साहित्य और प्रचार – श्रीपाद अमृत डांगे

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अन्ना भाऊ साठे के कुछ लावणियों और पोवाड़ों का संग्रह प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है । अन्नाद भाऊ साठे ने ईच्छा व्यक्ता की कि इस संग्रह की प्रस्तावना मैं लिखूँ ।
अन्ना भाऊ और उनके साथी अमर शेख, गव्हाणकर व अन्य साथियों की काव्यकृतियाँ, पोवाडे, लावण्या, गीत एवं उनके तमाशे व नाटक पिछले पाँच-छः वर्षों से महाराष्ट्र की जनता के सामने हैं । उनके तमाशों पर सरकार ने कड़ी नज़र रखी गई और उन्हें बन्द करवाया गया । इतना ही नहीं, जब उनका मंड़ली वर्हाड में तमाशा करने गया तब बिना जाँच-पड़ताल के उन्हें गिरफ्तार कर कई महिनों तक जेल में बन्द रखा गया । आगे के कुछ दिन अन्नाभाऊ को भूमिगत होना पड़ा । उनके साथी अमर शेख और गव्हाणकर नासिक जेल की लाठीमार-गोलिबारी से मुकाला करते हुए बाहर आए । इस परम्परा के लेखकवर्ग से अन्नाभाऊ आते हैं । कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में उनके पोवडे-लावनियों की चर्चा महाराष्ट्र में हो रही है ।
कम्युनिस्ट लेखकों के साहित्यिक लेखन को महाराष्ट्र के स्थापित लेखक वर्ग में अभी तक सम्मानीय स्थान प्रदान नहीं किया गया है । उनका आरोप है कि हमारा काव्यलेखन ‘प्रचारकी’ होता है, अर्थात वह ‘शद्ध काव्य’ नहीं होता है । उसमें आम तौर पर ‘वर्गीय दृष्टि’ ही होती है, यह उनका दूसरा आरोप है । और उसमें कलात्मकता होती ही नहीं है, जो परम्परागत कलात्मकता है उसको तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता है – तीसरा आरोप । आरोपों की फेहरिस्त और भी लम्बी है, लेकिन यहाँ की जगह व्यर्थ नहीं करना चाहता ।
हाँ, यह सच है कि हमारे लेखकों की कृतियाँ प्रचारात्मक हैं और उसमें वर्गीय दृष्टियकोण मौजूद है । और अगर यह ‘आरोप’ है तो हम ‘गुनहगार’ हैं । लेकिन किसकी नज़र में गुनहगार ? किसका गुनाह किया है हमने ?
अन्नाभाऊ की कविता, उनकी लावनियाँ और पोवाड़े सुननेवाला बहुसंख्य श्रोतावर्ग किसान-मज़दूर वर्ग का होता है । उनकी कविता से वे आनन्दित होते हैं, उन्हें स्फूर्ति आती है, जीवन में आशा दिखाई देती है और इसी कारण हमारे मंडलियाँ बाहर निकलते ही कांग्रेस सरकार ने उन्हें प्रतिबन्धित कर दिया । फिर तुरन्त उन्हीं कांग्रेस नेताओं ने सरकारी ख़जानों से व पूँजीपतियों से लाखो रूपये ऐंठकर अपने ‘भाड़े के टट्टु फड़’ खड़े करना शुरु कर दिया । इसका अर्थ यही है कि कम्युनिस्ट कलाकारों के पोवाड़े, लावण्या आदि मज़दूर-किसान वर्ग को पसन्द आ रहे हैं । उनके व्यावहारिक जीवन व आचरण पर इनका परिणाम हो रहा है और जनमन की पकड़ हासिल करने का प्रयास करने वाली प्रतिगामी शक्तियाँ हमारे साहित्य मार्ग से ही डावाँ-डोल होने लगी हैं । हमारे साहित्य पर एक तरफ से पोलिसों द्वारा आक्रमण किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ से तथाकथित ‘साहित्यिक-आलोचक’ केवल कलात्मक चर्चा का भावोद्रक कर सूक्ष्म और मानसिक हमले कर रहे हैं । उन्हीं की तरफ से उपरोल्लेखित ‘आरोप’ आते हैं ।
इनके क्या उत्तर हैं ?
पहले यह कह देना आवश्यक है कि आरोप करनेवाले सभी हमारे विरोधक या शत्रू नहीं हैं । इसके विपरित जब सरकार ने प्रतिबंध लगाए थे, इस प्रतिबंध की आलोचना करते हुए हमारे तमाशों-पोवाड़ों को स्वतंत्रता होनी चाहिए की माँग के साथ कई साहित्यकार हमारे साथ शामिल हुए थे । उनमें भी इन तीन कम्युनिस्ट कलाकारों पर आरोप करनेवाले मिल जाएँगे । इन्हें क्या उत्तर दें ?
आरोपों के उत्तर सरल और सीधे-साधे हैं । हमारे कलाकार जनता में रहते हैं, जनता में घुलते-मिलते हैं, उनसे समरस होते हैं, उनके जीवन संघर्ष में शामिल होते हैं । इसलिए उनके कला की आत्मा जनता से ईमानदार रहकर स्फूर्ति प्राप्त करती है । उनके लिए और उनके बारे में वे लिखते हैं ।
यह बहुसंख्य जनता कौन है ?
वह असंख्य मनुष्यों का रूपगुणविरहित मांसल गोला है या विशिष्टगुणसंपन्न सुबुद्ध वर्ग है ? हमारा कहना है कि ‘जनता’ मनुष्य का झुंड मात्र नहीं, बल्कि समाज में जीवन का जो प्रचंड व्यवहार चलता रहता है, उसकी नींव जो मज़दूर वर्ग है, किसान व मेहनतकश वर्ग, इन्हें मिलाकर आज की जनता बनती है । इसके अतिरिक्त जो है वे जनता के बाहर है । हमारे कलाकार इसी जनता के हैं । इसीलिए जो वे लिखते हैं इस वर्ग की दृष्टि से लिखते हैं ।
हमारे कलाकारों की कृतियाँ वर्गीय दृष्टि की होती हैं और उन्हें होना ही चाहिए ।
चूँकि यही वर्ग समाज-जीवन के आधार हैं । इनके श्रम को समाज भोगता है । खुद जीकर वे उन पर आधारित वर्गों को पालते-पोसते हैं । किन्तु अवलंबित पूँजीवाद-जमींनदार वर्ग उन्हें परिश्रम करवाकर, गरीब व दुखी रखकर अपनी वर्गसत्ता व समाजव्यवस्था कायम रखना चाहते हैं । लेकिन दिनोंदिन यह मुश्किल होता जा रहा है । पूराना सामंतवादी-पूँजीवादी आर्थिक सम्बन्धों पर आधारित समाज टूट रहा है और टूटना चाहिए ।
इसे करने से ही अपने दुख व दरिद्रता के पर्वत उखड़ जाएँगे ।
इस कार्य के लिए मज़दूर-किसान वर्ग को प्रेरित करने वाले, उनके सुख-दुख गानेवाले, उनका वीरत्व-शौर्य, जय-परायज का बखान करनेवाले काव्य का निर्माण करना हमारा स्पष्ट व खुला ध्येय है । ऐसा करना ‘गुनाह’ है तो आरोप कबूल !
इसलिए कम्युनिस्ट कलाकारों की कृतियाँ वर्गीय दृष्टिकोण को लिए व प्रचारकीय होती है, लेकिन यह गुनाह नहीं है ।
क्योंकि वर्गबद्ध साहित्य के समाज में आज तक जो-जो ख्यातिलब्ध कलाकृतियाँ हुई हैं, वह सारी प्रचारकीय ही थीं । श्रेष्ठ कला प्रचारकीय होती ही है और बेहतर प्रचार कलात्मक बन जाता है । श्रेष्ठ कला का विषय मनुष्य होने के कारण और मनुष्य का जीवन व भावनाएँ-संवेदनाएँ वर्गबद्ध समाज में वर्गीय गुणों से घिरे होने के कारण कला में वर्गीय रूप आ ही जाता है । परन्तु इन मुद्दों पर विचारपूर्ण चर्चा इस छोटी-सी प्रस्तावना में संभव नहीं है ।
मराठी साहित्य की ही बात की जाए तो, विचार कीजिए कि महानुभावों का गद्य क्यों गुम कर दिया गया ? उनकी सुंदर काव्यकृति, प्राचीन मराठी भाषा का आद्य ग्रंथ ‘रुक्मिणी स्वयंवर’ आदि किसने और क्यों लुप्तं करवाए ? पूछकर देखिए कि ‘ज्ञानेश्वरी’कार पर इतने जुल्म क्यों ढाए हैं, तुकाराम गाथा क्यों और किसने डूबा दी ? फिर भी जनता ने उन्हें क्यों नहीं भूली ? और किसने कहा कि इन काव्यों में कलात्मकता नहीं है, प्रचार नहीं है या वर्गदृष्टि नहीं है ?
अन्नाभाऊ के काव्य में मज़दूर-किसान वर्ग की दृष्टि है । उनके संघर्ष, उनके सुख-दुख हैं । ‘मुंबईचा गिरणी कामगार’ (मुम्बई का मिल मज़दूर), ‘तेलंगणचा शेतकरी’ (तेलंगाना का किसान) आदि पोवाड़ों में तो यह दृष्टि स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई है ।
सिर्फ उनकी वर्णनात्मक लावनियों लावनियाँ ली जाए, उसमें भी वर्गदृष्टि को देखा जा सकता है, जनता दिखती है, छटपटाहट दिखती है, ईमानदारी दिखती है । मुझ लगता है उनकी ‘मुंबईची लावणी’ बेजोड़ कृति है । मुंबई के कई वर्णन किए गए हैं, किन्तु इतना सुंदर व भावपूर्ण वर्णन दूसरा नहीं है । लेकिन इस प्रकार की मुबई कौन देख पाएगा ? उसकी बूराईयाँ देख कर भी उसमें से मार्ग निकालकर दिखानेवाला सुर कौन निकाल पाएगा ? मज़दूर वर्ग का कवि ही यह कर सकता है ।
मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि लावणी और बेहतर हो नहीं सकती है । मुद्दा यह है कि ऐसी वस्तु-रूप गुणों की कला कौन साध सकता है ?
कुछ आलोचकों का यह आरोप है कि वर्ग व प्रचार पर नज़र रखनेवाले कम्युनिस्ट कवियों को और कुछ दिखाई देता ही नहीं । उन्हें भाषा एवं राष्ट्र का अभिमान और कर्तत्व दिखाई नहीं देता ।
इस आरोप के जवाब में अन्ना भाऊ के ‘महाराष्ट्र की परम्परा’ पोवाड़े को देखा जा सकता है । महाराष्ट्र पर अनेक कवियों ने काव्य रचना की है । उन सबकी तुलना करना संभव नहीं है । किन्तु यह कहने की आवश्यकता नहीं कि रामदास का ‘आनंदवन भुवन’, टेकाडे का ‘महाराष्ट्र’, गडकरी का ‘कृष्णातीरी कुंडल’ या माधव ज्युलियन, विनायक, टिळक व अन्य प्रसिद्ध कवियों की कृतियों में महाराष्ट्र और मराठी के जो दर्शन होते हैं, उसमें जो भावनाएँ स्फूर्त होती हैं, उनमें जो कल्पनाओं व भाषा का विलास दृष्टिगोचर होता है, उससे भिन्न एवं वैशिष्यपूर्ण दर्शन अन्ना भाऊ के ‘महाराष्ट्र’ में होता है । स्पष्टिकरणार्थ पंक्तियाँ उद्धृत कर जगह नहीं भरना चाहता ।
हमारे कवियों को अपने वर्ग का अभिमान है, मराठी भाषा का अभिमान है, महाराष्ट्र का अभिमान है साथ ही हिन्दुस्तान का भी है । अन्ना भाऊ की कविता में यह बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देता है ।
किन्तु हमारे राष्ट्र और वर्गाभिमान के साथ अन्तरराष्ट्रीय अभिमान की भी दृष्टि होती है । हमारे कवि पहचान सकते हैं कि देश के बाहर हमारे साथी कौन हैं और दुश्मन कौन । इतना ही नहीं, उस पर गीत भी लिख सकते हैं ।
आज की दलित जनता अन्तरराष्ट्रीय है; मज़दूर वर्ग की विचारधारा अन्तरराष्ट्रीयत्व में अपने साथी ढूँढ़ती है । और हमारे कवि उनके गीत गाते हैं – कम्यूनिस्ट कवियों का यह वैशिष्ट्य अन्यत्र नहीं मिलेगा ।
तुर्की कवि नाझीम हिकमत जेलबन्द होने पर अपनी कविताओं में हिन्दुस्तानी मज़दूरों को याद करता है । चिली कवि पाब्लो नेरुदा स्तालिनगार्ड के युद्ध पर लिखता है, तुर्सुन जाद हिन्दुस्तान के अस्पृश्य मज़दूरों पर काव्य लिखता है । मज़दूर वर्ग की विचारधारा से, मार्क्सवादी दृष्टि से विश्व की तरफ देखनेवाले रचनाकार ही ऐसी विश्वव्यापी मानताग्राही दृष्टि से प्रगतिशील रचनाएँ कर सकते हैं । dange१
अन्ना भाऊ के पोवाड़ों में इसलिए स्तालिनग्राड, बर्लिन का पतन वगैरा विषय नहीं आते हैं कि मास्को से वैसा ‘आदेश आया’ था, बल्कि इसलिए कि उन घटनाओं ने सचमुच जनता और कवि को भीतर तक हिला दिया । उन घटनाओं से उसे आत्मीयता महसूस हुई । यह सही है कि मराठी भाषा, महाराष्ट्र देश, अपना मज़दूर वर्ग और स्तालिनग्राड इन सबकी गुणसंग्राहक आत्मीयता कम्युनिस्ट कवियों के कृतित्व में दिखने के कारण कई पाखण्डी राष्ट्राभिमानियों को पेटदर्द होने लगा है । उन्हें ईर्ष्या होती है कि विश्व का कोई भी नामचीन कवि डंकर्क या हिरोशिमा पर कविता नहीं लिख पाया, लेकिन स्तालिनग्राड को गाया गया । आज यही आलोचक चिड़कर कम्युनिस्ट साहित्य पर हमले कर रहे हैं । फिर भी यह निश्चित है कि इसी प्रगतिशील साहित्य से इस दिशा में शक्ति मिलेगी, क्योंकि इतिहास की गति उसी तरफ है ।
इतना होकर भी ऐसा नहीं है कि अन्ना भाऊ के काव्य में दोष नहीं है या उस पर टिका-टिप्पणी नहीं हो सकती ।
अन्ना भाऊ और उनके साथियों की कलाकृतियों से साहित्य में नए प्रश्न खड़े होते हैं । उदाहरणार्थ नए वर्ग, नया समाज, इतना ही नहीं नया निसर्ग, नए हथियार, उसके ईर्द-गिर्द की नई भावनाएँ इन सबकी रचना करते समय काव्य के साँचे (रूप) में क्या बदलाव हो सकते हैं ? पुराने साँचों का उपयोग करते समय नए विषयों से होनेवाली विसंगतियों से कैसे पीछा छुड़ाया जा सकता है ? इस नई वर्गदृष्टि युक्त कविता में नई भावनाओं का चित्रण जैसा होना चाहिए, वैसा हो रहा है क्या ? कुछ इस तरह के सवाल खड़े हो जाते हैं ।
‘महाराष्ट्र की परम्परा’ पोवाड़े के सन्दर्भ में यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि ब्रिटिश शासनकाल में हुए मराठों के पुराने साम्राज्यविरोधी आन्दोलनों, युद्धों को पैबन्द लगाकर पूरे करनेवाले वृतान्तों के परे क्या अगल वैशिष्ट्य है ? संत वागीश्वर, शिवाजी मावळे, आंग्रे मराठे हमारे पुराने काव्यों में आनेवाले एवं परिचित हैं । उमाजी नाईक व फडके भी पुरानी कविताओं में उपस्थित हैं ही । उनकी परम्पराओं को अपनाते हुए आपने क्या विशेष बात दिखाई है, यह सवाल किसी ने पूछ लिया तो ?
यहाँ स्वीकार करना पड़ेगा कि इतिहास की परम्परा बताते हुए अन्ना भाऊ ने केवल ‘परम्परागत’ इतिहास ही उठाया है । इतिहास की जनता और वर्ग का दर्शन उन्हें हुआ ही नहीं ।
जैसा कि, मराठी भाषा के विकास व सम्मान का संघर्ष यानी महाराष्ट्र के राष्ट्रीयत्व के एक मूल अंग का संघर्ष है । उसे ज्ञानेश्वर ने आरंभ नहीं किया, बल्कि वह उससे पहले का है । महानुभाव कवियों ने जो दलित जनता की लढ़ाईयाँ लड़ी और जिन लड़ाईयों ने मराठी भाषा को सत्ता में लाया , लगता है इसकी जानकारी अन्ना भाऊ को नहीं है । देवगिरी के तथा इससे पूर्व के यादव राज्य की घटनाओं में के वर्ग संघर्ष, उसी प्रकार मराठी जनता के गद्य-पद्यों की जमींदार-राज्य संस्कृति व संस्कृतज्ञों से हुए युद्धों को अभी तक हमारे इतिहासकारों ने उजागर नहीं किया है । इसलिए यह कमी उनकी कविताओं में दिखाई देती है । यह हमारे साहित्यकारों को स्पष्ट होना अभी बाकी है कि सामंतवादी इतिहास को केवल मज़दूरों के हड़तालों का पैबन्द लगाकर नई परम्परा नहीं बनती । संघर्षरत मज़दूर वर्ग का ऐतिहासिक परम्परा से मेल बिठाते हुए नए समाज की कला को इतिहास भी फिर से बताना पड़ेगा । इसीलिए इतिहास दृष्टि की संस्कृति के पोषक मार्क्सवादी दृष्टि से इतिहास का पुनर्पाठ करके ही महाराष्ट्र का यथार्थ दर्शन काव्य में हो सकता है । फिर से इस कार्य को करने का बीड़ा अन्ना भाऊ और उनके साथियों को उठाना होगा ।
कम्युनिस्ट साहित्यकारों के आगे दूसरा एक प्रश्न है – क्रान्तिकारी वर्ग के श्रम-संघर्ष के साधनों और भूमि को कला की परत से लगातार कैसे सजाया जाए ? उसकी काव्यमय आत्मा का अविष्कार कैसे किया जाए ? उसमें काव्यरस कैसे भरा जाए ? उदाहरणार्थ, मराठी काव्यांग पोवाड़ा लीजिए । इसे अधिकांश वीरों के आख्यान गाने के लिए उपयोग में लाया जाता है । इसका साँचा, इसके वर्णन, कल्पना, उपमा वगैरा, सामंतयुगीन हथियार, युद्धपद्धति, के साथ वर्गसम्बन्ध से उत्पन्न नई भावनाओं के अनुसार ही पोवाड़े की काव्यात्मकता को पोषित करते हैं । पुराने पोवाड़े अभी भी महाराष्ट्रवासीयों को हिला सकते हैं ।
पोवाड़ों की वही काव्यपद्धति यदि बर्लिन के युद्ध अथवा मुम्बई के मछुआरों के विद्रोह या हड़ताल के लिए उपयोग की जाए तो उसमें कौनसे मूलभूत बदलाव करने पड़ेंगे, इसका कला व तंत्र की दृष्टि से विचार होना चाहिए । उसी प्रकार नवीन वर्गों के जीवन के अनुरूप काव्यात्मा निर्माण करने की दृष्टि से गहराई से विचार होना चाहिए । सिंहगड़ के पोवाड़े में वीरश्रीयों का विशिष्ट पद्धति से वर्णन होता है । पोवाड़े का वीर क्रोध से लाल होता है । तलवार घुमाते हुए कूद पड़ता है, युद्ध का आवाहन आते ही रति से उठ, स्त्रियों का कत्ल कर फिर युद्धभूमि में उतर जाता है, आदि ।
किन्तु इधर का सेनापति क्रोध से लाल नहीं होता । तलवार घुमाने की उसे आवश्यकता नहीं होती है । खुद के स्त्रियों का कत्ल या जोहार तो दूर ही रहा ! फिर भी वह वीर होता है, युद्धकौशल जानता है । पुराने पोवाड़ों के तलवार, घोड़े, गोह, किले व इसके ईर्द-गिर्द परम्परा से जुड़ी भावनाएँ जैसी ‘सिंहगड़’ पढ़ते समय श्रोता को झकझोर देती है, वैसी ही आर्टिलरी, हवाई जहाज़, टँक व शहरी बँरिकेड इसका घेरा बनाकर अपनी भावनाओं को हिला देनेवाली काव्यशक्ति नए कलाकारों की होनी चाहिए । तभी पोवाड़ों का पुराना किन्तु स्फुर्तिदायक सुन्दर तंत्र नए वर्ग के संघर्ष को सजा पाएगा ।
अन्ना भाऊ के काव्य में इसकी समझ दिखाई देती है । किन्तु फिलहाल वह परिपूर्णता को नहीं पहुँच पाई है । मछुआरों (नाविकों) के विद्रोह का भाग लिखते समय मछुआरों की नौकाओं व युद्ध की तयारी का सुन्दर शब्दों में उन्होंने वर्णन किया है, लेकिन जब मज़दूर हड़ताल कर मछुआरों (नाविकों) की मदद के लिए जाते हैं उस वर्णन में पुरानी शैली और नए वर्ग का मेल उन्हें लगाने आया, यह मुझे लगता है । उदाहरणार्थ –
जागा फिर मज़दूर सुनकर वो हाँक
करने मछुआरे की मदद
हड़ताल का हथौड़ा हाथ में लेकर
काँपा वायुमंडल ऐसी हुँकार
मिलों-गिरणियों रोककर गया यंत्रों के पार
कारोबार किया बंजर नगर किया वीरान
मज़दूर आया रास्ते पर
गढ़ को खड़ा कर
मशीनगनवाला भरे दम
शिवाजी पार्क पहुँचा वो
हाथों को लहराते, भूले देहभान
परळ में लाया प्रलय
लालबाग को लाल रंग लाए ।
फिर भी सामुहिक हड़ताल जैसे अत्यन्त प्रखर हथियार का वर्णन रसात्मक होना चाहिए और शहरी सन्नाटे का अर्थ समझने के लिए श्रोता शहरी होना चाहिए । चलते कारखाने की व दौड़ते शहरी जीवन की भावना उसके मन में बैठी होनी चाहिए । तभी इन पंक्तियों का काव्यमय परिणाम उन पर हो सकता है । उदाहरणार्थ, हड़ताल का और वर्णन देखिए –
मज़दूर आया मैदान
मिलों का मुँह दबा साँचा किया बन्द
गलियों से पुकारें उठीं ।
थैली फेक बाजूवाला हो गया साथ
कुर्ते के बाजु मोड़कर ।
बेहोश हुई ढरकी
करघों ने साथ में संघर्ष शुरु कर दिया
मुर्दों की तरह पड़े हैं मिल, जैसे प्राण चला गया ।
इस वर्णन में किसी को काव्य दिखेगा और किसी को नहीं दिखेगा । जिस वर्ग का जीवन करघों से बँधा है, उन्हें दिखेग । किन्तु उन्हीं करघों पर अपना अधिकार जमानेवाले, करघों के की गति से धन उत्पन्न करनेवाले, श्रमिकों-शोषण के ताक में रहनेवाले मुफ्तखोर वर्ग को वह नहीं दिखेगा ! पूँजीवतियों से लढ़ते हुए जिन्होंने अपार संघर्ष किया, जिनके बाल-बच्चे-परिवार इस संग्राम का हिस्सा बन लढ़ते रहे, उस वर्ग को, उनसे बन्धुत्व रखनेवाले वर्ग को यह काव्य दिखाई देगा । काव्यरचना के लिए जैसी जनताग्राहक वर्गदृष्टि की जरुरत है, उसी तरह उसमें अभिव्यक्त भावनाओं से एकता स्थापित करने के लिए, उसमें बह जाने के लिए आन्तरिक गठन की आवश्यकता होती है । जहाँ बाजीराव के मातहतों को सिंहगड़ की वीरता समझ नहीं आती, जिन्हें लावणी के कमर की लचक ही समझती हो, वहाँ शिवकालीन अज्ञानदास कवि की रचनात्मकता क्या कर सकती है ?
भाषावार राज्यरचना का आन्दोलन जनता का है और उसे चालना देने के लिए अपनी भाषा, साहित्य, इतिहास का शास्त्रशुद्ध दृष्टि से वाचन तथा अध्ययन करने की आवश्यकता पर चर्चा हुई । वहीँ इकठ्ठा हुए मराठी, बंगाली, तेलुगू, तमिल, गुजराती, हिन्दी आदि भाषा के साहित्यकारों ने अपनी-अपनी भाषा व विशिष्ट संस्कृतिगुणों में ध्यान में रखकर जनता एवं मज़दूर-किसान वर्ग की स्वतंत्रता व जीवन पोषक और उनके जीवनसंघर्ष का विजयी हथियार बन सके, ऐसा साहित्य व ऐसी कला निर्माण करने का निश्चय किया । अन्ना भाऊ साठे व उनके साथी-मित्रों के उस कार्य को यह प्रस्तावना पोषक होगी, इसी आशा के साथ उसे समाप्त करता हूँ ।मुम्बई, दि.16-04-1952 एस.ए.डांगे

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