हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी। अभी तक यह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।
Continue ReadingMonth: July 2012
सेक्सुअल परिवर्तन की घड़ी – अभय कुमार दुबे
वेश्या और सेक्स-वर्कर बनाने के सवाल पर नारीवादियों में गहरी द्वैधवृत्ति पायी जाती है। वेश्या को मजदूर की हैसियत देने के ख्याल से ही उनका प्रच्छन्न ‘मार्क्सवादी मर्म’ आहत हो जाता है। यह इस बात का सबूत है कि भारतीय नारीवाद पर मार्क्सवाद की छायाएँ कितनी गहरी और स्थायी किस्म की हैं।
Continue Readingडॉ. रामविलास शर्मा का पहला लेख (1934)
परिमल की कविताओं से कहीं गिरी कविताओं को मैंने लोगों को बार-बार पढ़ते देखा है और परिमल को ऊटपटांग बताते सुना है, इससे जनता के गिरे टेस्ट का ही पता चलता है। उसका उत्तर कवि को गालियां देना नहीं, वरन स्वयं काव्य-मनन कर उसे समझने की शक्ति उत्पन्न करना है।
Continue Readingमार्क्सवादी आलोचना और इतिहासदृष्टि: संघर्ष और आत्मसंघर्ष
पिछली दो सदियों के साहित्य को लज्जास्पद बताना इतना बड़ा कुफ्र था कि इससे जो चीख-पुकार मची, उसमें इस घोषणापत्र ने अपने समय के साहित्य से जो वास्तविक मांग की थी, उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। वह मांग कुछ इस तरह थी।
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