भारतीय राष्ट्र और आदिवासी – वीर भारत तलवार

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राष्ट्र की यह कल्पना किसी फौजी जमात जैसी है। जैसे फौज की टुकड़ी होती है, सब एक ड्रेस में, एक जैसी टोपी, एक साथ पैर उठाते हैं, एक साथ पैर पटकते हैं, एक साथ मुड़ते हैं- राष्ट्र ऐसा होना चाहिए।माननीय अध्यक्ष महोदय और मित्रों! मैं यहां हिन्दी विभाग एम.ए. के विद्यार्थियों और उनके साथ सहयोग करने वाले शिक्षकों का आभारी हू जिन्होंने मुझे अपने पुराने विश्वविद्यालय में फिर से आने और उन पुराने मित्रों से मिलने का मौका दिया जो उस समय मौजूद थे जब मैं यहा पढ़ता था।

हिन्दुस्तान में जो राष्ट्रª है उससे हिन्दुस्तान के कई समुदायों को शिकायत रही है। जिन समुदायों की बात मैं कहने जा रहा हू उसकी चर्चा यहा और लोगों ने भी की है, वे दलित हैं, आदिवासी हैं, औरते हैं, बच्चे हैं। इनके अलावा कई उत्पीड़ित राष्ट्रªीयताएं हैं जैसे- कश्मीरी, नागा, मीजो और मणिपुरी। मजदूर वर्ग और किसान वर्ग, जिनकी राष्ट्रª यज्ञ में हमेशा बलि दी जाती रही है, गहरे असंतोष से भरे रहे हैं। इतने असंतुष्ट वर्गों और समुदायों को लेकर, इतने गहरे अंतर्विरोधों के साथ जो एक राष्ट्रª बना हुआ है वह निश्चय ही एक स्तर पर काफी दमनकारी सत्ता ही होगा जिसने इतने असंतुष्ट वर्गों को एक साथ रहने के लिये बांध कर रखा हुआ है। इनके बीच जो अंतर्विरोध हैं, इस राष्ट्रª के विभिन्न समुदायों और वर्गों के बीच जो अंतर्विरोध हैं, वे अंतर्विरोध कई बार इतने गहरे होते हैं कि हम एक-दूसरे को बिल्कुल ही नहीं समझ पाते। हम एक राष्ट्रª के नागरिक हैं लेकिन एक-दूसरे के लिये अबूझ हैं। हम एक ही भाषा बोलते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे दूसरा कोई ग्रीक या चीनी भाषा बोल रहा हो। जब कालीचरण स्नेही कहते हैं कि डोम राजा ने सत्यवादी हरिश्चन्द्र को खदेड़ दिया था, तो सोचिये कि आज जो द्विज हिन्दू हैं, सत्यवादी हरिश्चन्द्र के आदर्श को बचपन से पढ़ते हुये बड़े हुए हैं, वो इसको किस अर्थ में लेते होंगे? जब चन्द्रभान प्रसाद कहते हैं कि अंग्रेज बहुत देर से आए और बहुत जल्दी चले गए तो राष्ट्रªवादियों का क्या हाल होता होगा? या जब प्रेमकुमार मणि कहते हैं कि दुर्गा की पूजा नहीं बल्कि उसका विरोध होना चाहिये क्योंकि उसने हमारे नायक महिषासुर की हत्या की है, तो उत्साहपूर्वक दुर्गापूजा करने वालों के बीच कैसी खलबली मचती होगी? ये वर्ग और ये समुदाय, जिनके अंतर्विरोधों को यह राष्ट्रª और राज्य किसी तरह से आधे-अधूरे ढंग से मैनेज करके चल रहा है, अभी ये पूरी तरह से जाग्रत नहीं हुए हैं, एक सेफ्टीवाॅल्व के साथ इनको किसी तरह नियंत्रित करके रखा गया है। लेकिन जब ये कभी खुलकर अपनी आवाज बुलंद करेंगे, अपनी बात कहेंगे-जो कभी-कभी कहते भी हैं- तो कैसा विस्फोट होगा? कितनी बड़ी दूरी है हम सब के बीच एक ही राष्ट्रª में रहते हुए! उस राष्ट्र की जड़ें कहीं न कहीं बहुत कमजोर भी हैं। मैं जानता हूं इस राष्ट्र की जड़ें बहुत मजबूत भी हैं और इसके साथ ही मैं कहना चाहता हू कि वे बहुत कमजोर भी हैं। इस अन्तर्विरोध के साथ ही यह राष्ट्र एक राष्ट्र बना हुआ है। ये अन्तर्विरोध कभी भी नियंत्रण से बाहर जा सकते हैं। राष्ट्रवाद कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। अपने बहुत अच्छे रूप में वह, यहां तक कि उसको क्रांतिकारी भी कहा जाता है, तब होता है जब हम साम्राज्यवाद के खिलाफ उसे संगठित करते है। साम्राज्यवाद के खिलाफ एक राष्ट्र, खासकर साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित राष्ट्र, एक क्रांतिकारी तत्त्व होता है। लेकिन यह क्रांतिकारी राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद का विरोध तभी कर सकता है जब वह अपने अंदर के अंतर्विरोधों को हल करने का कोई एक स्पष्ट उपाय बना ले। अगर वह अपने अंदर के इन समुदायों और वर्गों के अंतर्विरोधों को हल करने का कोई नक्शा नहीं तय कर पाता है, या सिर्फ बंदूक के बल पर इनको हल कर लेगा, ऐसा समझता है, तो वह साम्राज्यवाद का भी विरोध नहीं कर सकता है। इराक इसका बहुत अच्छा उदाहरण है जहां सुन्नी मुसलमानों ने शिया और कुर्द लोगों को दबाकर राष्ट्र का निर्माण किया और अमरीकी साम्राज्यवाद ने उनके इन अंतर्विरोधों का बहुत अच्छी तरह से और बहुत आसानी से फायदा उठाया। एक ही राष्ट्र के अंदर स्त्रियों का पुरूषों से कैसा अन्तर्विरोध है, इस पर भी ध्यान देना चाहिए। ‘सात खून माफ’ फिल्म की नायिका जो सात बार विवाह करती है और एक के बाद एक अपने सातों अत्याचारी पतियों की हत्या कर देती है, एक जगह कहती है कि दुनिया की हर औरत ने कभी न कभी तो जरूर सोचा होगा कि वह अपने पति से कैसे छुटकारा पाए? और ये सिर्फ फिल्मी डाॅयलाग की बात नहीं है। ‘सिमंतनी उपदेश’ की लेखिका ‘‘एक अज्ञात हिन्दू औरत’’, 1882 में प्रकाशित अपनी किताब में लिखती है कि पति के मर जाने के बाद विधवा औरत की आंखों में एक चमक-सी आ जाती है। उसका स्वास्थ्य अच्छा हो जाता है और अक्सर विधवाएं लंबी उम्र तक जीती हैं। जब ऐसे वाक्य हम स्त्रियों की ओर से सुनते हैं तो उनके करवाचैथ व्रत को देखकर गर्व से फूले न समाने वाले पुरूषों का क्या हाल होता होगा? तो मित्रों! यह राष्ट्र बड़े गहरे अंतर्विरोधों पर बैठा हुआ है और कहीं-कहीं हम एक-दूसरे के लिये बहुत अजनबी और अबूझ हो उठते हैं। मैं सबकी चर्चा तो नहीं कर सकता, लेकिन मैं आदिवासियों के बारे में आपसे कुछ कहूंगा। इस राष्ट्र में आदिवासियों की क्या स्थिति है? किस अर्थ में वे इस राष्ट्र के अंग हैं और क्योंकर वे इसका अंग बने रहें? यह सवाल मैं आपके सामने रखता हू , जवाब आपको भी सोचना है।

अभी हाल ही में दो-तीन साल पहले यूनेस्को की एक रिपोर्ट आई भाषाओं के सिलसिले में और उसने अपनी रिपोर्ट में बताया कि दुनिया की छः हजार भाषाओं में से दो सौ भाषाएं पिछले पचहत्तर वर्षों में खतम हो चुकी हैं। उनका अस्तित्व मिट चुका है। बाकी बची भाषाओं में 2500 भाषाएं संकटग्रस्त हैं। उनका अस्तित्व मिटने की ओर जा रहा है। इन 2500 भाषाओं में से 196 भाषाएं भारत की हैं और इन 196 भाषाओं में 62 भाषाएं 1950 के बाद से अभी तक यानी हिन्दुस्तान में जब से लोकतंत्र आया है, मिटने की कगार पर पहुंच चुकी हैं, और 9 भाषाएं खतम हो चुकी हैं। जो 9 भाषाएं खतम हुईं हैं, सब की सब भाषाएं आदिवासी भाषाएं हैं। इन भाषाओं का खतम होना इनको बोलने वाले आदिवासी समुदायों के खतम होने से जुड़ा हुआ है। हिन्दुस्तान में बहुत से आदिवासी समुदाय खतम हो रहे हैं। पिछले साल ओंगे जनजाति का एकमात्र बचा हुआ व्यक्ति भी मर गया और उसके साथ ओंगे भाषा भी खतम हो गई। वह अंतिम व्यक्ति था बचा हुआ। जारवा और सेंटिनल, दोनों समुदाय मिटने की दिशा में बढ़ रहे हैं। अण्डमान-निकोवार के ये मूल निवासी हैं जहां भारत के तमाम राष्ट्रवादी ही बसाये गए हैं। झारखण्ड में तो कई ऐसी छोटी-छोटी जातियां हैं- असुर हैं, शबर खड़िया हैं, बिरहोर हैं, इनकी जनसंख्या कुछ हजार बच गई है। कुछ एक हजार। किसी की ढाई हजार बची है, किसी की सात-आठ हजार बची है। ये कैसा राष्ट्र है जो अपने देश के आदिवासियों को जीने नहीं देता! ये कैसा लोकतंत्र है जिसमें आदिवासी भाषाएं और आदिवासी जातिया खतम होती जा रही हैं? ये आदिवासी इस राष्ट्र का क्या छीन ले रहे हैं कि राष्ट्र ने इनका जीना मुश्किल कर रखा है? आप जानते हैं आदिवासियों की जनसंख्या इस देश की बाकी जनसंख्या की तुलना में बहुत पीछे है। उसकी वृद्धि का अनुपात बहुत कम है। अक्सर आदिवासियों के बच्चे नहीं होते। बहुत कम बच्चे होते हैं और जो होते हैं वो जल्दी ही मर जाते हैं। आदिवासी लंबे समय तक विवाह नहीं कर पाते। हमेशा तनावग्रस्त रहते हैं। इसलिये बाकी सामान्य रफ्तार की तुलना में उनकी जनसंख्या की वृद्धि की रफ्तार बहुत कम है। आदिवासी से क्या समस्या है इस राष्ट्र को?

इसका एक जवाब पास्को के उदाहरण में मिल सकता है। उड़ीसा में बहुत मशहूर कंपनी है पास्को, उसने अपना एक बहुत बड़ा स्टील प्लांट खोलना है। आप जानते हैं कि उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में लोहे की खदानें हैं और वो समुद्र तट से बहुत करीब भी है। पास्को बहुत बड़ी कंपनी है और वह शायद दुनिया का सबसे बड़ा स्टील प्लांट उड़ीसा में खोलना चाहती है, जहा लाखों टन इस्पात बनेगा। इसके लिए जो इलाका उन्होंने चुना है वहा कंध आदिवासी रहते हैं। बहुत बड़ा इलाका है वह और बड़े घने जंगलों से भरा हुआ है। कंध आदिवासियों का जंगल के प्रति एक अलग ही दर्शन है, एक अलग ही दृष्टि है। उनकी यह धर्मगाथा उनके बीच प्रचलित है कि ईश्वर ने कंध को जब बनाया और पृथ्वी पर भेजा तो साथ में उसको जंगल बना के दिया। उस जंगल में बहुत सारे पशु-पक्षियों को भी बनाकर दिया और ईश्वर ने कहा कि ये तुम्हारे भाई-बहन हैं। इनके साथ मिलकर रहना। मैंने इनकी सृष्टि की है। इनको किसी तरह का नुकसान मत पहुंचाना क्योंकि ये सब तुम्हारी सहायता ही करेंगे। कंध अपने आदिम पुरखों से चले आ रहे इस दर्शन में विश्वास करते हैं। वे जंगल को कटने नहीं देना चाहते हैं जहां पर पास्को ने अपना स्टील प्लांट खोलना है। ये आदिवासी पास्को के रास्ते की रूकावट हैं। लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारज का राष्ट्र-राज्य कंध आदिवासियों के साथ नहीं, पास्को कंपनी के साथ खड़ा है। कहना चाहिए कि जिस राष्ट्रवाद की हम बात कर रहे हैं वह इसी पूंजी पर टिका हुआ राष्ट्रवाद है। यह पूंजीवादी राष्ट्रवाद है जिसे आदिवासी एक रूकावट की तरह प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये इस राष्ट्र को इसबात का कोई दर्द नहीं कि आदिवासियों के समुदायों का अस्तित्व खतम हो रहा है या आदिवासियों की भाषाओं का अस्तित्व भी खतम हो रहा है। वे हिरण की कुछ दुर्लभ प्रजातियों को, शेरों और बाघों की कुछ प्रजातियों को बचाने की चिंता करेंगे लेकिन इस देश के मूल निवासियों को बचाने की चिंता उसे नहीं है। लाखों किसानों ने आत्महत्या कर ली है सरकार की उदारीकरण की नीतियों के परिणामस्वरूप। सरकार उनको पैकेज देगी लेकिन उन नीतियों को नहीं बदलेगी क्योंकि, वो नीतियां अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद की नीतियां हैं जिनकी यह राष्ट्र और राज्य सेवा करता है।

यह पूंजीवादी राष्ट्रवाद है, जो हमेशा से अपने जन्म से ही, पूंजीवाद से जुड़ा रहा है। जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं वह लोकतंत्र हमेशा से औपचारिक ही रहा है। भले ही विभिन्न वर्गों की समानता का उसके संविधान में दावा किया गया हो लेकिन व्यवहार में वह समानता नहीं होती। इटली में पूंजीवाद का जन्म हुआ था। इटली में पूंजीवाद का विकास हुआ और इटली में ही लोकतंत्र का भी विकास हुआ। फ्लोरेंस, वेनिस सब गणतंत्र वाले नगर-राज्य थे। उस जमाने मेें भी, जब महान रेनेसां इटली में घटित हो रहा था, इटली का गणतंत्र पूंजीपतियों के हितों की ही सेवा करता था। मेडिची इटली का सबसे बड़ा व्यापारिक घराना था। उस व्यापारिक घराने ने फ्लोरेंस के गणतंत्र पर लगातार अपना कब्जा बनाये रखा। उसने छोटे व्यवसायियों को अपने साथ मिलाकर अपने बराबर के बड़े व्यवसायियों के व्यवसाय को चैपट करने और अपने व्यावसायिक हितों को आगे बढ़ाने के लिये हमेशा गणतंत्र का इस्तेमाल किया। यह भी ध्यान रहे कि इटली के मजदूर वर्ग को वोट देने का अधिकार नहीं था और दासों को वोट देने का अधिकार नहीं था। ये अधिकार तो विभिन्न देशों में आज दे दिये गये हैं, लेकिन लोकतंत्र आज भी उन्हीं शक्तिशाली वर्गों की सेवा करता है। उनके हितों में राज्य के सारे संसाधनों को लगाता है। जो लोकतांत्रिक राष्ट्र देशी-विदेशी पूंजीपतियों को इतनी सारी सुविधायें देता है, उनके लिये सस्ती जमीनें मुहैया कराता है, उनको सस्ते में बिजली दी जाती है, तीस-तीस, चालीस-चालीस साल तक के लिये उनके मुनाफे पर टैक्स माफ कर दिया जाता है; जिनको घाटे की भरपाई के लिए हर तरह की गारंटी दी जाती है, जो अरबों-खरबों रूपये पूंजीवाद की सेवा में लगाता है मुफ्त में, वही राष्ट्र अपने निचले वर्गों के कर्मचारियों के लिए, केन्द्र सरकार की खदानों और कारखानों के कर्मचारियों के लिए, उनकी भविष्य निधि पर 0.5 प्रतिशत व्याज की दर बढ़ाने के लिए भी राजी नहीं होता। उन कर्मचारियों की यूनियनें पिछले दस सालों से इसके लिए आंदोलन कर रही हैं और सरकार इसको मानने में आनाकानी कर रही है। अभी दिल्ली में सरकार ने वहां की बिजली का कारोबार निजी पूंजीपतियों के हाथों में सौंप दिया है। इन बिजली कंपनियों ने सरकार से कहा कि हमको तो घाटा हो गया है। दिल्ली की सरकार ने तीन सौ करोड़ रूपये दिये टाटा जैसी कंपनियों के घाटे को पूरा करने के लिए। लेकिन दिल्ली की यही सरकार दिल्ली के उन लाखों लोगों के लिए जो इस कड़ाके की ठण्ड में बेघर हैं और ठंडी सड़कों पर रात गुजारने के लिये मजबूर हैं, रैन बसेरे नहीं बना सकती। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि ठंड का मौसम शुरू होने से पहले 129 रैन बसेरे दिल्ली में बन जाने चाहिए। अभी पिछले हफ्ते इनका सर्वे हुआ तो मालूम हुआ कि दिल्ली की सरकार ने सिर्फ 64 रैन बसेरे बनाये। इन चैसठों में भी सिर्फ 41 काम करते हैं। कुछ में ताले लगे हुए हैं और बाकी बने ही नहीं। जो सरकार टाटा-बिड़ला जैसे पूंजीपतियों के घाटे को पूरा करने के लिये 300 करोड़ रूपये दे सकती है वह सड़कों पर बेघर रात गुजारने वाले लोगों के लिये रैन बसेरे नहीं बना सकती। किसके लिये है ये राष्ट्र ? सुप्रीम कोर्ट का आदेश था पूरे देश में रैन बसेरे बनाने के लिये। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार तीस लाख लोग हैं जो कड़ाके की ठंड में सड़कों पर रात गुजारते हैं। उनको कहीं सर छिपाने की जगह नहीं है। राज्य का दायित्व है कि उनके लिये रैन बसेरा प्रदान करे। अभी जो सर्वे हुआ उसके पता चला कि 15 राज्यों में से सिर्फ 3 राज्यों ने ही इस आदेश का पालन किया। बाकी 12 ने कोई पालन नहीं किया और इन तीनों ने भी आंशिक रूप से ही पालन किया, जिसमें दिल्ली सरकार का उदाहरण मैं आपको दे चुका हंू। यह वही राज्य है, यह वही राष्ट्र है जो स्पेशल इकोनाॅमिक जोन बनाता है, जहा पूंजीपतियों का ही राज चलेगा, किसी तरह का टैक्स नहीं लगेगा, किसी तरह का कानून नहीं लागू होगा, हर तरह की उनको छूट दी जाएगी और यही राज्य है जो बेघर लोगों के लिये रैन बसेरा भी सर्दियों में नहीं देना चाहता।

इस राष्ट्र से आदिवासी क्या चाहते हैं? आदिवासी चाहते हैं कि उनको उनके इलाके में उनके तरीके से रहने दिया जाय। राष्ट्र अगर उनका कुछ लेता है तो उनको भी राष्ट्र की दौलत में एक न्यायोचित हिस्सा मिलना चाहिए। इससे ज्यादा आदिवासियों ने कभी कुछ नहीं मांगा। स्थिति यह है कि इस देश की सारी औद्योगिक संपदा आदिवासी इलाकों में है। चाहे यहां का अबरख हो, चाहे यहां का कोई भी खनिज हो- लोहा, तांबा, यूरेनियम या कोई भी खनिज, वह सब आदिवासियों के इलाकों में आदिवासियों के घर-खेत के नीचे जमीन में है। और जितने लोहे के बड़े कारखाने हैं चाहे भिलाई हो या बोकारो- सब के सब आदिवासी इलाके में हैं। देश का सबसे बड़ा औद्योगिक केन्द्र झारखण्ड में है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर औद्योगिक और प्राकृतिक संपदा का केन्द्र होने के बावजूद झारखण्ड में 70 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। यह देश के सामान्य औसत से बहुत ज्यादा है, बहुत ज्यादा। झारखण्ड की 70 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे रहती है और झारखण्ड हिन्दुस्तान की पूरी इण्डस्ट्री का सबसे बड़ा केन्द्र है। आज आदिवासियों की, किसानों की जमीन लेने के लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद में होड़ सी मची हुई है। बड़ी-बड़ी कंपनियों के द्वारा पूरे विश्व के पैमाने पर ज्यादा से ज्यादा जमीनें खरीदी जा रही हैं। उद्योग खोलने के लिए, खदान खोलने के लिए, कामर्शियल फार्मिंग करने के लिये, सारी दुनिया में जमीनें खरीदी जा रही हैं और ये राष्ट्रीय सरकारें ही हैं, राष्ट्रवादी सरकारें ही हैं जो कमजोर आदिवासियों और गरीब किसानों की जमीनें इन कंपनियों को दिलाती हैं। पूंजीपति इन जमीनों को सीधे तौर पर नहीं खरीदते। वे राज्य पर दबाव डालते हैं क्योंकि वह आदिवासियों और किसानों से जमीन अधिग्रहण कर सस्ते दर पर इन कंपनियों को दे सकता है। पूंजीवादी कंपनिया राज्य की सरकारों पर दबाव डालती हैं कि अपनी भूमि अधिग्रहण की नीति को और उदार बनाओ। ऐसे कानून बदलो या खतम करोे जो जमीन अधिग्रहण करने में रूकावट बनते हैं। झारखण्ड में 19वीं सदी में जो विद्रोह हुए थे बिरसा मुण्डा और सिदो-कान्हू के नेतृत्व में, उनके फलस्वरूप अंग्रेजों ने दो कानून बनाए थे काश्तकारी के – छोटानागपुर टेनेंसी ऐक्ट और संथाल परगना टेनेंसी ऐक्ट। ये कानून आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी को हस्तांतरित होने से रोकते हैं। इस कानून को बदलने के लिए पिछले 10 सालों से जबरदस्त कोशिश चल रही है। आप देखें कि किस तरह उन तमाम कानूनों को बदलने की कोशिश की जा रही है और भारत सरकार भी भूमि अधिग्रहण कानून में तरह-तरह के संशोधन कर रही है ताकि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद को आसानी से ये जमीनें मिल जाएं, सस्ते में सुलभ हो जाएं। वल्र्ड बैंक ने रिपोर्ट दी है कि सिर्फ 2009 में एक साल के अंदर पूरी दुनिया में 5 करोड़ 6 लाख हेक्टेयर जमीन बड़ी कंपनियों द्वारा किसानों से खरीद ली गई। यह जमीन फ्रांस देश के बराबर है। झारखण्ड में 1950 के बाद से अभी तक 22 लाख एकड़ जमीन खरीदी गई जिसमें 15 लाख आदिवासी बर्बाद हो गये। ये भूमंडलीकरण की नीतियां जब से लगी हैं और पास्को, जिंदल यहां आए हैं, 10 लाख आदिवासी विस्थापित होने की कगार पे हैं। पूरे देश में 1950 के बाद से अभी तक 65 लाख आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं अपनी जमीनों से। ये जमीनें किस तरह से आदिवासियों से हासिल की जाती हैं, इसमें किस तरह के हथकण्डे अपनाये जाते हैं, कैसे कानूनी सरकारों को उखाड़ फेंका जाता है, उन पर दबाव डाला जाता है, कानून बदले जाते हैं, इन सबके बीच एक छोटा सा दिलचस्प उदाहरण मैं आपको बताऊंगा। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में वीडियोकोन कंपनी ने 1200 मेगावाट का एक पाॅवर प्लांट बैठाना है। इस पाॅवर प्लांट को बैठाने के लिये उसको कुछ आदिवासी गावों की जमीन हासिल करनी है और वह भी सस्ते दामों पर हासिल करनी है। कैसे करे वह? तो उसने यह हथकण्डा अपनाया। छत्तीसगढ़ की सरकार के एक मंत्री, गृह मंत्री हैं वहां ननकी राम, उनके बेटे हैं संदीप। उस संदीप को उन्होंने क्या किया कि अपना पब्लिक रिलेशन आॅफिसर बना लिया। संदीप कोरबा जिले में भारतीय जनता पार्टी के अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ का अध्यक्ष भी है। संदीप को पब्लिक रिलेशन आॅफिसर बनाया और संदीप ने खुद जाकर उन गांवों में आदिवासियों की जमीनें खरीद लीं, क्योंकि एक आदिवासी आदिवासी की जमीन खरीद सकता है। तो वीडियोकोन कंपनी ने एक आदिवासी मंत्री के ही बेटे को अपना पब्लिक रिलेशन आॅफिसर बनाकर आसानी से वह जमीन हथिया ली। जमीन खरीदने के लिये संदीप लाल बत्ती वाली गाड़ी में जाता था, जिसका उसको अधिकार नहीं था। फिर भी वह लाल बत्ती लगाकर अपने बाप की हैसियत की वजह से जाता था। लाल बत्ती को देखकर ऐसा दबाव पड़ता था आदिवासियों पर कि जिस दाम पर उसने जमीनें मांगी, उन्होंने डर के मारे दे दिया। उस जमीन का भुगतान वीडियोकोन कंपनी ने किया और उसका पाॅवर आॅफ एटार्नी वीडियोकोन के प्रोजेक्ट आॅफिसर के नाम पर है। इस तरह के हथकण्डों से आदिवासियों की जमीनें ये बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनिया हथिया रही हैं। उसी का नतीजा है कि आज झारखण्ड राज्य में ग्रामीण इलाकों में जो तीन करोड़ 70 लाख आदिवासी रहते हैं उनमें से 2 करोड़ 36 लाख आदिवासी, ग्रामीण गरीबी रेखा से नीचे अपनी जिंदगी बिता रहे हैं। यानी कुल 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को पेट भर खाना नहीं मिलता। ये आदिवासियों को इतने बड़े पैमाने पर जमीन से वंचित करने का ही परिणाम है कि जब से झारखण्ड राज्य बना है (2000ई.) तब से अभी तक 11 साल के अंदर झारखण्ड से 11 लाख आदिवासी पलायन कर चुके हैं। अपने जिंदा रहने के लिये हर साल 1 लाख आदिवासी अपना गांव-घर छोड़कर रोजगार की खोज में जाने के लिए मजबूर हैं। वे आपके उत्तर प्रदेश में आकर ईंट भट्टों में काम करते हैं या पंजाब में जाकर खेतों में काम करते हैं या हिमाचल में जाकर चीन की सीमा पर सड़कें बनाने का काम करते हैं। इसी गरीबी और बेरोजगारी की वजह से 1200 लड़कियां हर साल झारखण्ड से गायब हो जाती हैं। इस पूंजीवादी राष्ट्र ने उनका सबकुछ ले लिया जिसके बल पे वे हजारों सालों से जिंदा थे। बदले में उनको क्या मिला? हिंदुस्तान की सरकार चाहे जितना दावा करती रहे आदिवासियों के विकास का लेकिन हिंदुस्तान की सरकार की असलियत को सबसे ज्यादा अमरीकी जानते हैं, जिनको पूछे-बताये बिना यह सरकार शायद ही कुछ करती हो। भारत में जो अमरीकी राजनयिक हैं उन्होंने अमरीकी सरकार को जो चिठ्ठियां लिखीं, जिसको विकीलीक्स ने लीक कर दिया है, उनमें से एक चिठ्ठी में अमरीकी राजनयिक लिखता है अमरीकी सरकार को कि हिंदुस्तान में आदिवासियों की बड़ी विकराल समस्या हो गई है। लेकिन भारत की जो सरकार है, वह यहां के 8 करोड़ 40 लाख आदिवासियों की समस्या को न तो हल कर रही है और न ही हल करने की कोई इच्छा रखती है। ये अमरीकी राजनयिकों की चिठ्ठी है अमरीकी सरकार को लिखी हुई।

सवाल है आज आदिवासी कैसे जिंदा रहें? आज जिंदा रहने के लिये प्रतिरोध के रास्ते पर उसको उतरना पड़ा है। कोई राजनीतिक दल, हिंदुस्तान का कोई भी राजनीतिक दल आदिवासियों की लड़ाई नहीं लड़ता है। एक भी नहीं। जो नक्सली हैं उनके इलाके में, उन्होंने चूंकि स्थानीय आदिवासियों के कुछ सवालों को, कुछ मुद्दों को उठाया और वही आदिवासियों के सबसे करीब हैं तो कोई दूसरा रास्ता नहीं पाकर आदिवासी उनके साथ हो गये। जो युवा पीढ़ी के लोग हैं, जो ज्यादा बरदाश्त नहीं कर सकते, वो उनके साथ हो गये। सरकार सारी सच्चाई को जानते हुए भी कि समस्या का मूल कारण नक्सली नहीं आदिवासियों की समस्या है, सरकार आदिवासी असंतोष के प्रति आंखें मूंदी हुई है। वह नक्सलियों को राष्ट्र के विकास में सबसे बड़ा खतरा बता रही है और कू्ररता के साथ इनका दमन करने के लिये तैयार है। लेकिन नक्सली के नाम पर असल में दमन किसका किया जा रहा है? यह दमन आदिवासियों का किया जा रहा है। इस दमन का सबसे कू्रर रूप छत्तीसगढ़ में दिखाई देता है। आप देखें कि दांतेवाड़ा जिले में सलवा जुडूम के नाम से खुद राज्य ने एक संविधानेतर हिंसक संस्था को जन्म दिया। हथियारबन्द संस्था को जन्म दिया जिसका अस्तित्व ही बहुत विचित्र है। इस संस्था ने क्या किया? छत्तीसगढ़ में नक्सली चूंकि आदिवासी जंगल के इलाकों में, आदिवासी गावों में पनाह लेते हैं इसलिये यह सोचा गया कि उन जंगलों से आदिवासियों के गावों को ही हटा दिया जाय। उन आदिवासियों को कहा गया कि अपने गाव को छोड़कर दंतेवाड़ा शहर में सलवां जुड़ुम ने जो तंबू लगा रखे हैं, रिफ्यूजी कैंप- उनमें आकर रहो। बीवी, बच्चों, परिवार के सहित मां, बाप, बूढ़े जो भी हैं, उन सबको ले आओ। अपनी बकरी और खस्सी और भेंड़ और गाय सब ले आओ और यहीं रहो। यह कैसा हल है समस्या का? लाखों लोगों से कहा जा रहा है कि अपना गांव-घर छोड़ दो जहा वे सदियों से रह रहे हैं। शहर में जो गंदे कैंप की बस्तियां बसाईं हैं वहा आकर रहें! जिन लोगों ने ऐसे रहने से इन्कार कर दिया, सरकार ने क्या किया कि वहा राशन की दुकानें सब बंद कर दीं। वहा बिजली की सप्लाई बंद कर दी। वहा उन्होंने सारे स्कूल बंद कर दिये। अकेले दंतेवाड़ा जिले में 264 स्कूल बंद कर दिये गये। आखिर मजबूर होकर 60 हजार आदिवासी 600 गांवों को छोड़कर भाग गये वहा से। वो भाग के कहां गये कुछ पता नहीं। कहां भटक रहे हैं, भीख मांग रहे हैं, रिक्शा खींच रहे हैं, यह कोई नहीं जानता। 60 हजार आदिवासी 600 गावों से उजड़ गये सरकार की इन नीतियों के चलते। ये नक्सलवाद का दमन है या आदिवासियों का दमन है? और तो और, जब ये अपने गावों को छोड़कर चले गए तो इनके घरों को जला दिया गया, इनके गावों को जला दिया गया ताकि नक्सलवादी वहां कभी पनाह न ले सकें। लेकिन क्या इन तरीकों से राष्ट्र -राज्य तथाकथित नक्सली समस्या को हल कर सकता है? मणिपुर में 60 वर्ष हो गये हैं आम्र्स फोर्सेस स्पेशल पाॅवर ऐक्ट लागू किये हुए। नागालैण्ड, मिजोरम हर जगह तो सरकार की फौजें हैं और कश्मीर में 8 लाख सेना के जवान हैं। लेकिन फौज और ताकत के बल पर इन समस्याओं का हल आज तक सरकार नहीं कर सकी है। कर भी नहीं सकती। ये कोई अलगाववादियों का मामला नहीं है। कुछ लोग समझते हैं कि उत्तर पूर्वी सीमा के लोग इसाई हैं, ये अलग होना चाहते हैं। ये बात नहीं है। मणिपुर में 57 प्रतिशत आबादी ‘मेइति’ लोगों की है जो हिन्दू हैं, वैष्णव धर्म को मानते हैं। और वहीं ये स्पेशल पाॅवर ऐक्ट लागू है साठ सालों से। साठ साल से आप बंदूक के बल पर मणिपुर को दबाकर उस समस्या का हल नहीं कर सके। आप क्यों हिंसा के रास्ते पर चलकर इस समस्या का हल करना चाहते हैं?

समस्या है हमारे इस पूंजीवादी राष्ट्रवाद की ओर से। जो पूंजीवादी राष्ट्रवाद का चरित्र है, समस्या वहां पर है। हमारे देश में राष्ट्र की वह अवधारणा कभी नहीं रही जो आज है। दूबे जी बिल्कुल सही कहते हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल, जो भारतीय मनीषी थे, उनका मानना था कि भारत में राष्ट्र का अर्थ भूमि रहा है। इस भूमि में जो रह रहा है वह भारत राष्ट्र में रह रहा है। उसका क्या धर्म है, क्या रीति-रिवाज है, क्या त्यौहार है- कोई पूछने नहीं गया, कोई उसको रोकने नहीं गया। हर समुदाय अपने धर्म, रीति-रिवाज के अनुसार रहता था। राज्य ने कभी उसमें कोई दखल नहीं दिया। भारत में यही राष्ट्र रहा है। लेकिन आज हिंदुस्तान में राष्ट्र की अवधारणा जो हमने ली है, वह पश्चिम से ली है। उसका विकास यूरोप में रिफार्मेशन के दौरान, धर्मसुधार आंदोलन के दौरान हुआ जब कैथोलिक चर्च की सत्ता को चुनौती दी प्रोटेस्टेंट ने। यूरोप में हमेशा ही राज्यशक्ति धर्म के साथ जुड़ी हुई रही है। ये गोरी जातियों के लोग आज मुसलमानों को कोसते हैं कि ये लोग थियोक्रेटिक हैं जबकि यूरोप हमेशा से थियोक्रेटिक रहा है। वहीं पर कैथोलिक चर्च की सत्ता-जिसकी ईसाई सत्ता पूरे यूरोप में थी- उस सत्ता के खिलाफ अलग-अलग राष्ट्रों की राज्यसत्ता विकसित हुई है, जिसका नेतृत्व उभरते हुए पूंजीवाद ने किया। ये जो पश्चिमी राष्ट्र हैं इनके अंदर गहरी असहिष्णुता है। वह अपने से भिन्न राष्ट्रों को हीन समझते हैं। सबसे बड़ी समस्या जो एक राष्ट्र को बनाने में आती है कि आप भिन्नता को किस प्रकार ग्रहण करते हैं। भिन्नता को आप क्या समझते हैं? अगर आप भिन्नता को पिछड़ापन समझेंगे, जाहिलपन समझेंगे, मापदण्डों से हटना समझेंगे तो आप उस भिन्नता को कुचलने की कोशिश करेंगे। दूसरों की विशिष्टता को कुचलकर, दूसरों की संस्कृतियों को कुचलकर आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकेंगे। पश्चिम के लोग इतने असहिष्णु हैं कि दूसरे की संस्कृति के प्रति उनके मन में कोई आदर का भाव नहीं है। मैंने देखा गोवा में। यूरोप के लड़के-लड़कियां आते हैं। लड़कियां सिर्फ ब्रा और एक चढ्डी पहनकर मोटरसाइकिल चलाती हुई गोवा में घूमती हैं। ये कितना दिल को सदमे में डालने वाला सार्वजनिक दृश्य है गोवा की सड़कों पर। गोवा के लोगों की यह संस्कृति नहीं है। गोवा के लोग तो बड़े परंपरावादी किस्म के लोग हैं। लेकिन वहां यूरोप से आये तमाम लड़के-लड़कियां एक अंडरवियर पहनकर घूमते हैं नंगे बदन। उनमें गोवा की स्थानीय संस्कृति के प्रति कोई आदर का भाव नहीं है। मैंने सुना है कि नेपाल के पोखरा जिले का पूरी तरह से अमरीकीकरण हो गया है। वहा अमरीकी लोग जाते हैं, अमरीकी टूरिस्ट, और सारी अमरीकी कल्चर वहा फैला रखी है। स्थानीय संस्कृति के प्रति उनके मन में सम्मान का भाव नहीं है। लेकिन यही यूरोपीय अपने देशों में अपनी स्थानीय संस्कृति को जबरन, कानून बनाकर, दूसरों पर थोपते हैं। वहा मुसलमान औरत बुर्का नहीं पहन सकती, सिख आदमी पगड़ी नहीं पहन सकता। अपने देश में वे दूसरे की किसी भी प्रकार की संस्कृति बरदाश्त नहीं करते और उसको अपने कानून के तहत चलाना चाहते हैं। जबकि दूसरे देश में जाकर दूसरे की संस्कृति का कोई आदर नहीं करते।
मित्रों! ये संकीर्णताएं, ये बुराइयां हमारे अंदर भी हैं। हर एक की अपनी-अपनी कमियां हैं, अपनी-अपनी बुराईयां हैं। हमारे अंदर भी भिन्नता को लेकर इस प्रकार की ग्रंथियां हैं जो हमें एक राष्ट्र होने से रोकती हैं। मैं आपको आदिवासियों का ही उदाहरण दूं कि किस प्रकार भिन्नता को पिछड़ेपन का उदाहरण समझा जाता है। आदिवासी हमसे भिन्न जरूर हैं, लेकिन आदिवासी पिछड़े नहीं हैं। जाहिल नहीं है। लेकिन हम उनको यही समझते हैं। हम भी भिन्नता का आदर नहीं करते। हमारे पास आदिवासियों के लिये जो एक शब्द है वह है जंगली। जंगली ही उनको कहा जाता रहा है। हिन्दूवादी लोग उसको सुधारकर वनवासी बोलते हैं। संस्कृत का शब्द होने से कोई बहुत महान हो जाता है, ऐसा नहीं है। अर्थ वही है- जंगली। जंगली तो शेर, गीदड़, बाघ, भालू सब हैं। सब जंगली हैं। आप मनुष्य का फर्क नहीं कर रहे उनसे। हमने अपनी भाषा में जो शब्द बना रखे हैं, हमारी भाषा बताती है कि हमारी मानसिकता क्या है? हमारा दृष्टिकोण क्या है? भारत में जो संविधान है उसमें बहुत सारी जातियों, बहुत सारे धर्मों को लोकतंत्र में स्थान देने का प्रावधान बनाया गया है, ये बात बिल्कुल सच है। भारत में संविधान बनाने वालों ने एक राष्ट्र बनाने की चेष्टा की। लेकिन ये सिर्फ संविधान में है। हमारे दृष्टिकोण, हमारी मानसिकता में नहीं है। जब तक वो हमारी मानसिकता और दृष्टिकोण में रच-बस नहीं जाता, तब तक आप भिन्न समुदायों को लेकर एक राष्ट्र नहीं बना सकते। संविधान को आप सिर्फ बंदूक के ही बल पर कब तक चलाते रहेंगे? हिंदुस्तान में आप देखें कि जनगणना जब होती है तो आदिवासियों का धर्म उसमें लिखा नहीं जाता है। जनगणना करने वाले जो हैं वे समझते हैं कि हिंदुस्तान में हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई बस यही धर्म हैं। यह व्यक्ति का दोष नहीं है। ये राज्य के कर्मचारी हैं और यह राज्य की नीति है जिसको लेकर वे जनगणना करने जाते हैं। तो धार्मिक दृष्टि से आदिवासी क्या हैं? इसके लिये वे कोष्ठक में लिखते हैं ‘अन्य’। यानी जो हिन्दू नहीं है, इस्लाम नहीं है, सिख नहीं है, ईसाई नहीं है वो अन्य है। उसका अपना कोई धर्म नहीं है? वो अन्य है? इन नीतियों पर हम एक राष्ट्र खड़ा करना चाहते हैं?

आदिवासी इलाकों में आप शिक्षा के पाठ्यक्रम को देखें। कोई ऐसी किताब नहीं है जो आदिवासी बच्चों को पढ़ाई जाती हो और जिसमें आदिवासियों के समाज का कुछ वर्णन हो, उनकी संस्कृति, पर्व-त्यौहार का वर्णन हो। कोई ऐसी पाठ्यपुस्तक पढ़ाई नहीं जाती। देश के इतिहास में कहीं भी उनके नायकों का और उनके अपने इतिहास का कोई जिक्र नहीं आता है। वही अकबर और अशोक का इतिहास पढ़ते हैं। वही सारी चीजें पढ़ते हैं जो गैर आदिवासियों की है। हम अपनी संस्कृति को इस देश की संस्कृति समझते हैं, एकमात्र संस्कृति समझते हैं। ये दृष्टिकोण आज इतना सामान्यबोध बन चुका है कि आज आप हिंदुस्तान में टेलीविजन देेखिए तो लगता है कि हिंदुस्तान में हिन्दू धर्म को छोड़कर और किसी धर्म के लोग नहीं रहते। जितने सीरियल हैं, जितने कार्यक्रम हैं, आप कुछ भी देख लीजिए, सिर्फ हिन्दू लोग इस देश में रहते हैं। हिन्दी फिल्में देखिए उसमें से गांव गायब हो चुका है। पता नहीं कैसे एक ‘पीपली लाइव’ बन गई अन्यथा वर्षों से, पचीसों वर्षों से हिंदुस्तान में फिल्मों में आपको गांव नजर नहीं आएगा। सिर्फ खाते-पीते मध्यवर्ग के लोग नजर आएंगे। आदिवासी इलाकों में शिक्षा की व्यवस्था भी इसी प्रकार की है। छत्तीसगढ़ के स्कूलों में उनको सरस्वती पूजा सिखाई जाती है। आदिवासी बच्चों को हनुमान चालीसा रटाया जाता है। लेकिन आदिवासी का भी कोई त्यौहार है या नहीं? उनकी अपनी भी कोई संस्कृति है, उसको हम कितना जानते हैं? हम किस बूते पर एक राष्ट्र बनाना चाहते हैं? ये बात खासकर हिन्दी प्रदेश में और भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इन चीजों की जानकारी की कमी सबसे ज्यादा हिन्दी प्रदेशों में ही है। हिन्दी साहित्य में मैथिलीशरण गुप्त को हमने राष्ट्रकवि का दर्जा दे रखा है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हैं, स्कूल का बच्चा भी जानता है, यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर भी जानता है। हम इस राष्ट्र के विभिन्न भाषाओं के कवियों के बारे में क्या जानते हैं? कितना जानते हैं? किस आधार पर हमने उनमें से एक मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि समझ लिया? हममें से कितने लोगों ने सुब्रहमण्यम भारती को पढ़ रखा है? क्या आप जानते हैं कि सुब्रहमण्यम भारती मैथिलीशरण गुप्त की तुलना में कितने शक्तिशाली कवि थे? उनका राजनीतिकि दृष्टिकोण कितना विकसित था मैथिलीशरण गुप्त की तुलना में और भारत की संस्कृति की कहीं ज्यादा समझ थी उनको मैथिलीशरण गुप्त की तुलना में? हम कुछ भी नहीं जानते। हम कूपमण्डूक हैं। हम अपनी भाषा-संस्कृति के अलावा कुछ नहीं जानते। हिन्दुस्तान में ये जो त्रिभाषा फार्मूला फेल हुआ आप सब जानते हैं कि ये हिन्दी प्रदेश के कारण फेल हुआ। हिन्दुस्तान में भाषा की समस्या हल करने के लिये त्रिभाषा फार्मूला बना जिसमें तय हुआ कि अपनी मातृ भाषा के अलावा केन्द्र सरकार की राजभाषा को पढ़ा जाय और दूसरे राज्य की कोई एक भाषा को पढ़ा जाय। इसके तहत दक्षिण भारत के राज्य राजी हो गये और वो उत्तर भारत की एक भाषा को सीखने लगे। लेकिन हिन्दी प्रदेश के राज्यों में हिन्दी के बाहर की भाषा न स्कूलों में लागू की गई न किसी ने आॅप्ट किया। त्रिभाषा फार्मूला टांय-टांय फिस्स हो गया। ये हिन्दी प्रदेश के ही कारण हुआ। भारत जैसे बहुभाषी देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा द्विभाषी है। हर राज्य में ऐसे लोग हैं जो दो भाषाएं बोल-समझ लेते हैं (अंग्रेजी छोड़कर)। भारत में द्विभाषियों का औसत 14 प्रतिशत है। द्विभाषी लोगों की सबसे कम संख्या हिन्दी प्रदेशों में ही है जहा यह औसत सिर्फ 4 प्रतिशत है। यहा तक कि बंगाल में भी यह औसत इससे कुछ ज्यादा 5 प्रतिशत है।

हमने राष्ट्र की जो समझ बना रखी है, वह पश्चिम में विकसित हुआ पूंजीवादी राष्ट्रवाद है। 19वीं सदी में राष्ट्रवाद की इस अवधारणा को हमने विदेशी संपर्क से लिया था। यह अवधारणा है – एक भाषा, एक संस्कृति और एक राष्ट्र। 19वीं सदी के जितने नवजागरण के नेता हुए उनकी यही विचारधारा थी कि एक भाषा हो, एक राष्ट्र हो और एक धर्म हो तो हम बहुत शक्तिशाली हो जाएंगे। उनको लगता था कि यूरोप इसीलिये शक्तिशाली है। इसीलिये वह हमको गुलाम बना सका क्योंकि उसकी एक भाषा है, एक धर्म है और एक राष्ट्र है। आर्य समाज सबसे प्रतिनिधि संगठन था- इस तरह के राष्ट्रवाद का। लेकिन उनके जो विरोधी थे- सनातनी और दूसरे लोग, वे भी इससे सहमत थे। वे सब एक राष्ट्र, एक धर्म और एक भाषा के चक्कर में थे। धर्म सबका अलग-अलग था। दयानंद सोचते थे कि वैदिक धर्म राष्ट्रधर्म होना चाहिए तो सनातनी लोग समझते थे कि वैष्णव धर्म राष्ट्रधर्म होना चाहिए। ब्रह्मसमाजी समझते थे कि ब्राह्म धर्म राष्ट्रधर्म हो जाय। तो उनमें इस तरह की भिन्नता थी, लेकिन विचारधारा एक ही थी। राष्ट्र की यह कल्पना किसी फौजी जमात जैसी है। जैसे फौज की टुकड़ी होती है, सब एक ड्रेस में, एक जैसी टोपी, एक साथ पैर उठाते हैं, एक साथ पैर पटकते हैं, एक साथ मुड़ते हैं- राष्ट्र ऐसा होना चाहिए।

तो मित्रों! ये पूंजीवादी राष्ट्रवाद कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। मैं नहीं समझता की हिंदुस्तान की इतनी सारी विविधताओं, इतने सारे समुदायों, इतने सारे धर्मों को कुचलकर एक फौजी जमात जैसा राष्ट्र बना लेना कोई अच्छी बात होगी। इस राष्ट्रवाद की निंदा रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने की। इस राष्ट्रवाद की निंदा प्रेमचंद ने भी की। इसलिए अगर आज कोई नारा देने की बात हो तो मैं कहूंगा कि पूंजीवादी राष्ट्रवाद का विरोध करो। इस पूंजीवादी राष्ट्रवाद के विरोध के दो हिस्से हैं – एक तो पूंजीवाद है इसमें, जिसका विरोध करो और दूसरा इसमें वह राष्ट्रवाद है जो सिर्फ कुछेक राष्ट्रीयताओं, कुछेक धर्मों और कुछेक समुदायों के कब्जे में है, उनके वर्चस्व में है- उसका विरोध करो। भारत राष्ट्र अपने वर्तमान स्वरूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसका पुनर्गठन करना होगा। जिन्हें हम हाशिए का समाज कहते हैं- यानी आदिवासी, दलित और पिछड़ी जातियों के लोग- असल में ये ही भारत के बहुसंख्यक और इस अर्थ में मुख्य समाज हैं। लेकिन इन्हें राष्ट्र के हाशिए में डालकर मुठ्ठी भर द्विज जातियों ने राष्ट्र पर अपना वर्चस्व कायम कर रखा है। इसे बदलना होगा। इसी के साथ इस राष्ट्र को देशी-विदेशी पूंजीवाद के चंगुल से भी मुक्त करना होगा जिसने राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकार कर लेने के अलावा राष्ट्र की बहुसंख्यक आबादी- मजदूरों और किसानों का जीना मुश्किल कर रखा है।

दूसरे की संस्कृति, दूसरे के जीवन मूल्यों का आदर करना जब तक हम नहीं सीखेंगे और दूसरे को जब तक हम जानेंगे नहीं, हम एक राष्ट्र नहीं बन सकते, जिसकी चिंता के लिए ये सेमिनार आयोजित किया गया है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं कि कैसे हम, जो बहुमत में हैं, जो बहुसंख्यक हैं इस देश में, अपने आप को ही भारत राष्ट्र समझते हैं। जैसे हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग अपनी भावनाओं को, अपने मूल्यों को, अपनी परंपराओं को इतना सही मान के चलते हैं कि जैसे यही एक मात्र चीज है और इससे भिन्न की वो कल्पना नहीं कर पाते और उसको सही मानना तो बहुत दूर की बात है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। मैं मिजोरम की राजधानी आइजोल जा रहा था, एक सेमिनार में। रास्ते में मेरा परिचय एक दक्षिण भारतीय से हुआ जो आइजोल से काफी आगे एक जगह है खोजोल, बर्मा की सीमा से थोड़ा पहले, वहां एक सर्वोदय विद्यालय के प्रिंसिपल थे। सर्वोदय विद्यालय केन्द्र सरकार द्वारा संचालित संपन्न स्कूल हैं। उन्होंने मुझे कहा कि आप एक दिन हमारे स्कूल में भी आइए। हमारे स्कूल के बच्चों के सामने आप दो शब्द बोलिए। मैंने उनका निमंत्रण मंजूर कर लिया। आइजोल में सेमिनार खतम होने पर मैं खोजोल के लिए निकल पड़ा। जंगल पहाड़ों को पार करते हुए, बड़ा लंबा रास्ता था। वहा पहुंचकर मैं उनके यहां एक दिन ठहरा भी। ज्यादातर मीजो बच्चे थे वहां। प्रिंसिपल महोदय ने स्कूल के बारे में बहुत कुछ बताया। स्थानीय संस्कृति और समाज उन्हें जरा भी रास नहीं आया था। उन्होंने कहा कि यहां का समाज अच्छा नहीं है। मैं जल्द से जल्द यहां से चले जाना चाहता हूं। वे दक्षिण भारतीय, तमिल ब्राह्मण थे चेन्नई के। उन्होंने कहा कि अजीब लोग हैं यहां। बच्चों की मां आती है। बीड़ी पी रही है, सिगरेट पी रही है। औरतें यहां बीड़ी-सिगरेट पीती हैं, दारू भी पी लेती हैं। और मीजो लड़के-लड़किया हाॅस्टल में रहते हैं। शाम होते ही जो लड़के हैं वे लड़कियों के हाॅस्टल की तरफ भागते हैं। लड़किया भी बाहर निकल आती हैं उनके साथ। बताइए कोई नैतिकता नहीं, कोई संस्कृति नहीं, कोई मूल्य नहीं इनका। मैंने उनको समझाने की कोशिश की कि आप अपने ही पैमाने से सारी दुनिया को मत मापिए। ये जो नैतिकता के आप के मापदण्ड हैं, ये आपके यानी एक दक्षिण भारतीय तमिल ब्राह्मण के मापदण्ड हैं। आप इसी मापदण्ड से पूरे हिन्दुस्तान को मत मापिए और आदिवासियों को तो बिल्कुल मत मापिए। आदिवासियों में औरत और मर्द के बीच हर मामले में इतना भेद नहीं किया जाता जैसा आपके समाज में और खासकर ब्राह्मण समुदाय में किया जाता है। अगर बीड़ी-सिगरेट पीनी बुरी बात है तो मर्द के लिए भी उतनी ही बुरी बात है। अगर मर्द के लिए बुरी बात नहीं है, वो पीता है, तो औरत भी उसको पी सकती है। मीजो इसको बुरा नहीं समझते। आप क्यूं अपनी संस्कृति की चीज उन पर थोप रहे हैं? ये लोग सदियों से यहां रह रहे हैं। यहा इनकी एक संस्कृति विकसित हुई है। आप उसे समझने का प्रयत्न कीजिए। और रही लड़के-लड़कियों की बात तो आप को मालूम नहीं होगा कि मीजो और नागा लोगों की संस्कृति और समाज की यह विशेषता है कि वहां शाम को युवा हो रहे लड़के अपने लड़की मित्रों के साथ मिलते हैं। दोनों एक साथ टहलते हैं, घूमते हैं, बातें करते हैं। ये चीज उनके समाज में मान्य है और वो इसको बुरा नहीं समझते। वो इसको बहुत अच्छी चीज समझते हैं। वहा हर एक गांव में शाम होते ही जो जवान हो रहे लड़के हैं, वो अपनी हमउम्र मित्र लड़कियों के घर जाते हैं और फिर वो लड़कियां अपने मित्रों के साथ निकलकर बाहर घूमने जाती हैं। चाहे वे नाचने के लिए जाए गांव के अखाड़ा में या चाहे समूह में बैठकर कहानी सुने। इसको उनके मां-बाप बुरा नहीं, अच्छा समझते हैं। वो सोचते हैं कि ये तो स्त्री-पुरूष बनेंगे। इनको मिलना ही है। इसके उल्टे अगर कोई लड़का किसी लड़की से मिलने न आए तो लड़की के मा-बाप को चिंता होने लगती है कि मेरी लड़की में क्या ऐसी खराबी है कि सब लड़कियों के दोस्त आते हैं, मेरी ही लड़की के नहीं आते? मेरी लड़की ने क्या ऐसा बुरा बर्ताव कर दिया है? ये चिंता उनके मां-बाप को होती है। ये मूल्य अच्छा है या बुरा? आप सोचकर देखिए। जो लोग समझते हैं कि ये मूल्य बुरे हैं और हिन्दुओं और ब्राह्मणों के मूल्य ही बड़े अच्छे हैं कि लड़के-लड़कियों को बहुत दूर-दूर रहना चाहिए, उनको ये मालूम होना चाहिए कि जिस समाज में लड़के-लड़कियों के बहुत दूर-दूर रहने का रिवाज है, उसी समाज में स्कूल-काॅलेज जाने वाली लड़कियों के साथ छेड़खानी होती है, उसी समाज में कंकड़ और पत्थर लड़कियों पर फेंके जाते हैं, उसी समाज में लड़कियों को दहेज के लिए जलाया जाता है, उसी समाज में वेश्यावृत्ति होती है, बलात्कार होते हैं, यौन हिंसा होती है। आदिवासियों में, नागा, मीजो में वेश्यावृत्ति नहीं होती, बलात्कार नहीं होता है, वहां कोई लड़कियों पर कंकड़-पत्थर नहीं फेंकता है, वहां दहेज की समस्या नहीं है, वहां यौन हिंसा नहीं होती है। हमें अपनी कूपमंडूकता से बाहर आना चाहिए। हम जिन समुदायों के साथ मिलकर एक राष्ट्र बनाना चाहते हैं उन समुदायों के लोगों के मूल्यों के प्रति, उनकी संस्कृति के प्रति हमारी क्या मानसिकता है? क्या दृष्टिकोण है? बार-बार रटे हुए संविधान को मत सुनाइए। आप अपना दृष्टिकोण, अपनी मानसिकता बताइए।

इसलिए मित्रों! अगर हम एक राष्ट्र होना चाहते हैं तो इस देश में एक सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है जो हमारी इस मानसिकता को बदले। राष्ट्र सिर्फ उन चार तत्त्वों के मिलने से नहीं बनता है जो स्टालिन ने बताये थे। माइकल लो ने, जो एक बड़े माक्र्सवादी विचारक थे, बताया कि राष्ट्र के गठन के लिए इन चार तत्त्वों के अलावा एक और जरूरी चीज है। वह यह कि जो लोग हैं वो आपस में मिलकर रहना चाहते भी हैं या नहीं? यह बहुत बुनियादी तत्त्व है। यह जो सब्जेक्टिव आॅस्पेक्ट है राष्ट्र का कि अगर ये साथ रहना नहीं चाहते हैं तो चार तत्त्व हों या आठ तत्त्व होें, आप उनको एक राष्ट्र नहीं बना सकते हैं। हिन्दी-उर्दू भाषा में कोई बहुत बुनियादी अंतर नहीं है लेकिन हिन्दी और उर्दू के ही सवाल पर उत्तर प्रदेश के हिन्दू और मुसलमान सबसे ज्यादा बटे हुए रहे हैं। उत्तर प्रदेश का मुसलमान कभी हिन्दी जाति कहलाना पसंद नहीं करता। तो अगर हम एक ही पहचान के अन्तर्गत रहना नहीं चाहते तो आप इन्हें एक राष्ट्र नहीं बना सकते। लेकिन जिनके साथ हम रहना चाहते हैं उनकी संस्कृति और उनके मूल्यों को जानना चाहिए और उसका आदर करना सीखना चाहिए। इसके लिए हमें बहुत तरह के परिवर्तनों की जरूरत है। मैं सिर्फ उदाहरण के लिए आपको बताऊ – जैसे ये जाति यानी कास्ट की जो चेतना है, ये हिंदुस्तान की बहुत बड़ी रूकावट है। मैं जब पढ़ने के उद्देश्य से पहली बार बनारस आया था तो मैंने देखा कि लोग यहां एक-दूसरे से बात करते हुए बाबू साहेब, ठाकुर साहेब, पंडित जी! पांय लागीं- ये सब बहुत बोलते हैं। मैंने सोचा कि यह तो मुहावरा है बनारसी, मैं भी बोलने लग गया। लेकिन आज मैं समझता हूं कि ये राष्ट्र विरोधी भाषा है हमारी। हम जो बाबू साहेब हैं या ठाकुर साहेब हैं या पंडित जी हैं, हमें यह बात बहुत काॅमन सेंस की लगती है, हमें ये बात बहुत मामूली लगती है। लेकिन आप उन लाखों लोगों के बारे में सोचिए जो बाबू साहेब नहीं हैं, जो ठाकुर साहेब नहीं हैं, जो पंडित जी नहीं हैं, उनके लिए ये संबोधन क्या अर्थ रखते हैं? ये हमारे इसी समाज के अंग हैं और हम उन्हीं के सामने ऐसी भाषा बोलते हैं। आज मैं समझता हू कि यह भाषा एक राष्ट्र के लिए रूकावट है। जातिप्रथा एक अमानवीय प्रथा है, मनुष्य विरोधी प्रथा है। हमारे बेटे-बेटियां प्रेम करते हैं और हम लठ्ठ लेके खड़े हो जाते हैं उनके पीछे कि उनको हक नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में न जाने कितने प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्या की गई और उनको जिंदा जलाया गया। उनके परिवार के लोगों को जलाया गया। किसी लड़के ने किसी दूसरी जाति की लड़की से प्रेम कर लिया तो उसकी मां-बहन के साथ बलात्कार किया गया। यह सिर्फ जाति की चेतना के कारण। एक ऐसी चेतना जो इतनी दंभपूर्ण है, इतनी मिथ्या है, इतनी निराधार है, उसको हम इतना ठोस मानकर इतनी हिंसा करते हैं? इतने अमानवीय हो जाते हैं? जातिप्रथा को स्वाभाविक मानकर, उसमें आस्था रखकर भारत को एक राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता। ispatika magzine

अंत में थोड़ी सी बात मैं शिक्षा के बारे में कहना चाहता हूं। ये जो हमारी शिक्षा का ढांचा है, इसे बदलने की जरूरत है अगर हम एक राष्ट्र होना चाहते हैं। हम हिन्दी में एम.ए. करते हैं, बंगला में एम.ए. करते हैं, तमिल और मराठी में एम.ए. करते हैं, यह बंद होना चाहिए। हिंदुस्तान में आरंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक- हर स्तर पर साहित्य का अध्ययन-अध्यापन सिर्फ तुलनात्मक होना चाहिए। मराठी, तमिल, कन्नड़, पंजाबी, हिन्दी सारे साहित्य का एक साथ अध्ययन करो और तब देखो कि प्रेमचंद ही एकमात्र महान थे या फकीर मोहन सेनापति भी कोई था- कि तकषी शिवशंकर पिल्लइ भी कोई है- कि मैथिलीशरण गुप्त के अलावा सुब्रहमण्यम भारती भी कोई है। आप कुएं में जी रहे हैं, कुंए के बेंग होकर जी रहे हैं और राष्ट्र के नाम पर सिर्फ खुद को ही जानते और मानते हैं। तो यह जो एक-एक साहित्य का अलग-अलग अध्ययन होता है यह बंद करके हमें तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। अपने स्कूलों और विश्वविद्यालयों में इस प्रणाली को विकसित करना चाहिए। इसी प्रकार हिंदुस्तान जैसे देश में जहा इतनी भाषाएं हैं, इतने समुदाय हैं, इतने तरह के साहित्य हैं वहा अनुवाद अगर एक बहुत ही व्यापक, लोकप्रिय, मजबूत विधा न हो तो वह एक राष्ट्र नहीं हो सकता। हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली में बचपन से ही हर बच्चे को एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने की कला सिखानी होगी। भारत जैसे बहुभाषी देश में अनुवाद की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य होनी चाहिए। हम यूरोप और अमरीका के लेखकों के बारे में जानते हैं, बहुत जानते हैं, उनकी रचनाएं पढ़ी हुई हैं, उनकी जीवनी जानते हैं। लेकिन हम कितने कन्नड़ के लेखकों को जानते हैं? हम गुजराती के कितने कवियों को जानते हैं? उड़ीसा के कितने कहानीकारों को जानते है? जवाब होगा कि कुछ भी नहीं जानते। मारियो वार्गास ल्योसा ने ‘ला आब्लादोर’ उपन्यास लिखा। नोबेल पुरस्कार मिलते ही उसका एक साल के अंदर भारत में अनुवाद हो गया। लेकिन हिंदुस्तान में भी किसी आदिवासी ने कोई उपन्यास लिखा है, कोई जानता है? और उसका कभी किसी दिन अनुवाद होगा? इस्पातिका पत्रिका

तो मित्रों! बहुत सारी चीजें हैं जो एक राष्ट्र बनने के लिए बहुत जरूरी हैं और हमें अभी बहुत कुछ करना है। धन्यवाद!(बी.एच.यू. के राधाकृष्णन सभागार में दिया गया व्याख्यान) भारतीय राष्ट्र और आदिवासी वीर भारत तलवार

8 Replies to “भारतीय राष्ट्र और आदिवासी – वीर भारत तलवार”

  1. Prof. Veerbharat Talwar ka yeh vyakhyan aadiwasi mamlon me meel ka patther hai … …….. Kedar Prasad Meena , Assit. Prof. Delhi University …… 9868959890

  2. Very interesting , i like this . We should respect each others Culture , living style . Dont look others culture in your perspective .
    Johar !

  3. बहुत ही सारगर्भित और विचारणीय पक्ष …जोहार सर //

  4. pahali bar net khol kar lekh pada bahut ruchikar aur pranadayak laga sir ishsay pahalay tadbhav maybhee lekh pada tha sir shiksha ka udeshay kaya hai log samagh nahe pai meray hisab say lekhane walay bahut hai padany nahee may apkay vicharo k a saman karta hun .

  5. मैं इस भाषण के दौरान उपस्थित था हमलोगों ने मिलकर इसको आयोजित करवाया था . प्रकाशक को बहुत बधाई दोबारा लेख पढ़ाने के लिए

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