जो व्यवस्था अपने पितृसत्तात्मक आग्रहों के बावजूद सभी पुरुषों तक को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार दे पाने में अक्षम है, उससे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह सभी स्त्रियों को यह सब उपलब्ध कराएगी! स्त्रियों की छंटनी रोकना, उन्हें प्रसूति सम्बंधी अवकाश दिलाना इत्यादि एक छोटे वर्ग को ही राहत पहुंचाएगा, क्योंकि स्त्री श्रम का काफी बड़ा हिस्सा तो असंगठित क्षेत्र में लगा हुआ है।
Continue ReadingMonth: August 2012
सुरेन्द्र चौधरी का आलोचना कर्म
नई कहानी की व्याख्या करते हुए सुरेन्द्र चौधरी नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि के अंतर्विरोधों को भी रेखांकित करते हैं .नामवर सिंह ने ‘परिंदे’ कहानी से ‘नई कहानी’ की शुरुआत मानी थी और उसे ‘कालातीत कला दृष्टि’ से संपन्न बताया था .
Continue Readingभारतीय राष्ट्र और आदिवासी – वीर भारत तलवार
राष्ट्र की यह कल्पना किसी फौजी जमात जैसी है। जैसे फौज की टुकड़ी होती है, सब एक ड्रेस में, एक जैसी टोपी, एक साथ पैर उठाते हैं, एक साथ पैर पटकते हैं, एक साथ मुड़ते हैं- राष्ट्र ऐसा होना चाहिए। ये पूंजीवादी राष्ट्रवाद कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। मैं नहीं समझता की हिंदुस्तान की इतनी सारी विविधताओं, इतने सारे समुदायों, इतने सारे धर्मों को कुचलकर एक फौजी जमात जैसा राष्ट्र बना लेना कोई अच्छी बात होगी।
Continue Readingविवाह, वैश्यावृत्ति और प्रेम – एंगेल्स
यदि विवाहित लोगों का कर्तव्य है कि वे एक दूसरे से प्रेम करें, तो क्या प्रेमियों का यह कर्तव्य नहीं था कि वे केवल एक दूसरे से ही विवाह करें और किसी दूसरे से नहीं? और क्या इन प्रेमियों का एक दूसरे से विवाह करने का अधिकार माता-पिता, सगे-सम्बधियों और विवाह तय कराने वाले अन्य परम्परागत दलालों के अधिकार से ऊंचा नहीं था?
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