सच्चा विरोध है। दूसरी तरफ तॉलस्तॉयवादी अर्थात निष्प्राण, पागलपन की सीमा तक पहुंचा हुआ, गरीबी के नारे लगाने वाला रूसी बुद्धिजीवी है जो कि आम लोगों के सामने अपनी छाती पीट-पीट कर कहता है ‘‘मैं बुरा हूं, मैं गंदा हूं, परंतु मैं नैतिक आत्मशुद्धि के लिये यत्नशील हूं; अब मैं गोश्त नहीं खाता, अब मैं चावल के कटलेट ही खाकर रह जाता हूं।’’

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दलित साहित्य-विमर्श में स्त्री – बजरंग बिहारी तिवारी

स्त्री-विरोधी पितृसत्तात्मक सोच वाली सांस्कृतिक अस्मिता सबसे पहले स्त्री को ही सम्मान के प्रतीक के रूप में रखती है। … प्रतिशोध की स्याही में डूबी लेखनी साबित कर दिया करती है कि ‘उनकी’ स्त्रियां बदचलन, व्यभिचारिणी और पर-पुरूषगामी हैं। और, वह ‘परपुरूष’ कोई दूसरा नहीं, हम ही है। शत्रु पक्ष के पुरुष नामर्द हैं, नपुंसक हैं। हममें अपार पुंस है, अपरिमित वीर्य है। परिणामतः शत्रु पक्ष की सन्तानें जारज हैं हमारा ही खून है जो उनकी रगों में दौड़ा करता है।

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साहित्य और प्रचार – श्रीपाद अमृत डांगे

वर्गबद्ध साहित्य के समाज में आज तक जो-जो ख्यातिलब्ध कलाकृतियाँ हुई हैं, वह सारी प्रचारकीय ही थीं । श्रेष्ठ कला प्रचारकीय होती ही है और बेहतर प्रचार कलात्मक बन जाता है । श्रेष्ठ कला का विषय मनुष्य होने के कारण और मनुष्य का जीवन व भावनाएँ-संवेदनाएँ वर्गबद्ध समाज में वर्गीय गुणों से घिरे होने के कारण कला में वर्गीय रूप आ ही जाता है ।

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सुरेन्द्र चौधरी : ऐतिहासिक प्रक्रिया से संगति की खोज – प्रणय कृष्ण

सार्त्र की उपनिवेशवाद-विरोधी भूमिका और मार्क्सवाद के प्रति उनकी उन्मुखता ने तीसरी दुनिया के बौद्धिकों के लिए अलग आकर्षण पैदा किया था। कहीं न कहीं भारत जैसे नव-स्वतंत्र देशों में आजादी के आस-पास होश सम्भालने वाली, खासकर शहरी, मध्यम-वर्ग की पीढ़ी में अनेक ऐतिहासिक कारणों से एक किस्म की रिक्तता, उखड़ापन और निरर्थकता का बोध भी वह जमीन थी जिसमें अस्तित्ववाद का दर्शन उस पीढ़ी के आत्मसंघर्ष में मदद का आश्वासन सा दे रहा था, भले ही अनैतिहासिक आधार पर।

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