बिबिया – एक अन्तःपाठ

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महादेवी वर्मा के ‘बिबिया’ शीर्षक संस्मरणात्मक रेखाचित्र को पढ़ने के बाद उनके कविता के पाठक को ज़बरदस्त झटका लगता है। उनकी कविताओं के आधार पर उन्हें देखने की समझ जो ‘कामन सेन्स’ की तरह विकसित हो गयी है, वह आप ही पुनर्जांच की मांग करती है। उनके गद्य के आधार पर महादेवी को ‘क्रांतिचेता’, ‘स्त्रीवादी विमर्शकार’ आदि के रूप में देखने की तमाम कोशिशें इस बीच हुईं हैं, उनसे कई नई और सकारात्मक बातें महादेवी के साहित्य को लेकर सामने आयी हैं। बहरहाल यहाँ ‘बिबिया’ को लेकर कुछ सामान्य मगर महत्वपूर्ण बातों को रखने का प्रयास करूँगा जो ‘बिबिया’ को पढ़ने के दौरान मेरे मन में पैदा हुए।
महादेवी वर्मा के संस्मरणात्मक रेखाचित्र ‘बीबिया’ का पाठ सिर्फ स्त्री-चेतना या विमर्श की दृष्टि से ही नहीं बल्कि दलित स्त्री-विमर्श की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। बीबिया का सारा जीवन, संघर्ष और समर्पण दलित समाज के अंदर ही घटित होता है। वह हर प्रकार से अन्य सामान्य स्त्रियों की तरह है। बिबिया जैसी स्त्री केवल उस समय के समाज में ही मौजूद नहीं थी बल्कि उससे पहले और आज भी अपनी पूरी विभीषिका के साथ मौजूद हैं। पुरुष समाज हमेशा की तरह उनकी समस्या को समस्या न मानकर उन्हें अनदेखा करना ही उचित मानता है या फिर उन्हें बिबिया ही बनाए रखने में अपनी सफलता समझता है। महादेवी ने यहाँ बिबिया की समस्या को अधिकांश स्त्रियों की समस्या के रूप में उसकी पूरी सम्पूर्णता में चित्रित किया है। बिबिया भी सामान्य स्त्रियों की तरह है, जो अपने घरेलू कामों में निपुण और तेज तर्रार है। परन्तु उसके अंदर का स्वाभिमान जो असह्य स्थिति में ‘शेरनी की हुंकार’ में तब्दील हो जाता है; उसे खतरनाक बनाता है। पुरुषसत्तात्मक-समाज में कोई स्त्री अपने मन की करे और गलत को निर्भीकता से गलत कहे यह संभव नहीं है। इसीलिये बिबिया का चरित्र अंत तक ‘अबूझ’ बना रहता है। उसके चरित्र को न समझ पाने का असली कारण महादेवी की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है। तीसरी शादी के बाद जब बिबिया कई दिनों तक नज़र नहीं आती तब महादेवी लिखती हैं- “जब एक वर्ष तक मुझे उसका कुछ समाचार न मिला, तब मैंने सोचा की वह जंगली लड़की अब पालतू हो गई।”( महादेवी समग्र, भाग-२, सेतु प्रकाशन, इलाहबाद, संस्करण-१९७०, पृ-२१०) यह बिबिया पर कटाक्ष या व्यंग्य नहीं एक स्त्री की पीड़ा है। महादेवी को लगता है कि बिबिया साधारण स्त्रियों की तरह पुरुषों की गुलामी के लिए सहज ही तैयार होने वालो में से नहीं है, परन्तु जब एक साल तक पालतू बना देने वाली विवाह संस्था से वह बंधी रह जाती है तब महादेवी को लगता है कि वह भी पालतू बना ली गई। यह भय इसलिए भी है कि पुरुषों को स्त्रियों को पालतू बनाने का प्रत्येक गुर मालूम है। इसी अर्थ में बिबिया ‘जंगली’ भी है कि वह पुरुष समाज द्वारा निर्मित मनोवांछित ‘नारीमूर्ति’ नहीं है। पुरुषतांत्रिक समाज में बिना प्रतिदान की उम्मीद किये अपने कार्य और कर्तव्यों को निष्ठा से निभाने वाली बिबिया कोई अत्यंत क्रांतिकारी स्त्री भी नहीं है ‘केवल उसके स्वभाव में अभिमान की मात्रा इतनी अधिक थी कि वह दोष की सीमा तक पहुँच जाती थी।‘(वही, पृ-२०६) इसका एक महत्वपूर्ण कारण उसका धोबी जाति से होना है। वह घर के साथ-साथ भाई के साथ कपड़े धोने-सुखाने घाट पर जाती है। ‘अपना ही नहीं वह दूसरों का काम करके भी आनंद का अनुभव करती थी। दादी की मुट्ठी से झाड़ू खींचकर वह घर- आँगन बुहार आती, भौजाई के हाथ से लोई छीनकर वह रोटी बनाने बैठ जाती और भाई के उँगलियों से भारी इस्त्री छुड़ाकर वह स्वयं कपड़ों की तह पर इस्त्री करने लगती। कपड़ों में सज्जी लगाना, भट्ठी चढ़ाना, लादी ले जाना, कपड़े धोना-सुखाना आदि कामों में वह सबके आगे रहती थी।‘(वही, पृ.-२०६) इस तरह उसका अपने घर की आर्थिक अर्जन की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी थी। इसी कारण वह अपनी भाभी एवं अपने समाज की कई अन्य स्त्रियों से अलग स्वभाव की थी। आत्मनिर्भरता ही आत्मसम्मान या आत्माभिमान की भूमिका में होता है। परन्तु यह सवाल पुछा ही जा सकता है कि वे कौन लोग थे जिनके लिए बिबिया का अभिमान ‘दोष’ की सीमा तक पहुँच जाता था। ये वे लोग थे जिनके लिए स्त्रियों का गहना क्षमा, दया, त्याग, लज्जा, झुककर चलना और रहना आदि ही होता है। यही लोग अभिमान को स्त्री का सबसे बड़ा दोष समझते हैं जिसे आज के समाज में भी सहजता से देखा जा सकता है। हमारे अपने या पास के घरों में भी इस मानसिकता को महसूसने के लिए ज्यादा मशक्कत करने की जरुरत नहीं पड़ेगी। घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता एवं अर्थोपार्जन में भागीदारी निभाने तथा अपनी कर्मठता के कारण दलित स्त्रियों में यह मुखरता अनायास ही दिखाई पड़ जाती है। परन्तु यह बहुत रोमांटिक दृष्टिकोण है कि दलित स्त्रियां पूर्णतः स्वतंत्र और मुखर होती हैं। यहाँ भी उन्हें उसी पुरुष-तंत्र की यातनाएं झेलनी पड़ती हैं जो उच्च कही जाने वाली जातियों की स्त्रियों को किंचित दूसरे तरीके से झेलनी पड़ती हैं। यह ठीक है कि दलित समाज की मान्यताएं, रीति-रिवाज अलग होते हैं। जैसे बिबिया का विवाह उसके जन्म के पूर्व ही निश्चित हो गया था। पाँच वर्ष की उम्र में उसका विवाह संपन्न भी होता है परन्तु गंवने के पूर्व ही वर की मृत्यु हो जाती है। इस तरह बिबिया वैवाहिक जीवन के सुख-दुःख को जाने बिना ही, घर बैठे बाल-विधवा हो जाती है। ‘ऐसी परिस्थिति में जिस प्रकार उच्च वर्ग के स्त्री का गृहस्थी बसा लेना कलंक है, उसी प्रकार नीच वर्ग की स्त्री का अकेला रहना सामाजिक अपराध है’।(वही.पृ.-२०६) विधवा होने से एक तरफ उच्च कही जाने वाली जाति में होने के कारण सामाजिक उपेक्षा का अधिकारी होना पड़ता है तो दूसरी तरफ निम्न कही जाने वाली जाति में पुरुषों के शोषण से चैन नहीं मिलता है। विधवा या पतित्यक्त स्त्री का पुनर्विवाह है तो एक प्रगतिशील सामाजिक मान्यता परन्तु इसे भी दलित समाज के पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने अपनी सुविधा के अनुसार ही अपनाया। विधवा या पति द्वारा छोड़ी गयी स्त्री की भूमिका दलित समाज में भी सम्मानीय नहीं कही जा सकती। इसलिए बिबिया को न चाहते हुए भी अपने जीवन में तीन विवाह करने पड़ते है और पुरुषों एवं पुरुष शासित समाज की मनमानी सहनी पड़ती है।
बिबिया पितृसत्तात्मक-समाज-व्यवस्था द्वारा दिए गए ‘स्पेस’ में ही अपने स्वाभिमान की लड़ाई लड़ती है। बिबिया का चरित्र एक तरफ ‘त्रिया चरित्र’ के कांसेप्ट पर चोट करता है तो दूसरी तरफ आधुनिक स्त्री विमर्श से भी जुड़ता है। त्रिया चरित्र का कांसेप्ट व्यभिचारी पुरुष को भी यह सर्वसुलभ अधिकार देता है कि वह किसी भी स्त्री के चरित्र पर सवाल खड़ा कर सकता है और स्त्री को सामाजिक-बहिष्कार का दंश दे सकता है। वैसे भी सिर्फ दलित समाज में ही नहीं बल्कि पढ़े-लिखे और उच्च कही जाने वाली जातियों के लोगों में भी यह विश्वास घर कर के बैठा है कि स्त्री के चरित्र को कोई नहीं समझ सकता (मतलब स्त्रियां होती ही चरित्रहीन हैं)। तभी तो अपनी ‘नारी मोहिनी विद्या’ का प्रदर्शन करते हुए लोग आज भी अनायास ही कह उठते हैं कि ‘त्रिया चरित्र दैवो नहीं जाने’। अब ईश्वर द्वारा ही चलाये जा रहे इस चतुर्वणिक समाज में, ईश्वर ही त्रिया चरित्र को नहीं समझ पाया तो उसकी ये संतान बेचारे और निरीह पुरुष ही कहाँ से समझ पाएंगे।
बिबिया का दूसरा पति रमई भी त्रिया चरित्र को नहीं समझ पाने या कहिए बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण उसे घर से निकाल देता है। ‘कहता है, ऐसी औरत के लिए मेरे घर में कोई जगह नहीं है, चाहे भाई के यहाँ पड़ी रहै, चाहे दूसरा घर कर ले’।(वही, पृ.-२०६) असल में पुरुष को उसकी मनमानी झेलने वाली स्त्री चाहिए जो कम से कम चुप न रहे तो विरोध तो न ही करे। भूलवश बिबिया का अभिमान इतना उथला नहीं था। अपने समाज के दूसरे पुरुषों की पत्नियों की तरह अगर वह होती तो नशेड़ी और जुआड़ी रमई के साथ वह भी खप जाती। विवाह के पश्चात् पहली ही रात को जब नवागत बिबिया विशेष यत्न से दाल-तरकारी बनाकर, रोटी सेंकने के लिए आटा साने रमई की प्रतीक्षा कर रही होती है, तब वह देर रात गए नशे में धुत्त हो घर लौटता है और बिबिया को घृणास्पद बातें कहता है, गालियां बकता है। बिबिया उसका प्रतिरोध करती है। वह रमई से गुस्से में कहती है- “चिल्लू भर पानी माँ डूब मरौ। ब्याहता मेहरारू से अस बतियत हौ जाने बेसवा के आये होयं – छी छी।” (वही पृ.-२०७) बिबिया रमई से अपने पत्नी होने के न्यूनतम सम्मान की ही तो अपेक्षा रखती है। वह चाहती है कि पुरुष-शासित-समाज ने जितनी भी जगह स्त्रियों को दिया है, वही ईमानदारी और सम्मान पूर्वक मुहैया करवाए। यह तो कहीं से भी स्वीकार योग्य नहीं है कि स्त्री घर में अपने ‘पति परमेश्वर’ को गर्म-गर्म रोटी खिलाने के लिए इंतज़ार करती बैठी हो और पति है कि इतने से ही संतुष्ट नहीं होता। वह चाहता है कि उसकी पत्नी इस परमेश्वर के नशे और उसकी गालियों को भी झेले। तभी तो ‘नशे में बेसुध होने पर भी पति ने अपने आपको अपमानित महसूस किया’। (वही, पृ.-२०७) इतना ही नहीं वह अपने आपको नशे की हालत में भी सही साबित करने की कोशिश करता है और बिबिया पर उसके पूर्व पति को (जिसे बिबिया ने देखा तक नहीं था) ‘भक्ष’ लेने का आरोप भी लगाता है। ‘दाँत निपोर और आँखें चढ़ाकर उसने अवज्ञा में कहा – ब्याहता ! एक तो भच्छ लिहिन अब दूसरे के घर आई हैं, सत्ती छीत्ता बनै खातिर – धन भाग – परनाम – पाँ लागी’।(वही, पृ- २०७) यह एक खालिस पुरुष की प्रतिक्रिया है। श्रेष्ठता की ग्रंथि से भरे हुए, पूरे दंभ के साथ। ‘मेरी बिल्ली मुझे ही म्याऊं’ वाला यह पुरुष का पेटेंट एटीट्यूड है। उसके लिए तो स्त्री अर्द्धांगिनी या सहधर्मिणी सिर्फ कहने के लिए होती आई है, असल में वह आश्रिता होती है, पुरुष की अहसानमंद होती है।
ऐसे पुरुषसत्तात्मक-समाज के भयानक माहौल में भी बिबिया आत्म-समर्पण नहीं करती। इसलिए नारी मूर्तियां गढ़ने में यकीन रखने वाले पुरुष-शासित समाज के लिए उसका चरित्र अंत तक अबूझ ही बना रहता है और इसलिए बिबिया के चरित्र में मौजूद आत्म-सम्मान की भावना ‘दोष’ की हद तक का प्रतीत होता है। हर सामाजिक-सम्मान की शुरुआत आत्म-सम्मान की भावना से ही होती है। स्त्री चेतना, दलित चेतना, आदिवासी चेतना या फिर वर्ग चेतना हो, सभी का प्राथमिक लक्ष्य आत्म-सम्मान के साथ जीने की बुनियादी अधिकार को प्राप्त करना ही होता है। आत्म-सम्मान की भावना ही, क्रमशः सामाजिक-सम्मान की भावना में परिवर्तित होकर किसी भी तरह की मुक्ति के संघर्ष का रास्ता प्रशस्त करता है एवं संघर्ष को तीखा बनाता है। बिबिया को जब रमई द्वारा अपने आपको जुए की दांव पर रखे जाने के प्रस्ताव का पता चलता है, तब वह अपने आपे से बाहर हो जाती है। रमई के सारे मित्र जवान बिबिया को पाने की ख्वाहिश रखते हैं। इसी कारण रमई का एक मित्र करीम मियां रमई को बिबिया को ही दांव पर रखने का प्रस्ताव देता है। उसी करीम मियां को अपने दरवाजे पर देखकर बिबिया का आत्म-सम्मान, ‘शेरनी की हुँकार’ में बदल जाता है। ‘भीतर से तरकारी काटने का बड़ा चाकू निकालकर और भौंहें टेढ़ी कर उसने उन्हें बता दिया कि रमई के ऐसी हरकत पर वह उन दोनों के पेट में यही चाकू भोंक देगी। फिर चाहे उसे कितना ही कठोर दंड क्यों न मिले; पर वह ऐसा करेगी अवश्य। वह ऐसी गाय-बछिया नहीं है, जिसे चाहे किसी के हाथ बेच दिया जावे, चाहे बैतरणी पार उतरने के लिए महाब्राह्मण को दान कर दिया जावे’।(वही-पृ.-२०८)
यह एक दृढ़-प्रतिज्ञ-चेतित स्त्री है, जो अब तक चले आये पुरुषवादी रीति-नीति को बिना विचारे मानने के लिए तैयार या बाध्य नहीं है। इसके लिए वह सजा भुगतने से भी नहीं डरती। वैसे भी उसके जैसे स्त्रियों का जीवन समाज के अंदर के निष्क्रिय प्रतीत होते घरेलू हिंसा को तो झेल ही रहा होता है। इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि लगभग इसी आस – पास लिखे गए ‘गोदान’ उपन्यास का पात्र होरी पुरुषवादी समाज की मर्यादाओं में बंधे होने के कारण ‘बैतरणी’ पार उतरने के लिए ब्राह्मण को गऊ-दान करना आवश्यक मानता है और महादेवी वर्मा की बिबिया इस अवधारणा (कांसेप्ट) का सजा पाने की कीमत पर भी सचेत विरोध करती है। वह उस ब्राह्मणवाद को थोथा साबित करती है, जिसने इन पम्पराओं को पुष्पित-पल्लवित किया। यही उसका त्रिया चरित्र है कि युधिष्ठिर द्वारा द्रोपदी को दाँव पर रखे जाने वाले मिथक का भी वह अप्रत्यक्ष रूप से विरोध करती है। वह पुराण–पंथी लोक की सोच का निडर होकर प्रतिवाद करती है। वह यह भी जानती है कि पुरुषतान्त्रिक समाज में स्त्री की स्थिति किसी गाय-बछिया से ज्यादा नहीं है। पुरुष-समाज ने स्त्रियों को तिल-तिल करके इसी रूप में गढ़ा भी है परन्तु बिबिया का आत्म-सम्मान इस ‘पेट्रीआर्कल हिजेमनी’ का विरोध करने के लिए प्रेरित करता है, जो उसे बाकी स्त्रियों के आत्म-सम्मान से भी जोड़ता है।
इसी प्रसंग नें देखा जा सकता है कि रमई का ‘दुःख’ बिबिया के दुःख से अलग है। रमई का ‘आत्म-सम्मान’ भी बिबिया के आत्म-सम्मान से न सिर्फ अलग है बल्कि विरोधी भी है। रमई के आस-पास का पूरा पुरुष समाज आत्म-सम्मान के खातिर चाकू दिखाने वाली बिबिया के खिलाफ खड़ा हो जाता है।
लखना अहीर कहता है –‘कलयुग का आगमन लगता है’।(वही, पृ.-२०९) महंगू काछी कहता है –‘सीता को निकाल दिया फिर भी कुछ नहीं बोली, बच्चों को लेकर जंगल में पड़ी रहीं’।(वही) खिलावन तेली कहता है -‘तभी तो वह सती हुई, धरती फट गई, ये लोग क्या खाके सती होंगी’।(वही) यह सब सुनकर ‘रमई बेचारा कुछ बोल ही न सका। उसकी पत्नी की गणना सतियों में नहीं हो सकती, यह क्या कम लज्जा की बात थी’।(वही) ध्यान दीजिए रमई उसी धोबी जाति का है जिसे सीता को वनवास दिए जाने का दायी मान कर, रामायण-काल से हिंदू समाज में बदनाम किया गया है। रमई अपनी ही जाति को बदनाम किये जाने वाले मिथ के पक्ष में खड़ा है तो बिबिया अपने स्त्री होने के सम्मान के साथ उसके विपक्ष में सचेत रूप से प्रतिवाद की मुद्रा में खड़ी है। वह सिर्फ रमई को चाकू नहीं दिखाती बल्कि वह उन सरे मनगढ़ंत पुरुषवादी, ब्राह्मणवादी अन्यायपूर्ण परम्पराओं के झालों को भी चाकू दिखाती है, जिन्हें एक स्वस्थ और लोकतान्त्रिक समाज बनाने के लिए काटकर फेंक देना ही उचित प्रतीत होता है। इस तरह कई बार पुरुष अनजाने ही अपने मिथ्या अभिमान के कारण अपनी ही जाति एवं वर्गगत अस्मिता के खिलाफ खड़ा हो जाता है और एक सजग स्त्री निडरता-पूर्वक अपने इसी पहचान की रक्षा करती हुई समाज को लोकतान्त्रिक बनाने के प्रक्रिया में भी योगदान देती है। अपने वंश-खूट में बची यह वही स्त्री है जिसकी तलाश रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ अपनी एक कविता ‘धोबन का पत्ता’ शीर्षक कविता में करते हैं –
“पहले सीता जी गयीं धाम पर,
धरती में समाहित होकर नीचे से,
पीछे राम गए, लक्ष्मण को साथ लिए ऊपर से.
गए तो भले गए, बाल बच्चे छोड़ गए,
लेकिन उस धोबन का पता नहीं चलता,
जिसके कारण सारा काण्ड हुआ था।
धोबी ने धोबन को रक्खा कि छोड़ा,
पंचायत ने दण्ड ठोंका, कि माफ़ किया,
क्या कोई होगा बचा, उसके भी वंश खूंट में।” (रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’, नयी खेती, संस्कृतक संकुल, जन संस्कृति मंच, इलाहबाद, संस्करण-२०११, पृ-३७)

अब ऐसी बिबिया का निर्वाह रमई जैसे किसी पुरुष के घर में कैसे हो सकता था। स्त्री चले आ रहे परम्पराओं का प्रतिकार करे, अपने सहज विवेक से फैसला ले, यह पुरुषतान्त्रिक-समाज को कहाँ मंजूर होता है। इसलिए ‘सर्वसम्मत’ तरीके से पञ्च-परमेश्वर बिबिया को रमई का घर और गाँव छोड़ने का फैसला सुनाते हैं। अंततः बिबिया को रमई का घर छोड़ना पड़ता है क्योंकि पितृसत्तात्मक-समाज-व्यवस्था ऐसी स्त्री को पचाने की सामर्थ्य नहीं रखता। ऐसी स्त्री पुरुषसत्तात्मक-समाज को भयभीत करती है। तभी तो “पञ्च-परमेश्वर भी उसी के पक्ष में हो गए, क्योंकि वे सभी रमई के समानधर्मी थे। ‘यदि उनके घर में ऐसी विकट स्त्री होती, जिसके सामने न वे शराब पीकर जा सकते थे; न जुआ खेलकर,तो उन्हें भी यही करना पड़ता’।( महादेवी समग्र, भाग-२, पृ.-२०९) असल में पुरुष समाज अपनी आंतरिक दुर्बलता को छिपाने के लिए अक्सर ही स्त्रियों को इस तरह का निर्वासन देता रहा है एवं स्त्री के चरित्र को ‘त्रिया चरित्र’ की एक रहस्यमय अवधारणा में ढालता रहा है। बिबिया जैसी स्त्रियां तमाम उम्र इस ‘त्रिया-चरित्र’ की अवधारणा में ही जीती-मरती हैं। बिबिया को रमई के घर और गाँव से निकाल दिए जाने पर पूरा पुरुष-समाज सहज रूप से एकमत है कि ‘ऐसी सुन्दर और मेहनती स्त्री को छोड़ना सहज नहीं है, इसी से सबने अनुमान लगा लिया कि उसमें गुणों से भारी कोई दोष होगा’।(वही पृष्ठ-२०९)
बिबिया सिर्फ चाकू दिखाकर विरोध करने वाली किसी और ग्रह से आई प्रतीत होने वाली स्त्री मात्र नहीं है। जब वह इस पुरुष-सत्तात्मक-समाज में जन्मी है तो उसमें भी अन्य ‘नारी सुलभ चारित्रिक विशेषताएं’ क्योंकर नहीं होंगी। इस बात को मैंने पहले भी जोर देकर कहा है कि बिबिया का सारा संघर्ष पितृसत्तात्मक-समाज-व्यवस्था द्वारा मुहैया कराये गए छोटे से ‘स्पेस’ में ही घटित होता है। इसी ‘स्पेस’ की रक्षा की खातिर वह रमई का चाकू दिखाकर विरोध करती है तो विधुर अधेड़ और पाँच बच्चों के बाप झनकू के साथ अपनी तीसरी शादी का विरोध रोकर, अनशन करके जताती है। जिसका उसे कोई विशेष लाभ नहीं होता और उसे झनकू के साथ विवाह करना ही पड़ता है। फिर से वह इसी प्राप्त स्पेस में ही अपने आत्म-सम्मान को पाने और बनाये रखने की जद्दोजहद में जीने का प्रयास करने लगती है। धीरे-धीरे बिबिया का व्यवहार झनकू के प्रति श्रद्धापूर्ण हो जाता है। वह उसका सम्मान करने लगती है। उसके जीवन में झनकू पहला पुरुष था जो उसे डाँटता-फटकारता या तिरष्कृत नहीं करता था। ऐसा भी नहीं था कि झनकू उससे बहुत प्रेम करता था या उसका बहुत ख्याल रखता था। बिबिया के लिए इतना ही काफी था कि झनकू की वजह से उसे सामाजिक सम्मान प्राप्त हुआ था। वह ससम्मान एक पत्नी और माँ के रूप में समाज में मान्यता पा रही थी, अपने प्राप्त-स्पेस में इससे ज्यादा की उसे शायद ख्वाहिश भी नहीं थी।
झनकू अपनी प्रेमिका के साथ खुश था और बिबिया घर सँभालने एवं बच्चों की देख-रेख करने में ही खुश रहने लगी थी। न बिबिया ने ही झनकू को किसी बात के लिए रोका-टोका और न ही झनकू ने कभी बिबिया की सुध ली। ‘बिबिया पति के उदासीन आदर भाव से प्रसन्न थी या अप्रसन्न यह कभी कोई न जान सका, क्योंकि उसने घर और बच्चों में तन-मन से रमकर अन्य किसी भाव के आने का मार्ग ही बंद कर दिया’।(वही, पृ.-२११) बिबिया का जीवन दाम्पत्य-प्रेम के अभाव में रिक्त ही बना रहा। उसकी शारीरिक जरूरतों से उसके किसी पति का कोई सरोकार नहीं था और विडम्बना यह कि दूसरी तरफ वह लगातार समाज में चरित्रहीन साबित की जाती रही। वैसे भी ‘सेक्स’ के सवाल पर पुरुष अपना एकाधिकार समझता है। आदर्श पितृसत्तात्मक–व्यवस्था में सेक्स के सवाल पर स्त्रियों के मंतव्य और चाह को महत्वहीन ही माना जाता है। इसलिए कई बार इस एकाधिकार का उपयोग कर, पुरुष किसी भी तरह से अपनी शारीरिक क्षुधा मिटाने को तत्पर दीखता है। ननिहाल से लौटा झनकू का बड़ा बेटा भीखन जो बिबिया का ही हमउम्र था; लगातार बिबिया को शारीरिक-सबंध बनाने के लिए रिझाने का प्रयास करता है। भीखन के सारे दाँव-पेंच और इरादों को समझने के बावजूद बिबिया चुप रहती है लेकिन जब बात हद से आगे बढ़ती प्रतीत होती है तो बिबिया का आत्म-सम्मान एक बार फिर से ‘शेरनी की हुँकार’ में बदल जाता है। ‘एक दिन रोटी खाते समय उसकी सरसता इस सीमा तक पहुँच गई कि विमाता जलती लुआठी चूल्हे से खींचकर बोली- हम तोहर बाप का मेहरारू अही। अब भाखा-कुभाखा सुनब तो तोहर पीठिया के चमड़ी न बची’।(वही, पृ.-२१४) विडम्बना देखिये कि ‘विमाता के इस अभूतपूर्व व्यवहार से पुत्र लज्जित ना होकर क्रुद्ध हो उठा। इस प्रकार के पुरुषों को अपनी नारी मोहिनी विद्या का बड़ा गर्व रहता है। किसी पर उस विद्या का प्रभाव ना देखकर उनके दंभ को ऐसा आघात पहुँचता है कि वे कठोर प्रतिशोध लेने में भी नहीं हिचकते’।(वही, पृ.-२१४) आघात पाया हुआ भीखन प्रमाद-प्रचार का सहारा लेता है। वैसे भी उसी की बात अधिक सुनी-मानी जाती है जिसका प्रचार तंत्र पर कब्ज़ा होता है। प्रचार तंत्र विचारों के प्रसार एवं अवधारणाओं (कांसेप्ट) के निर्माण में महती भूमिका निभाते हैं। आज भी इसे साफ़ तौर पर हम देखते-महसूसते हैं। प्रचार-तंत्र पर हमेशा प्रभुत्वशाली लोगों का कब्ज़ा होता है, जो उनकी हिजेमनी को बनाये रखने में सर्वाधिक योगदान देता है। ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, पर सभी आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होते हैं’ टाइप मनगढ़ंत परन्तु स्थापित अवधारणा हमें प्रचार-तंत्र की शक्ति का अहसास दिलाती हैं। सच्चाई जबकि इसके बिलकुल उलट है। वैकल्पिक मिडिया से हमें पता चलता है कि मक्का मस्जिद, अजमेर शरीफ, समझौता एक्सप्रेस, मालेगाँव में हुए विस्फोट में शामिल एक भी इंसान मुसलमान नहीं था। इसमें सभी शामिल लोग हिंदू थे, जो कि प्रमाणित भी हो चुका है परन्तु यह बात अब भी बहुत कम लोगों को पता है। इसलिए आजमगढ़ अब भी हमें आतंकगढ़ ही लगता है। असल में मैं यह कहना चाहता हूँ कि पुरुषों ने हर युग में प्रचार-तंत्र का बखूबी इस्तेमाल स्त्रियों के खिलाफ किया है। जब आज की तरह मीडिया प्रचार-तंत्र की साधन नहीं थी तब भी ‘समाज की मीडिया’ पर पुरुषों का ही आधिपत्य था। स्त्रियों की दुनिया हमेशा घर के भीतर या पास-पड़ोस की स्त्रियों तक ही सीमित होती थी। घर के बाहर, कार्य-स्थलों पर, दारू-जुए के अड्डों पर, गाँव के चौपालों पर, हाट-बाजारों में हर जगह पुरुषों का ही बोलबाला था। यह सभी जगह उस समय के मीडिया का काम करते थे, यहीं से स्त्री विरोधी विचारों और अवाधारणाओं को मनमुआफिक निर्मित-विकसित एवं प्रचारित-प्रसारित किया जाता था। आज भी इस तरह के प्रचार-तंत्र का समाज पर असर कम नहीं है। बहरहाल, तो भीखन भी बिबिया से आघात पाकर उसे दुष्प्रचारित और चरित्रहीन साबित करने के लिए इसी प्रचार-तंत्र का सहारा लेता है। उसने अप्रत्यक्ष रूप से हर जगह यह बात पहुंचाई कि उसका, उसकी विमाता के साथ कुछ ज्यादा ही नजदीकी का सम्बन्ध है। धीरे-धीरे बाकि लोगों ने भी बिबिया के त्रिया-चरित्र को खाँचाबद्ध करना शुरू किया। ‘घाट पर झनकू की श्रवण सीमा में बैठकर धोबी अपने आपको त्रिया-चरित्र का ज्ञाता प्रमाणित करने लगे’।(वही, पृ.-२१५) ‘झनकू यदि चाहता तो पत्नी से उत्तर मांग सकता था; पर उसके (बिबिया के) दोष इतने स्पष्ट दिखाई देने लगे कि उसने इस शिष्टाचार की आवश्यकता ही नहीं समझी’।(प्रचार-तंत्र की शक्ति) (वही,पृ-२१५) त्रिया-चरित्र का ज्ञाता समझे जाने वाले पुरुष की भाषा में वह सोचता है ‘बिबिया ने एक बार भी गहने-कपड़े के लिए हठ नहीं किया; वह एक दिन भी पति के स्नेहपात्री को द्वंद्व-युद्ध के लिए ललकारने नहीं गयी और वह कभी पति की उदासीनता (विशेष रूप से शारीरिक) का विरोध करने के लिए कोप भवन में नहीं बैठी। इन त्रुटियों से प्रमाणित हो जाता था कि वह पति में अनुराग नहीं रखती और जो अनुरक्त नहीं है, उसके किसी दूसरे ओर अनुरक्त होने को लोग अनिवार्य समझ बैठते हैं’।(वही,पृ-२१५) अब ‘इस तर्क क्रम से जो दोषी प्रमाणित हो चुका हो, उसे सफाई देने का अवसर देना पुरस्कृत करना है। उसके लिए सबसे उत्तम चेतावनी दण्ड-प्रयोग ही हो सकता है’।(वही,पृ-२१५)
पहली बार उस रात को बिबिया पीटी गयी। झनकू अपने इस ‘आत्म-सम्मान’ के हनन के लिए, अपने ‘सामाजिक अपमान’ के लिए बिबिया को बेतरह पीटता है, लात, घूसा, थप्पड़, लाठी का सुविधानुसार प्रयोग किया। ‘इच्छा होने पर बिबिया लात-घूँसे का उत्तर बेलन-चिमटे से देने का सामर्थ्य रखती थी; पर वह झनकू का इतना आदर करने लगी थी कि उसका हाथ ना उठा सका’।(वही) पुरुष यह कभी नहीं समझ पाया या समझना ही नहीं चाहता कि बिना प्रतिदान की उम्मीद किये कोई स्त्री कैसे इतना उदार हो सकती है, कि थोड़े से सम्मान से ही कैसे किसी की आँखें खुशियों के प्रकाश से भर सकती हैं। बिबिया ने अपने पाए हुए स्पेस में झनकू से पत्नी होने का/ ब्याहता होने का सम्मान पाया था। यह उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इसलिए झनकू के उसके स्नेहपात्री में मग्न रहने पर भी, बिबिया उसे शक की नहीं श्रद्धा भारी निगाहों से देखती थी। इसलिए महज अपने आत्म-सम्मान की खातिर वह झनकू की पिटाई का मुकम्मल जवाब दे ही सकती थी। ऐसा उसने दूसरे पुरुषों के साथ किया भी था। परन्तु झनकू के प्रति वह अपने आपको कृतज्ञ मानती थी इसलिए वह पिटती हुई हुई भी न रोती-चिल्लाती है और न क्षमा माँगती है और न ही अपना दोष स्वीकार करती है। इस बार वह अपने आत्म-सम्मान की रक्षा सत्याग्रह के माध्यम से करती है।
अंततः पञ्च-देवता बिबिया को झनकू का घर और गाँव से निर्वासित करने का फैसला लेते हैं। पुरुषों के आधिपत्य के अधीन पञ्च भीखन की गवाही और भीखन के मामा-नाना के पैसों की मदद से बिबिया को चरित्रहीन और कर्तव्यच्युत करार देते हैं। ‘पञ्च देवताओं’ के चले जाने के बावजूद आज भी हमारे न्यायपालिका पर पुरुष और पैसे का आधिपत्य बना हुआ है, यह कौन नहीं जानता। कैसी विचित्र-विडम्बना है कि महीनों तक ‘झनकू को पति का कर्तव्य सिखाने के लिए कभी एक पञ्च-देवता भी आविर्भूत नहीं हुए; पर बिबिया को कर्तव्यच्युत होने का दण्ड देने के लिए उनकी पंचायत बैठी’।(वही, पृ.-२१६) गवाही भी उस भीखन की मानी गई जो स्वयं चरित्रहीन है, और उसके चरित्र के इस पक्ष से पञ्च हो या गांववाले सभी परिचित हैं। पुरुष समाज अपनी आंतरिक दुर्बलता को छिपाने और अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए हमेशा स्त्रियों को कठघरे में खड़ा करता और दोषी प्रमाणित करता रहा है। महादेवी ने सही लिखा कि “दूसरे की दुर्बलता के प्रति मनुष्य का ऐसा स्वाभाविक आकर्षण है कि वह सच्चरित्र की त्रुटियों के लिए दुश्चरित्र को प्रमाण मान लेता है।”(वही,पृ.-२१६) दोषी ही जहाँ न्यायधीश हो, माँसाहारी ही माँस की रखवाली के लिए नियुक्त हो, वहाँ उम्मीद भी क्या की जा सकती है। समाज से बर्खास्त करने का फैसला बिबिया की गैर-मौजूदगी में ही होता है, उसे पंचायत तक में नहीं बुलाया जाता। यह भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की आंतरिक कमजोरी को ही दिखाता है। यह कैसी व्यवस्था है जो एक स्वाधीन–चेता स्त्री मात्र की उपस्थिति से घबराता है, भय पाता है। महादेवी जैसे बिबिया के बिना दोष के दण्ड पाने से उससे एकाकार होती हुई लिखती हैं- “वह अपने अभियोग की सफाई देने के लिए नहीं पहुँच सकी। पहुँचने पर उस क्रुद्ध सिंहनी से पञ्च-देवताओं को कैसा पूजापा प्राप्त होता, इसका अनुमान सहज है।”(वही,पृ.-२१६)
बिबिया पितृसत्तात्मक-समाज द्वारा एक स्त्री को दिए गए स्पेस में ही अपने आपको एक औरत के रूप में देखना चाहती है। देह मात्र से मुक्त होकर व्यक्ति रूप को पाना चाहती है। उपयोग-उपभोग से मुक्त होकर सहभागी की भूमिका में आना चाहती है परन्तु उसे कहीं आश्रय नहीं मिलता। अपराजिता बिबिया भी संघर्ष करते-करते अंततः थक जाती है। हर तरफ उसे अपने इर्द-गिर्द इतने जकड़नों का अहसास होता है कि जितना उन जकड़नों को काटती है, उतना ही और उलझती जाती है। अंततः वह ‘कगार तोड़ती भदही यमुना में अंतर्धान हो जाती है।
असल में, अपने छोटे से जीवन के भयावह संघर्षों के बीच वह स्त्री-विमर्श (या दलित स्त्री-विमर्श) की मशाल थामे आज भी ‘कगार तोड़ती भदही यमुना’ के सम्मुख खड़ी प्रतीत होती है। वह यमुना में डूब कर मरी नहीं है, जैसा कि उसके गाँव के लोगों को लगता है। असल में वह किंचित विश्राम करने के लिए इस पुरुषसत्तात्मक-समाज से दूर कहीं चली गयी है, वह हम-सफर की तलाश में गयी है ताकि भाद्र मास की अँधेरी रात की इस विकट यमुना रूपी लिंग-दंश को खत्म किया जा सके, उस पार जाया जा सके। इसलिए तो वह महादेवी के पन्नों से निकल कर हमारे सम्मुख आ खड़ी हुई है, अब तक लगभग अनुत्तरित इस सवाल का स्पष्ट जवाब पाने के लिए कि- “बिबिया (एवं उस जैसी अन्य स्त्रियाँ) क्या वास्तव में चरित्रहीन है? यदि नहीं तो वह किसी के घर में आदर का स्थान क्यों नहीं बना पाती? …कौन सा दोष है, जिसके कारण इसे कहीं हाथभर जगह तक नहीं मिलती?” (वही, पृ-२१०)

One Reply to “बिबिया – एक अन्तःपाठ”

  1. यथार्थ के बहुत ही नजदीक है आपका यह लेख. हमारे समाज में ना जाने कितनी बिबिया हैं जो इस तरह की पीड़ा से आहात हैं और अक्सर हर बिबिया भादही यमुना में छलांग लगाती रहती हैं. पर उनकी पीड़ा को समझने के लिए कोई आगे नहीं आना चाहता क्योंकि हर तरह बहुत सारे झनकू उसे बिना उसका दोष जाने दंड देने के लिए खड़े मिलते हैं. आपका बहुत ही अच्छा प्रयास है स्त्रीयों के आत्मसम्मान की रक्षा से लोगों को अवगत कराने की, बधाई!

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