मार्क्सवादी आलोचना और इतिहासदृष्टि: संघर्ष और आत्मसंघर्ष

पिछली दो सदियों के साहित्य को लज्जास्पद बताना इतना बड़ा कुफ्र था कि इससे जो चीख-पुकार मची, उसमें इस घोषणापत्र ने अपने समय के साहित्य से जो वास्तविक मांग की थी, उस पर समुचित ध्यान न दिया जा सका। वह मांग कुछ इस तरह थी।

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अभिव्यक्ति की आजादी और नाक का सवाल

अपूर्वानंद ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सवाल मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से उठा रहे हैं। उनकी ‘आजादी’ एक खास काट की अभिजात-मध्यवर्गीय आजादी है जो लेखकों-कलाकारों को प्राप्त होनी चाहिए। इरोम शर्मिला, सोनी शोरी से लेकर करोड़ों दलितों-आदिवासियों-स्त्रियों और गरीबों की आवाज जब सत्ता द्वारा अनसुनी कर दी जाती है, कुचल दी जाती है तो उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई हमला होता नहीं दिखाई देता।

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किस प्रलेस की बात कर रहे हैं आप

जो नामवर सिंह ‘साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका’ लिखकर रामविलासजी की उक्त मान्यताओं का प्रतिवाद कर रहे थे, आज वही उन मान्यताओं को दोहरा रहे हैं। नामवरजी ही नहीं प्रगतिशील आंदोलन की चर्चा करने वाले अधिकांश विद्वान चाहे वह रेखा अवस्थी हों, कर्णसिंह चैहान हों या सहारा आयोजन में शामिल रवींद्र त्रिपाठी और विश्वनाथ त्रिपाठी हों, रामविलासजी के हवाले से ही प्रगतिशील आंदोलन को समझते-समझाते हैं।

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