पर्सनल इज पॉलिटिकल – कैरोल हैनिच

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मुझे बहुत ठेस पहुँचती है जब कोई कहे कि मुझे या किसी और स्त्री को मनोचिकित्सा की जरूरत है। क्योंकि स्त्रियाँ अपनी दयनीय स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार नहीं है, उन्हें इस स्थिति तक पहुँचाया गया है। हमें जरूरत है इस वस्तुस्थिति को बदलने की, न कि अपने उपचार की या स्थिति के अनुसार खुद को ढालने की। उपचार का अर्थ तो अपने खोटे निजी विकल्प के अनुसार स्वयं को ढाल लेने से है।
‘व्यक्तिगत (भी) राजनीतिक है’ (Personal is Political ) नामक यह आलेख मूल रूप से 1970 में प्रकाशित ‘नोट्स फ्राॅम द सकेण्ड इयर: वीमेन्स लिबरेशन इन 1970’ पुस्तिका में छपा था। बार-बार पुनर्मुद्रित होता हुआ यह लेख आंदोलनकारियों के पास पहुंचता रहा और बाद में भी कई वर्षों तक छपता रहा। मुझे पता ही नहीं था कि यह खासा चर्चित हो चुका है, पर जब मैंने गूगल पर खोज की तो पाया कि इस पर अब भी, और कई भाषाओं में विमर्श चल रहा है।
यहाँ मैं एक बात अपनी ओर से साफ कर देना चाहती हूँ कि इसका यह शीर्षक मेरा दिया हुआ नहीं है। जहाँ तक मैं जानती हूँ ‘द्वितीय वर्ष के अनुभव’ संग्रह में इसे शामिल करने का प्रस्ताव जब कैथी साराचाइल्ड ने रखा, तब संग्रह के प्रारंभिक संपादकों शूली फायरस्टोन व एनी कोट ने इसे यह शीर्षक दिया। यह भी ध्यातव्य है कि ‘राजनीतिक’ शब्द यहाँ एक व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया है, जो शक्ति व सत्ता के जोड़-तोड़ को इंगित करता है न कि सिर्फ चुनावी राजनीति की संकीर्ण अवधारणा को।
आलेख दरअसल शुरू में एक विज्ञप्ति के रूप में फरवरी 1969 में गेन्स विले, (ळनसदेनपसस) फ्लोरिडा में लिखा गया था। सदर्न काॅन्फ्रेस एडुकेशन फंड (ैब्म्थ्) नामक जिस समूह के लिए दक्षिण में स्त्री-मुक्ति योजना स्थापित करने हेतु छानबीन व पर्यवेक्षण का कार्य मैं एक निर्वाह भत्ता भोगी संचालक के रूप में कर रही थी, उसी की महिला बैठक में यह लेख भेजा गया था।
प्रारंभ में इसका शीर्षक ‘डाॅटी के स्त्री-मुक्ति आंदोलन संबंधी विचारों की प्रतिक्रिया में मेरे कुछ विचार’ था। और यह डाॅटी जेलनर (एक अन्य कर्मचारी) द्वारा लिखी विज्ञप्ति के उत्तर में लिखा गया था, जिसमें उसका मत था कि यह आंदोलन ‘बोध प्राप्ति अथवा चेतना के उभार का कार्य था। जिसका उद्देश्य स्त्रियों का मानसिक उपचार मात्र था।’ उसका प्रश्न था कि क्या यह नवीन स्त्री मुक्ति आंदोलन सचमुच राजनीतिक कहा जा सकता है?
उग्र स्त्रीवादी विचारों पर इस प्रकार की प्रतिक्रिया 1969 के प्रारंभ में कोई नई नहीं थी। उस वक्त नागरिक अधिकारों, वियतनाम युद्ध और पुरानी-नई वामपंथी विचारधाराओं को लेकर नए उग्र आंदोलन हुए, जिनमें से हम कई कार्यकर्ताओं का निर्माण हुआ था। लेकिन ये समूह पुरुष वर्चस्व वाले थे और स्त्री मुक्ति को लेकर सामान्यतः उनमें बड़ी घबराहट फैली हुई थी, खासकर उस नए स्त्री मुक्ति आंदोलन को लेकर, जिसकी मैं प्रबल पक्षधर थी। मिसी सिपी नागरिक अधिकार आंदोलन में दस माह तक हिस्सा लेने के बाद जब मैं न्यूयाॅर्क पहुंची तो मैंने पाया कि हमारे आस-पास के सभी दलों में से ैब्म्थ् ही सबसे अधिक परिपक्व और प्रगतिशील था। ‘नये समझौते’ (छमू क्मंस) के जमाने से ही जाति, आर्थिक व राजनीतिक न्याय के मुद्दों पर इसकी उपलब्धियां काफी अच्छी थीं। मैंने इसके न्यूयाॅर्क दफ्तर के व्यवस्थापक की हैसियत से 1966 से काम शुरू किया। ैब्म्थ् ने न्यूयाॅर्क की उग्र सुधारवादी स्त्रियों को अपने इस दफ्तर में सभाएं करने की अनुमति दे रखी थी और मेरे अनुरोध पर दक्षिण में स्त्री-मुक्ति परियोजना (ॅस्ड) के स्थापित होने की संभावनाएं तलाशने को भी यह संस्था राजी हो गई। लेकिन बाद में (ैब्म्थ्) के कर्मचारियों में से ही कई लोग, स्त्री-पुरुष दोनों ही, इन स्त्रियों की आलोचना में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे, जो अपने स्वयं के दमन पर चर्चा के लिए उन चेतना-जागरण सत्रों में एकत्र होती थीं। आलोचना का आधार यही था कि निजी समस्याओं पर यह चर्चा मात्रा आत्मकेंद्रीयता है और निजी दिलासा पाने का एक साधन, निश्चित ही इसका कोई राजनीतिक स्वरूप नहीं हो सकता।
कभी-कभी ये आलोचक यह जरूर स्वीकार करते थे कि स्त्रियाँ प्रताड़ित हैं (किंतु सिर्फ तंत्र द्वारा), कि हमें समान वेतन मिलना चाहिए, और भी कुछ अधिकारों की बात की जाती थी। लेकिन अपनी तथाकथित ‘निजी समस्याओं को सार्वजनिक चर्चा में घसीट लाने के लिए उन्होंने हमें हद दर्जे का तुच्छ माना। खासकर कुछ दैहिक मसलों, जैसे काम प्रवृतियों, रूप-रंग और गर्भपात पर खुली चर्चा करने के लिए हमें काफी भला-बुरा कहा गया। गृहकार्य तथा बच्चों की देखभाल में पुरुषों के भी हाथ बंटाने की हमारी माँग को एक स्त्री-पुरुष द्वय के बीच की निजी समस्या माना गया। विरोधी गण दावा करते थे कि यदि स्त्रियाँ सिर्फ ‘स्वयं’ के लिए खड़े हो जाने’ का साहस दिखाएं और अपने जीवन का उत्तरदायित्व स्वयं ले लें, तो अपनी मुक्ति के लिए उन्हें एक अलग आंदोलन की कतई जरूरत नहीं है यह भी कहा गया कि जो समस्याएं हम अपने निजी स्तर पर नहीं सुलझा सकें उनका निपटारा ‘क्रांति’ खुद ही कर देगी, बशर्ते हम अपना मुंह बंद रखें और क्रांति में अपनी-अपनी भूमिका निभाएं। यह आरोप निराधार माना गया कि स्त्रियों के दमन से पुरुष लाभाविन्त होते हैं।
किंतु स्त्री के दमन के लिए उसे ही दोषी मानने की बजाय पुरुष वर्चस्व के विरोध में आंदोलन छेड़ने की जरूरत को हम समझ रहे थे, तभी तो नयी स्त्राी-पक्षीय विचारधारा सामने आई। इसने उस पुरानी स्त्री-विरोधी विचारधारा को चुनौती दी जो आध्यात्मिक, मानसिक, तात्विक, परालौकिक तथा छद्म इतिहास की दलीलों से यह सिद्ध करने का प्रयास करती थीं कि अपनी प्रताड़ना के लिए स्त्रियाँ स्वयं जिम्मेदार हैं।
अब वास्तविक, भौतिकवादी विश्लेषण से धीरे-धीरे यह स्पष्ट हो रहा था कि स्त्रियाँ वैसा क्यों करती हैं, जैसा वे करती हैं (भौतिक शब्द से यहाँ मेरा मतलब माक्र्सवादी संसार के भौतिकवाद अर्थात वास्तविकता से है, न कि ‘उपभोक्तावाद’ से)।
यह समझ लेने पर कि स्त्रियाँ दमन को स्वीकारते रहने की जिस स्थिति में हैं, वह उनके द्वारा उत्पन्न नहीं की गई हैं, बल्कि उन्हें सदियों से ऐसा करने पर मजबूर किया जाता रहा है, इस समस्या से निजी स्तर पर जूझने का निरर्थक दबाव हट गया और यह वर्ग-संघर्ष का मुद्दा बन गया, जिसके लिए पुरुष वर्चस्व के खिलाफ एक अलग स्त्री मुक्ति आंदोलन की जरूरत महसूस की जाने लगी।
यह स्त्री पक्षीय सिद्धांत स्त्री-दमन की उस ‘लिंग के अनुसार भूमिका’ को कारण मानने वाली अवधारणा को भी चुनौती देने में सफल रहा जिसके अनुसार समाज स्त्रियों को ‘जैसी शिक्षा देता है’ वे उसी के अनुसार व्यवहार करती है (हम सब अपनी उन आदतों से परिचित हैं जो हममें कभी बचपन में डाली गई थीं, पर जैसे ही वे दबाव हम पर से हटे, हमने उस तरह व्यवहार करना भी छोड़ दिया)।
यह उन चेतना-जागरण सत्रों का ही असर था कि अपने निजी अनुभवों तथा स्त्री-दमन से लाभ उठाने वाले वर्गों की जानकारी के विश्लेषण द्वारा हम स्त्री पक्षीय विचारधारा की एक वैज्ञानिक समझ विकसित कर सके।
हमारी दमनकारी परिस्थितियाँ हमारी अपनी वजह से नहीं है और काल के संदर्भ में वे हमारे अपने दिमाग की उपज नहीं हैं – इस नए बोध ने हममें बहुत साहस भर दिया और साथ ही मुक्ति-संघर्ष के लिए एक ठोस, वास्तविक आधार प्रदान कर दिया।
‘व्यक्तिगत भी राजनीतिक है’ आलेख व इसमें प्रस्तुत सिद्धांत ैब्म्थ् और अन्य आंदोलनों द्वारा हमारे विरोध की प्रतिक्रिया थी। मैं समझती हूँ कि यह जानना आवश्यक होगा कि यह आलेख संघर्ष के ही एक उत्पाद के रूप में सामने आया- सिर्फ ैब्म्थ् के विरोध में मेरे संघर्ष ही नहीं बल्कि उन सब के खिलाफ संघर्ष के उत्पाद के रूप में जो स्वतंत्रा स्त्री मुक्ति आंदोलन (ॅस्ड) को या तो रोकने की कोशिश कर रहे थे या इसकी धार कुंद करने की।
यह भी द्रष्टव्य है कि प्रस्तुत सिद्धांत मात्र मेरे मस्तिष्क की उपज नहीं था। यह हमारे ॅस्ड तथा इसके न्यूयाॅर्क रेडिकल वीमेन नाम के एक खास समूह तथा इस न्यूयाॅर्क रेडिकल वीमेन समूह के भी एक खास गुट, जिसे कभी-कभी स्त्री पक्षीय धड़ा (च्तव.ॅवउमद सपदम ंिबजपवद) कहा जाता था, का सम्मलित प्रयास था।
यह सच है कि न्यूयाॅर्क रेडिकल वीमेन में से तथा वृहत स्त्रीवादी समुदाय में कुछ स्त्रियों ने प्रारंभ से ही हमारे चेतना-जागरण के कदम का विरोध किया और इस दावे पर अड़ी रहीं कि स्त्रियों को सदियों से भरमाया गया है, जिससे वे अपने ही दमन का हथियार बन गई हैं और यह भी कि यह समस्या राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक है। यदि समझा जाए तो इन स्त्रियों ने भी हमारे स्त्री पक्षीय सिद्धांत के आकार लेने में मदद की। दरअसल इन तत्कालीन मान्यताओं के हमारे विरोध में उठ खड़े होने से हम एक तरह से मजबूर हो गए कि अपनी नई अवधारणा को अधिक स्पष्ट बनाने, उसके परिशुद्धिकरण तथा उसे अधिक धारदार बनाने में अपना पूरा जोर लगा दें, जिससे यह सार्वभौमिक बन सके। न्यूयाॅर्क रेडिकल वीमेन की सभाओं के बाद स्त्री पक्षीय गुट की सदस्याएं अक्सर ‘मितेराज’ नामक एक नजदीक के रेस्तराॅ में एकत्र होतीं, जिसकी ‘एपल पाई’ लाजवाब होती थी। वहाँ हम रात के 2-3 बजे तक इस बात पर चर्चा करते रहते कि सभा कैसी रही और उसमें रखे गए विचारों का हमारे लिए क्या अर्थ है। और यह सभा-उपरांत चर्चा हमारे बीच सहमति, असहमति, चुनौती और एक जीवंत बहस का स्रोत बन जाया करती थी।
‘निजी भी राजनीतिक है’ आलेख लिखने के छह माह पहले 1968 के सितम्बर में मिस अमेरिका प्रतिस्पर्धा के खिलाफ प्रदर्शनों ने भी यही जाहिर किया कि हमारा स्त्री-समर्थक सिद्धांत हमारे कार्यों को दल के बाहर की दुनिया में प्रस्तुत करने में कितना सहायक है। मेरे एक अन्य लेख ‘मिस अमेरिका विरोध की समालोचना’ में मैं स्पष्ट रूप से बता सकी कि किस तरह प्रतिस्पर्धा का विरोध करते-करते हम अपनी ही उस मान्यता से दूर छिटक गए हैं- कि सौंदर्य के मापदंडों के इस महिमामंडन के कारण समूची स्त्री जाति प्रताड़ना का शिकार होती है, यहां तक कि आपस में प्रतिस्पर्धा की भी। ‘मिस अमेरिका मुर्दाबाद’ और ‘मिस अमेरिका एक बड़ा झूठ है’ जैसे नारों से तो ये प्रतियोगी ही हमारे दुश्मन नजर आने लगे बजाय उन पुरुषों और कर्ता- धर्ताओं के जो ऐसे झूठे मापदंड स्त्रियों पर लागू करते हैं।
राजनीतिक संघर्ष अथवा बहस एक अच्छे राजनीतिक सिद्धांत को कसने की सही कसौटी मानी जाती है। अन्यथा कोई सिद्धांत तो बस कुछ प्रभावशाली शब्दों का समूह है, जिस पर सोच-विचार करना कभी-कभी रूचिकर लगता है। लेकिन जब तक वह वास्तविक जीवन में लोगों की नियति बदलने में सफल न हो तो वह शब्दाडम्बर मात्र ही रहेगा। ऐसे बहुत से सिद्धांतों ने अपने प्रयोग के परिणामों से हमें आश्चर्यचकित किया है – सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह से।
जब मैं विचार करती हूँ कि यदि आज के संदर्भों में मैं इस आलेख को फिर से लिखूँ तो इसमें क्या बदलूँगी, तो यह देख कर मुझे सचमुच बहुत अचरज हुआ कि किस प्रकार यह लेख समय की कसौटी पर खरा उतरा है। हालांकि कुछ चीजें हैं, जिन्हें मैं आज और विस्तार से लिखना चाहती, जैसे कि सामाजिक वर्गों की मेरी अति सरलीकृत परिभाषा या फिर कुछ अन्य जो आज अधिक स्पष्टता की माँग करते हैं। इनमें से दो, जो मुझे अत्यंत महत्वपूर्ण लगते हैं, ‘स्त्रियाँ इतनी चतुर तो सिद्ध हुई हैं कि वे संघर्ष का रास्ता अकेले नहीं अपनातीं’ और दूसरा ‘घर में रहना नौकरी की चूहा दौड़ में शामिल होने से कम बुरा नहीं है’
इनमें से पहले वक्तव्य का अर्थ यह नहीं है कि चतुर होने के कारण स्त्रियां संघर्ष करना ही नहीं चाहती जैसा कि हमारे स्त्री पक्षीय सिद्धांत के कुछ विरोधी दावा करते हैं। यह सच है कि स्त्रियाँ कभी-कभी अकेले संघर्ष का रास्ता नहीं पकड़तीं। ऐसा तब होता है जब या तो वे अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं होतीं या फिर जब उन्हें संघर्ष की प्रतिक्रिया दमन से भी अधिक खतरनाक होने की आशंका होती है। फिर भी देखा जाए तो व्यक्तिगत संघर्ष हमें कुछ न कुछ तो देते ही हैं। जब ॅस्ड बहुत सक्रिय नहीं है या उसका वजूद ही नजर से ओझल हो जाता है, तब अपनी निजी लड़ाईयाँ जारी रख कर हम इसे जीवित तो रख सकते हैं। बल्कि इन निजी संघर्षों की जरूरत हमें तब भी रहेगी जब ॅस्ड बहुत सक्रिय हो, क्योंकि हमारा दमन बहुधा हमारे जीवन-वृत्त से जुड़ा होता है, प्रत्येक स्त्री के लिए भिन्न-भिन्न। आंदोलन जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए व्यापक स्तर पर लड़ता है, उसी के लिए हमें अपने निजी स्तर पर भी सक्रिय भागीदारी दिखानी होगी। किंतु निजी प्रयास हमेशा सीमित ही हो सकते हैं, और पुरुष वर्चस्व को समाप्त करने के लिए हमें पहले के अपने सारे आंदोलनों से बड़े और शक्तिशाली आंदोलन की जरूरत है।
जहाँ तक दूसरे वक्तव्य का सवाल है तो उस बिंदु पर मैं सूसन बी. एन्थोनी की बात से सहमत हूँ कि मुक्त होने के लिए स्त्री का अपना आय का स्रोत होना जरूरी है। सार्वजनिक कार्य-क्षेत्र में भागीदारी के बिना वे आत्म निर्भर नहीं हो सकतीं। इसका अर्थ यह भी है कि बच्चों की देखभाल की सार्वजनिक व्यवस्था, कार्य स्थलों की स्त्री-पुरुष समानता की दृष्टि से पुनर्निमिति, घरों में बच्चों का लालन-पालन व अन्य गृहकार्यों में पुरुषों की भागीदारी के लिए भी हमें मिल कर संघर्ष करना है ताकि स्त्रियाँ ही इन सारे कामों को न करती रह जायें।
आज मुझे लगता है कि काश हम पहले ही जान पाते कि ‘निजी भी राजनीतिक है’ और ‘स्त्री पक्षीय विचारधारा’, इन दो धारणाओं को किस-किस तरह बदला जायेगा और इनका दुरूपयोग किया जाएगा। ‘स्त्री पक्षीय गुट ;च्तव ूवउंद सपदमद्ध द्वारा विकसित अन्य क्रांतिकारी विचारों की तरह ही इन अवधारणाओं को बदला गया, आंदोलन से हटा ही दिया गया, यहाँ तक कि उन्हें उनके ही मूल उद्देश्य के खिलाफ प्रयुक्त किया गया।
जहाँ यह जरूरी है कि सभी सिद्धांत वास्तविक जीवन की चुनौतियों से जूझें ताकि उनकी सार्थकता सिद्ध हो सके, वहीं हमने यह भी सीखा कि एक बार जब कोई सिद्धांत अपने संरक्षकों के नियंत्रण से निकल कर वास्तविक दुनिया में आए तो उसमें संभावित बदलाव और गलत व्याख्याओं से उसका बचाव करना भी जरूरी है।पर्सनल इज पोलिटिकल इस आलेख को लिखते हुए मैं हाल में ही चर्चित रही ‘उपचार’ बनाम ‘उपचार और राजनीति’ की वामपंथी बहस के करीब रहना चाहँुगी। इसे हम ‘व्यक्तिगत’ बनाम ‘राजनीतिक’ का नाम भी दे सकते हैं या सारे देश में चर्चा के दौरान इस बहस को कुछ और भी नाम दिए गए हैं। न्यू आॅरलेन्स के दल से मिलने का मौका मुझे कभी नहीं मिला किंतु न्यूयाॅर्क व गेन्स विले के दलों की सभाओं में जाते हुए मुझे एक वर्ष से अधिक हो चुका है। इन दोनों दलों पर ‘उपचारिक’ या ‘व्यक्तिगत’ होने का आरोप उन स्त्रियों द्वारा लगाया जाता रहा है जो स्वयं को ‘अधिक राजनीतिक’ मानती है। इसीलिए मैं समझती हूँ कि इन तथाकथित ‘उपचारिक’ समूहों के बारे में अपना अनुभव मुझे बांटना चाहिए। ताकि कुछ गलतफहमियाँ दूर हो सकें। यदि तर्क की कसौटी पर कसा जाए तो ‘उपचार’ शब्द यहाँ बिल्कुल गलत नामकरण है। ‘उपचार’ शब्द से इंगित होता है कि कोई व्यक्ति रोगी है और उसका उपचार यानि कि एक व्यक्तिगत खास समाधान संभव है। पहली बात तो यह है कि
हमने स्त्रियों की रोजमर्रा की निजी समस्याओं का हल ढूँढ़ने की कोशिश अपनी बैठकों में कभी नहीं की। चर्चा के लिए विषय चुनते समय हमने दो तरीके अपनाए- समूह छोटा होने के कारण एक तरीका तो यह संभव हो सका कि हम बारी-बारी से बैठक में चर्चा का विषय ढूँढ़ कर लाएँ (उदाहरण के लिए यदि हमें चुनाव का मौका मिलता तो हम क्या चुनते- बेटा/बेटी/कोई बच्चा नहीं और अपने जीवन में हमने असल में क्या चुना और क्यों चुना? यदि पति आपसे कम कमाता है तो उससे आपके रिश्ते में क्या बदलाव आता है?)। फिर कक्ष में बैठी हर सदस्या के निजी अनुभवों की मदद से हम इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने की कोशिश करते। प्रत्येक व्यक्ति को बोलने का मौका दिया जाता था। चर्चा के अंत में हम सुने हुए सारे अनुभवों में संबंध सूत्र तलाशने की कोशिश करते ताकि एक व्यापक निष्कर्ष निकाला जा सके।
मैं विश्वास करती हँू और शायद आगे भी करती रहूँगी कि ये चर्चाएं राजनीतिक सक्रियता का ही रूप हैं। मैं इन सत्रों में भाग इसलिए नहीं लेती कि मुझे अपनी निजी समस्याएं सार्वजनिक करने की कोई जरूरत है। बल्कि इसके उलट, मैं ऐसा करना कभी पसन्द नहीं करती। आंदोलन की एक सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते मुझ पर हमेशा यह दबाव रहता है कि मैं सदा सशक्त, निस्वार्थ, दूसरों के लिए सोचने वाली, त्यागमयी और सामान्यतः अपने जीवन के नियंत्रण सूत्र अपने हाथ मंे रखने वाली स्त्री नजर आऊँ। निजी समस्याओं के वजूद को स्वीकार करना भी अपने आप को निर्बल सिद्ध करना हो जाएगा। आंदोलन के हिस्से के रूप में मैं एक समर्थ स्त्री बने रहना चाहती हूँ न कि यह स्वीकारना कि मेरी भी ऐसी कोई निजी समस्याएं हैं जिनका हल मैं स्वयं नहीं ढँूढ़ पा रही हूँ (उन समस्याओं के अलावा जो पूँजीवादी तंत्र से सीधे जुड़ी हैं)। इस स्थिति में अपने अनुभव को उस तरह व्यक्त कर पाना जिस तरह हमने उसे महसूस किया है, अपने जीवन को उस तरह चित्रित कर पाना जैसा वह हमें लगा है न कि वैसा जैसी हमसे कहने की अपेक्षा की गई है, निश्चित ही एक साहसिक राजनीतिक कदम है।
अतः इन बैठकों में मेरी भागीदारी किन्हीं निजी समस्याओं का हल ढँूढ़ने के लिए नहीं थी। इन चर्चाओं में एक पहली चीज, जो हमारे सामने स्पष्ट हुई वह यही थी कि अब तक हम जिन्हें अपनी निजी समस्याएं मानते आए हैं वे दरअसल राजनीतिक हैं। इस काल-बिंदु पर इन समस्याओं के निजी समाधान के लिए हमें सामूहिक तौरपर प्रयत्न करना होगा। मैं इन बैठकों में शामिल हुई, होती रही क्योंकि मेरी जो राजनीतिक समझ इन चर्चाओं से विकसित हुई, वह मेरा समूचा अध्ययन, सारे राजनीतिक बहस-मुबाहिसे, सारे राजनीतिक कार्यक्रम और आंदोलन में लगाए चार वर्ष भी नहीं कर सके थे। अपनी आँखों पर अपने लंबे राजनीतिक अनुभव का गुलाबी चश्मा जो मैंने चढ़ा रखा था। उसे उतारने को मैं बाध्य हो गई और अंततः इस कड़वे सच का सामना मुझे करना ही पड़ा कि एक स्त्री के रूप में मेरा जीवन वास्तव में कितना कठोर है। पहले की उस गूढ़ बौद्धिक समझ, ‘दूसरों’ के लिए संघर्ष से पैदा हुए उस दया-भाव और उच्चता के शिखर पर बैठी अपनी छवि के विपरीत यह नवीन बोध मेरे अपने अनुभव, मेरे अपने संघर्ष के सच्चे स्वरूप को जान लेने के कारण विकसित हुआ था।
यहाँ इससे इनकार करना बेमानी होगा कि इन सत्रों के कम-से-कम दो पहलू तो सचमुच मनोचिकित्सा जैसा महत्व भी रखते थे। हालांकि उन्हें भी मैं ‘निजी उपचार’ की बजाय ‘राजनीतिक उपचार’ कहना अधिक पसंद करूंगी। सबसे महत्वपूर्ण पहलू था स्वयं पर इलजाम लगाने की यंत्रणा से मुक्ति। एक बार सोच कर देखिए- यदि सारी अश्वेत और श्रमिक (श्रमिक की मेरी परिभाषा के अनुसार वह प्रत्येक शख्स श्रमिक है, जो जीविका के लिए कार्य करता है और वह नहीं है, जो कार्य नहीं करता) स्त्रियाँ यदि अपनी कमतर जिंदगी के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानना छोड़ दें तो हम क्या पा सकते हैं। मुझे लगता है कि समूचे देश के इस प्रकार के राजनीतिक उपचार की जरूरत है। अश्वेत आंदोलन भी तो आखिर यही कर रहा है, किंतु अपने तरीके से। हमें यह अपने तरीके से करने की जरूरत है। अपने-आप को जिम्मेदार न मानने की अभी हमने शुरूआत भर की है। हमें ऐसा भी लगता है कि हम जीवन में पहली बार अपने लिए चिंतन कर रहे हैं। जैसा कि एक ‘लिलिथ’ व्यंग्यचित्र में कहा गया है, ‘‘मैं बदल रही हूँ, मेरे दिमाग में मांसपेशियाँ बढ़ रही हैं।’’ वे लोग जो विश्वास करते हैं कि माक्र्स, लेनिन, एंजिल्स, माओ तथा ‘हो’ इस मुद्दे पर अंतिम व सबसे बेहतर निर्णय दे चुके हैं और स्त्रियों के पास इसमें जोड़ने के लिए कुछ भी नहीं है, वे इन बैठकों को समय की बरबादी ही मानेंगे।
मैं जिन समूहों की सदस्या थी, वे इन बैठकों के कारण कोई मुक्त या गैर पारम्परिक रहन-सहन वाली स्त्रियों के समूह नहीं बन गए थे। अपनी बैठकों में इस नतीजे पर पहुँचने में हमें अधिक दिन नहीं लगे कि वर्तमान परिस्थितियों में सारे ही विकल्प स्त्रियों के लिए अनिष्टकारी हैं- चाहे हम किसी पुरुष के साथ रहते हों या उसके बिना, दल में रहते हों, या जोड़े में, अकेले हों, शादीशुदा या कुँवारे, अन्य स्त्रियों के साथ रहते हों, मुक्त प्रेम को मानते हों, ब्रह्मचर्य अपनाएं या लेस्बियन हों या कोई भी और जुगाड़ करें – हरेक बुरी स्थिति में कुछ अच्छी और कुछ बुरी चीजें होती हैं बस! आज हमारे पास मुक्ति के कोई बेहतर रास्ते हैं ही नहीं इन बुरे विकल्पों के सिवाय। हम जिन बहुत-बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांतों को स्थापित करने की पहल कर रहे हैं उनमें से एक को मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ। हमने इसे स्त्री पक्षीय धारा का नाम दिया है (च्तव.ॅवउंद स्पदम) मूलतः यह अवधारणा स्त्रियों को अच्छा इन्सान मानती हैं। हमारे बारे में जो बुरी बातें कही जाती हैं, वे या तो मिथक है (जैसे स्त्रियाँ बेवकूफ होती हैं) या कुछ महत्वाकांक्षी स्त्रियों की चालें (जैसे अमुक स्त्री डायन है) या कुछ हमारी अपनी मान्यताएं, जिन्हें हम नए समाज में भी ले जाना चाहते हैं और चाहते हैं कि पुरुष भी इन्हें मानें (जैसे स्त्रियाँ कोमल व भावुक होती है)। दरअसल सभी दमित समुदायों की तरह स्त्रियाँ भी जरूरत के अनुसार अभिनय का सहारा लेती हैं (जैसे पुरुषों की उपस्थिति में गूँगी गुड़िया की तरह पेश आना) जो अपनी इच्छा से नहीं बल्कि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली का कार्य होता है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व में कई ऐसी छल-कपट की तकनीकों का समावेश कर लिया है जो बचे रहने के लिए उन्हें जरूरी लगता है (जैसे हमेशा सुंदर दिखना, अपनी हँसी और हाव-भावों को आजीविका या पुरुष को पाने के लिए या इन्हंें बचाए रखने के लिए इस्तेमाल करना)। और इन तरीकों को वे तब तक प्रयोग करती रहेंगी जब तक कि एकता की शक्ति द्वारा वे मुक्त न हो जाएं और ये तरीके बेजरूरत हो जाएं।
स्त्रियाँ इतनी चतुर तो हैं कि अकेले पुरुष जाति से नहीं भिड़तीं (वैसे ही जैसे अश्वेत या श्रमिक)। वे जानती हैं उनके लिए घर में रहना भी उतना ही बुरा विकल्प है, जितना नौकरी की चूहा दौड़ में घर के बाहर पिसना। दोनों ही विकल्प हमारे लिए एक समान हैं। जरूरी हो गया है कि अश्वेतों और श्रमिकों की तरह स्त्रियाँ भी अब अपनी ‘पराजयों के लिए खुद को कसूरवार मानना बंद कर दें।
स्त्री-पक्षीय अवधारणा को अपने जन्म से इस निष्कर्ष तक पहुँचाने और प्रत्येक स्त्री के जीवन से इसका संबंध है यह दिखाने में हमें करीब दस महीने लगे। इतना वक्त इसलिए भी लगा कि संघर्ष के लिए हम अपनी रणनीति भी तय करना चाहते थे। जब हमारी बैठकों की शुरूआत हुई थी यदि तभी हम बहुमत की बात मानते तो हम शायद सड़कों पर होते – शादी और बच्चों के लालन-पालन के खिलाफ, कार्य चुनने की स्वतंत्रता के लिए, सजने-संवरने वाली स्त्रियों और गृहणियों के खिलाफ, दैहिक भिन्नताओं को नजरअंदाज करने और संपूर्ण समानता पाने के लिए, और भी भगवान जाने किस-किस चीज के लिए संघर्ष करते हुए। किंतु अब लंबे सोच-विचार के बाद हमें नजर आ रहा है कि ये सारी चीजें मात्र ‘व्यक्तिगत समाधान’ ही कहे जा सकते हैं।
वर्तमान में आंदोलनकारी गुटों द्वारा संघर्ष के लिए कई मुद्दे इनमें से ही उठाए गए हैं। मिस अमेरिका प्रतिस्पर्धा के समय स्त्रियों के ही विरूद्ध आंदोलन छेड़ देने वाली, बिना सैद्धांतिक आधार के, शोर-शराबा करने वाली, ये ही स्त्रियाँ थीं। इसी तरह का एक अन्य गुट दिन के समय बच्चियों की देखभाल करने वाला एक निजी केंद्र खोलना चाहता है – इन बातों पर विचार किए बिना कि छोटी बच्चियों के लिए इससे भी बेहतर कोई विकल्प हो सकता है या फिर इन केंद्रों से क्रांति का आखिरकार कौन-सा उद्देश्य पूरा होगा।
किंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम सिर्फ सोचते हुए, हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें। दरअसल हमारे पास इसके पर्याप्त कारण है कि हमारा दल अभी कोई कार्यवाही नहीं करना चाहता। इनमें से एक कारण, मेरी नजर में यह है कि यह मुद्दा इतना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कुछ भी कदम उठाने के पहले हम निश्चित कर लेना चाहते हैं कि हम जो भी रास्ता अपना रहे हैं, वही इस काम को करने का सबसे सही तरीका है। मैं नहीं चाहती कि कुछ ‘कर’ दिखाने की जल्दबाजी और जोश में हम आंदोलन को गलत दिशा दे दें। हमारे न्यूयाॅर्क गुट में इस बात पर हमेशा ही मतभेद रहा कि कोई कार्यवाही की जाए या नहीं। जब मिस अमेरिका प्रतिस्पर्धा का मसला उठा तो हम लगभग एकमत थे कि हमें विरोध करना ही चाहिए क्योंकि हमें लगता था, यह मामला हमारी जिंदगियों से सीधे-सीधे जुड़ा है। हमें लगा कि यह एक प्रगतिशील कदम होगा। हालांकि विरोध की कार्यवाही में कुछ गलत फैसले भी शामिल हो गए किंतु मूल विचार एकदम सही था।
‘उपचारिक’ या ‘निजी’ होने का आरोप अपने ऊपर झेलते इन गुटों के साथ यह था मेरा अनुभव। शायद इनमें से कुछ गुट रहे भी हो जो ऐसी मनोचिकित्सा भी करते हैं। किंतु तुरत-फुरत कार्यवाही कर डालने की धुन में निजी अनुभवों का सटीक विश्लेषण न कर पाने की भूल शायद हमें अपने सवालों के जबाव कभी न दे पाए, बल्कि हमें संघर्ष का वह तरीका चाहिए जिससे हम अपेक्षित परिणाम हासिल कर सकें। एक समय था जब हममें से किसी ने इस बारे में एक पुस्तिका लिखना शुरू किया था जो कभी रूपरेखा से आगे नहीं बढ़ पाई। अब हम इस पर फिर से काम कर रहे हैं और आशा है कि करीब एक माह में यह पूरी हो जाएगी। यह सच है कि हम जिन निजी अनुभवों, अहसासों की बात करते हैं उनमें संबंध सूत्र ढँढ़ने और उनसे सार्वभौमिक ष्कर्ष निकालने का हुनर हमें अभी और अच्छी तरह सीखना है। हममें से कुछ ने इस कला की जरूरत के बारे में दूसरों को बताने की जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई।
यहाँ एक और बात मैं कहूँगी- हमें यहाँ मुख्यधारा की तथाकथित ‘अराजनीतिक’ स्त्रियों की विचार प्रक्रिया को समझने की भी बहुत जरूरत है- इसलिए नहीं कि उन्हें संगठित करने का काम हम ज्यादा बेहतर ढंग से कर सकते हैं, बल्कि इसलिए कि यदि वे हमारे साथ मिल जाएं तो हमारा आंदोलन सच्चे अर्थों में सबका आंदोलन बन सकता है। मैं महसूस कर रही हूँ कि हम जैसे कार्यकर्ता जो अपना पूरा समय आंदोलन को दे रहे हैं, धीरे-धीरे एक वैचारिक संकीर्णता का शिकार होते जाते हैं। आज की सच्चाई यही है कि गैर-आंदोलनकारी स्त्रियाँ हमसे सहमत नहीं रहीं और हमें यह गलतफहमी हो गई है कि ऐसा उनके ‘अ-राजनीतिक’ होने के कारण है, न कि हमारा अपना नजरिया गलत होने के कारण। स्त्रियों ने बड़ी संख्या में अन्य आंदोलनों से भी किनारा कर लिया है। इसका एक सीधा-सीधा कारण तो यह है कि हम भोग्या बनते-बनते थक चुके हैं और उन पुरुषों के लिए निरर्थक खटते हुए भी, (बाकी) मानवता की मुक्ति के राजनीतिक संकल्प की बात करते हुए जिनका दोमुँहापन साफ नजर आता है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। मैं इस समय इसे ठीक-ठीक व्यक्त तो नहीं कर पा रही हँू लेकिन मुझे लगता है कि ‘अराजनीतिक’ स्त्रियों के आंदोलन में हिस्सा न लेने की वजहें बहुत सशक्त हैं। और जब तक हम उन पर यह जोर डालते रहेंगे कि ‘‘आपको हमारी तरह ही सोचना पड़ेगा और आंदोलन का हिस्सा बनने वाले हमारे खास वर्ग में जुड़ने के लिए हमारी तरह ही जीना पड़ेगा’, तब तक हम असफल रहेंगे। मैं यही कहने की कोशिश कर रही हूँ कि ‘अराजनीतिक’ (हालांकि मैं उन्हें राजनीतिक ही मानती हूँ) स्त्रियों के अवचेतन में कुछ बातें हैं जो उतनी ही सच हैं, जितनी हमें अपनी राजनीतिक समझ लगती है। हमें यह जानने की कोशिश करना ही चाहिए कि इतनी सारी स्त्रियाँ आखिरकार सक्रिय क्यों नहीं होना चाहतीं। हमारे लिए अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या हमारी कार्यवाही ही कुछ गलत है या यह कि हम कार्यवाही कर क्यों रहे है या फिर करने के कारणों का हमारा विश्लेषण गलत है।सिमोन द बोउवार की पंक्ति ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है’ की तरह ही कैरोल हैनिच के इस लेख का शीर्षक नारीवाद का मुहावरा बन चुका है। यह लेख एक खास संदर्भ में लिखा गया था, 1968 में नारीवादी महिलाओं के एक समूह ने जब अपनी बैठकों में ‘निजी’ समस्याओं और अनुभवों पर चर्चा के जरिये उन्हें सिद्धांतबद्ध करने की कोशिश की तो उसे अन्य नारीवादी/गैर-नारीवादी समूहों की तीखी भत्र्सना का शिकार होना पड़ा। घरेलू श्रम से लेकर घरेलू उत्पादन तक को निजी समस्या मानने की यह समझ इन समस्याओं को अलग-अलग स्त्रियों की व्यक्तिगत प्रतिकार न कर पाने के लिये उन स्त्रियों को जिम्मेदार ठहराती है। कैरोल हैनिच ने पहली बार इस लेख में दो टूक ढंग से यह दावा किया कि समस्याओं को ‘निजी’ या ‘व्यक्तिगत’ ठहराया जाना खुद भी एक राजनैतिक कार्रवाई है। यह उत्पीड़न पर पर्दा डालकर उन्हें जारी रहने देने का एक तर्क है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि निजी स्तर पर लड़ी जाने वाली लड़ाइयों में कोई अंतर्विरोध नहीं है। Hindi Anuvad Article
कैरोल हैनिच ने यह लेख एक सीमित संदर्भ में लिखा था और इस लेख की लोकप्रियता का उन्हें कतई अंदाज नहीं था। गूगल सर्च के जरिये जब उन्हें इसकी लोकप्रियता का पता चला तो वे चकित रह गईं और 2006 में उन्होंने इसकी एक भूमिका भी लिखी। यहां मौजूद अनुवाद में वह भूमिका पहले दी गई है और उसके बाद मूल लेख। पर्सनल इज पालिटिल कैरोल हैनिच अनुवाद –  अनुपमा गुप्ता कैरोल हैनिच द्वारा 2006 में लिखी गई भूमिका ‘स्त्रीकाल’, अंक-8, जनवरी 2012 में पृष्ठ 9-14 पर प्रकाशित

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