हमारे बारे में

देश की शिक्षित जनसंख्या पर नजर डालें तो यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि पत्रिकाएं एक छोटे से तबके तक सीमित होकर रह गयी हैं। कुछ हजारों की संख्या वाले इस तबके को हम अकादमिक एलीट कह सकते हैं। यानी बहस जिनके नाम पर की जा रही है, उनकी ही पहुंच से दूर है। हम ये तो नहीं कह सकते कि पत्रिकाएं गैर जरूरी मुद्दों को उठा रहीं है, बावजूद इसके बाजार (जिसका स्वरूप प्रभु वर्ग ही तय करता है) के प्रभाव को नजरंदाज करना उनके लिये मुश्किल होता है।

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