‘बलात्कार संस्कृति’ के विरुद्ध – कविता कृष्णन

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यौन हिंसा असल में औरतों पर पितृसत्तात्मक अनुशासन थोपने का एक तरीका है। जो औरतें इस अनुशासन का विरोध करती हैं उन्हें उनकी इस धृष्टता के लिए बलात्कार द्वारा दंडित किया जाता है। यौन हिंसा और बलात्कार का खौफ फैसले लेने के औरतों के अधिकार पर स्थायी आंतरिक सेंसर के रूप में काम करता है। और यौन हिंसा से ‘सुरक्षा’ के नाम पर औरतों पर तरह-तरह की पाबंदियां लगायी जाती हैं। इनमें सबसे आम है महिला छात्रावासों में कर्फ्यू जैसे हालात। फिर ड्रेस कोड, मोबाइल फोन के उपयोग पर प्रतिबंध, दोस्ती (खासकर पुरुषों से) पर प्रतिबंध, घर से दूर के किसी कालेज में दाखिले को हतोत्साहित किये जाने जैसी अनेक बंदिशें सामने आती हैं। अगर यौन हिंसा और उससे निपटने के यही पितृसत्तात्मक उपाय जारी रहे तो इस वातावरण में औरतों का दम घुटते देर नहीं लगेगी।
कुछ साल पहले, जब पत्रकार सौम्या विश्वनाथन की हत्या हुई थी तब दिल्ली की मुख्यमंत्री ने टिप्पणी की थी कि सौम्या ने रात के 3 बजे सड़क पर निकलने का ‘जोखिम उठाया’ था। दिल्ली के पिछले पुलिस आयुक्त ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था, ‘‘अगर रात के 2 बजे औरतें अकेली बाहर जाती हैं तो उन्हें असुरक्षा की शिकायत नहीं करनी चाहिए। आप अपने भाई या ड्राइवर को साथ लेकर जाइए।’’ जाहिर है, इन बयानों का जोरदार विरोध हुआ। तमाम लोगों ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि कामकाजी महिलाओं के सामने देर रात बाहर निकलने से बचने का कोई विकल्प नहीं होता। अगर आप को काम करना है तो (रात को भी) बाहर तो निकलना ही पड़ेगा। मौजूदा मामले में, खुद भाजपा नेताओं ने संसद में कहा कि पीड़िता ने कुछ भी अनुचित नहीं किया था – वह कोई बहुत देर रात तक बाहर नहीं रही थी। एक राष्ट्रीय अंग्रेज़ी टीवी चैनल दिल्ली में बलात्कार पर चर्चा के दौरान प्रमुखता से ये लाइनें दिखाता रहा कि -‘‘उसने उत्तेजक कपड़े नहीं पहने थे…. वह देर रात तक बाहर नहीं थी… वह अकेली नहीं थी।’’
बिना समुचित कारण के महिलाओं को रात में बाहर नहीं निकलना चाहिए, महिलाओं को ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जो ‘उत्तेजक’ न हों, महिलाएं अपनी सुरक्षा के लिए अपने चलने-फिरने और कपड़ों के चयन को सीमित कर लें, आदि ऐसी अनेक बहु-स्वीकृत धारणाएं हैं जिनका लब्बो-लुवाब यह है कि औरतों को बलात्कार के लिए ‘आमंत्रित’ करने के आरोप से खुद को बचाना चाहिए।
पुलिस कमिश्नर ने उसी प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि लड़कियों को अकेले रात में नहीं चलना चाहिए; उन्हें किसी के साथ चलना चाहिए। और अगर दो बजे रात में आप अकेले चलेंगे तो हमसे कैसे उम्मीद करते हैं कि हम आपको बचाने आयेंगे? अब ये जो घटना घटी है, इसमें न तो रात के दो बजे थे और न ही वह अकेली थी, इसमें आप क्या कहेंगे? लेकिन मैं यह कहना चाहती हूं कि लड़कियां अगर अकेले भी निकलें, कितने भी बजे रात में निकलें, तो उन्हें स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं है कि उन्हें तो काम से निकलना पड़ता है, उन्हें बीपीओ या मीडिया की नौकरी से लौटना पड़ता है। अगर उसकी इच्छा है कि वह रात में निकले, रात में जाकर सिगरेट खरीदे, रात में जाकर सड़क पर टहले तो क्या इस इच्छा को अभिव्यक्त करना कोई गुनाह हो जायेगा? इसके लिए हम ये डिफेन्सिव, रक्षात्मक तर्क सुनना ही नहीं चाहते कि लड़कियां नौकरी के लिए घर से बाहर निकलती हैं, क्या कर सकती हैं वे बेचारी, मजबूर हैं घर से बाहर निकलने के लिए। हम मानते हैं रात के समय हों या दिन के समय हों; घर के भीतर हों या घर के बाहर हों; किसी भी वजह से हों; कुछ भी कपड़े पहने हों; लड़कियों की आजादी सबसे बड़ी चीज है। उनकी बेखौफ आजादी को बचाने की जरूरत है; हम उनके इस आजादी की सुरक्षा की मांग कर रहे हैं। यह हम इसलिए कह रहे हैं कि महिलाओं की सुरक्षा का शब्द काफी पिटा हुआ शब्द है। इस सुरक्षा का मतलब हम सब जानते हैं – इसे हमने अपने परिवार में, स्कूलों में, वार्डन से – सबसे सुन रखा है। सुरक्षा का मतलब है – अपने दायरे में रहो। घर की चारदीवारी में रहो, एक खास तरह के कपड़े पहनो। इसका मतलब कि आप अपनी आजादी से मत रहिए तब आप सुरक्षित रहिएगा। ढेर सारे पितृसत्तात्मक नियम-कानूनों को महिलाओं की सुरक्षा बनाकर परोसा जाता है। हम इस परोसी हुई थाली को पटक रहे हैं – हमें यह नहीं चाहिए।
इस बार के विरोध-प्रदर्शन में अनेक महिलाओं द्वारा बलात्कार की इस संस्कृति को चुनौती देते देखना और सुनना उत्साहवर्धक था। वे उस संस्कृति को चुनौती दे रही थीं जो बलात्कार को जायज ठहराती है और महिलाओं पर बलात्कार के लिए ‘उकसाने’ या ‘आमंत्रित करने’ का आरोप लगाती है। प्रदर्शन में शामिल एक प्लेकार्ड पर लिखा था – ‘‘हमें कपड़े पहनने का सलीका मत सिखाओ, अपने बेटों को सिखाओ कि बलात्कार न करें।’’ एक अन्य प्लेकार्ड में कहा गया था -‘‘मेरा मनोबल मेरे स्कर्ट से ऊंचा है, मेरे कपड़ों से ज्यादा जोरदार मेरी आवाज है।’’ दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा जो शायद पहली बार किसी विरोध-प्रदर्शन में शामिल हुई थी, के हाथ में एक हस्तलिखित प्लेकार्ड था जिसमें कहा गया था -‘‘तुम बलात्कार इसलिए करते हो क्योंकि तुम्हें कपड़े उकसाते हैं? मैं तुम्हारा मुँह तोड़ूँगी, क्योंकि तुम्हारी इस हरकत ने मुझे उकसाया है!’’
जब महिलाओं को पितृसत्तात्मक शर्तों (जो औरतों पर कायदे और पाबंदियाँ थोपती हैं) पर ‘सुरक्षा’ दी जा रही हो तो ऐसे में यही कहना माकूल होगा कि -‘एक एहसान करिए कि हम पर कोई एहसान मत करिए।’ महिलाओं के लिए हमें पितृसत्तात्मक ‘चैकसी’ की ज़रूरत नहीं है बल्कि हमारी मांग है कि सरकार, पुलिस, अदालतें और अन्य संस्थाएं बगैर यौन-हिंसा के भय के जोखिमपूर्ण कार्य करने, अपनी मर्जी के कपड़े पहनने और रात या दिन किसी भी समय स्वतंत्रतापूर्वक घूमने-फिरने के महिलाओं के पूर्ण अधिकार की रक्षा के लिए आगे आएं। आखिर जोखिमपूर्ण काम करने और सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षित होने की आजादी मर्दों को तो यूं ही मिली हुई है। बल्कि मर्दों के जोखिमपूर्ण काम को आम लोग बहुत महिमामंडित करते हैं।
यौन हिंसा के विरोध में दिल्ली पुलिस द्वारा हाल ही में शुरू किए गए अभियान को देखिए, आप को इस बात से हैरानी होगी कि इसमें एक भी औरत नहीं है। बल्कि इसमें अभिनेता और निर्देशक फरहान अख्तर यह कहते हुए दिखाई देते हैं -‘‘दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाइए। क्या आप मर्द लोग मेरा साथ देंगे?’’ दिल्ली पुलिस द्वारा सालों से प्रयोग किए जा रहे एक अन्य विज्ञापन में एक चित्र है जिसमें दिखाया गया है कि बस स्टाप पर एक महिला को पुरुषों का एक समूह उत्पीड़ित कर रहा है और कुछ पुरुष और महिलाएं चुपचाप यह देख रहे हैं। इस पोस्टर का संदेश यह है कि ‘‘इस चित्र में जो लोग हैं वे मर्द नहीं हैं….. या ऐसा नहीं होना चाहिए।’’ यह पोस्टर ‘‘असली मर्दों’’ से अनुरोध करता है कि वे उस औरत को ‘‘शर्म और चोट से बचाएं।’’ इसका आशय यह है कि यौन उत्पीड़न करने वाले ‘‘असली मर्द’’ नहीं हैं; कि उत्पीड़ित महिलाओं को (गुस्से की बजाय) ‘‘शर्म’’ महसूस होती है; कि सिर्फ ‘‘असली मर्द’’ ही महिलाओं की सुरक्षा कर सकते हैं। इसमें महिलाओं की स्वतंत्रता और अधिकारों पर बात करने का राज्य सरकार का कोई इरादा नहीं दिखता।
मुश्किल यह है कि यहां पौरुष-प्रदर्शन को समाधान के रूप में रखा जा रहा है जब कि वास्तव में यही महिलाओं पर होने वाली हिंसा की समस्या की जड़ है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं पर सिर्फ बलात्कार के रूप में ही हिंसा होती है। हाल के दिनों में, देश के अलग-अलग हिस्सों में, ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जिनमें किसी महिला के पिता या भाई ने किसी विवाहेतर संबंध के कारण या अपनी जाति के बाहर शादी करने के कारण उसे (अपनी बेटी या बहन को) मार डाला। तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में एक व्यक्ति ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी बेटी ने एक दलित से शादी कर ली थी। यहां पुरुषों को इस बात का उपदेश दिया जा रहा है कि वे महिलाओं को ‘शर्म’ से बचाएं और उनके ‘सम्मान’ की रक्षा करें। जब वे अपनी बहनों या बेटियों के रिश्तों की निगरानी करते हैं – और अगर वह (लड़की) उनका कहना न माने तो उसकी हत्या करके भी वे यही दावा करते हैं कि ऐसा उन्होंने ‘सम्मान’ की रक्षा के लिए किया।
तब, इस बात से यह धारणा सामने आती है कि ‘बलात्कार’ से औरत की ‘इज्जत’ लुट जाती है। कहा जाता है कि पुराने ज़माने में राजपूत रानियां आक्रमणकारी (विजेता) सैनिकों के बलात्कार से बचने के लिए सामूहिक रूप से खुद को जीते-जी आग लगा लेना बेहतर समझती थीं। बलात्कार के बाद बड़ी संख्या में महिलाओं के आत्महत्या कर लेने का कारण निश्चित रूप से यह तथ्य ही है कि उन्हें बताया जाता है कि अब उनकी जिंदगी बर्बाद हो गयी है और जीने लायक नहीं रह गयी है।
संसद में सुषमा स्वराज ने एक बात कही जो मुझे बहुत ही घृणित बात लगी, बहुत निंदनीय बात लगी। उसमें उन्होंने कहा कि अगर यह लड़की बच भी जाती है, तो वो जिंदा लाश बचेगी। क्यों? उसने संघर्ष किया, इसीलिए उसे सबक सिखाने के लिए इन बलात्कारियों ने बलात्कार किया। मैंने तो अखबारों में पढ़ा कि जब उस लड़की को होश आया तो वह यही पूछ रही थी कि वे पकड़े गये या नहीं पकड़े गये। उसकी लड़ने की इच्छा मरी नहीं। उस लड़ने की इच्छा को हम सलाम करते हैं। हम कहते हैं कि जो लोग बलात्कार के बाद जीवित रहते हैं वे जिंदा लाश नहीं हैं। वे पूरी जीती-जागती महिला हैं, लड़ती और संघर्ष करती महिला हैं और ऐसी तमाम महिलाओं को हम सलाम करते हैं।
दिल्ली में युवती के बलात्कार और हत्या के प्रयास पर घृणा और गुस्सा लाजिमी है। इस आक्रोश, एकजुटता और न्याय के लिए संघर्ष से बंधुआ, साम्प्रदायिक और जातीय बलात्कार की शिकार महिलाओं को भी लाभ मिलना चाहिए। पुलिस या सेना की वर्दी, और जाति तथा समुदाय की ताकत बलात्कार और हत्या का लाइसेंस नहीं हो सकती। अगर दिल्ली में हुए इस बलात्कार ने यौन हिंसा के अपराध के प्रति लोगों को जगाया है तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि न्याय की गुहार लगा रही मनोरमा, नीलोफर, आसिया, सोनी, प्रियंका भोटमांगे (खैरलांजी), बिल्कीस बानो (गुजरात) और तमाम अन्य महिलाओं की आवाज सुनी जाए। Kavita Krishnan
जबर्दस्त जनविरोध से घिरी दिल्ली पुलिस और दिल्ली की मुख्यमंत्री प्रवासी कामगारों को ‘बाहरी शत्रु’ के रूप में प्रोजेक्ट करने का पिटा हुआ फार्मूला अपना रही हैं। कुछ अन्य ताकतें भी यौन हिंसा के विरुद्ध उपजे इस आक्रोश को प्रवासी गरीबों के विरुद्ध वर्गगत घृणा में तब्दील करने की कोशिश कर रही हैं। टीवी पर एक इंटरव्यू में शीला दीक्षित ने कहा कि प्रवासियों की आमद के कारण दिल्ली का मिजाज़ बदल गया है। वे हमला करके भाग जाते हैं, और इससे शहर में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों से निपटने में मुश्किल होती है। टाइम्स आॅफ इंडिया इन दिनों रासायनिक बंध्याकरण वगैरह की माँग के लिए अभियान चला रहा है। लेकिन अगर इसके बजाय वह नर यौन क्षुधा को बलात्कार के लिए जिम्मेदार ठहराना बंद कर देता तो इससे यौन हिंसा के विरुद्ध अभियान में कहीं ज्यादा मदद मिलती। रासायनिक बंध्याकरण और इस तरह की दूसरी चीजों की मांग इस मिथ्या धारणा पर आधारित हैं कि बलात्कार यौन इच्छा से पनपता है। वास्तव में बलात्कार की प्रेरणा औरत को पाने की इच्छा से नहीं बल्कि औरत के प्रति घृणा से मिलती है ! ब्रिटिश सीरियल रेपिस्ट और किलर राबर्ट नैपर और खूनी जैक जैसे खतरनाक बलात्कारियों के बारे में संदेह है कि वे नपुंसक थे।
बलात्कार के खिलाफ राष्ट्रीय आक्रोश के बीच, मुमकिन है कि हम यह भूल जाएं कि हमारे समाज में बलात्कारी कोई ‘परग्रही जीव’ नहीं है जिसका विनाश न हो सके। बलात्कारी हमेशा पहचानरहित अजनबी ही नहीं होते -90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में, असल में वे पिता, भाई, चाचा-मामा, पड़ोसी होते हैं जिन्हें पीड़िता जानती होती है, जिन पर विश्वास करती है और जिनका सम्मान करना तथा जिनकी बात मानने की उससे अपेक्षा की जाती है। मतलब यह, कि बलात्कारी बाकी समाज से पूरी तरह अलग नहीं हैं। बलात्कारी पैदा नहीं होते। उन्हें बनाया जाता है – उस समाज द्वारा जो महिलाओं को नीचा दिखाता है और गुलाम बना कर रखता है।
महिलाएं जब आजादी की बात करती हैं तो कुछ लोग तुरत उसे उच्छृंखलता क्यों सुन लेते हैं! महिलाओं की आजादी और उच्छृंखलता इन दोनों को एक साथ, एक दूसरे के पर्याय के रूप में ही देखने की क्या जरूरत है? हाल में जो आंदोलन चल रहा है उसमें महिलाओं ने अपनी आजादी और बराबरी की आवाज भी उठाई। न्याय की बात को सिर्फ कुछ बलात्कारियों की सजा तक न सीमित करके उन्होंने हर महिला के लिए आजादी और बराबरी के नारे को बुलंद किया। और जैसे ही उन्होंने ऐसा किया तो चारों तरफ से अलग-अलग राजनीतिक तबकों, राजनीतिक नेताओं, यहां तक कि बाबाओं-गुरुओं की ओर से तुरंत उसके खिलाफ प्रतिक्रिया सुनने में आई। उन्होंने कहा कि अगर महिलाएं लक्ष्मण रेखा पार करेंगी तो वहां उनके साथ बलात्कार होना ही है। उन सारे तबकों से ऐसा सुनना शायद आश्चर्य की बात नहीं है लेकिन हाल में एक लेख मैंने ‘प्रगतिशील’ विचारक राजकिशोर जी का भी पढ़ा, जिसमें उनके तर्कों को पढ़ कर काफी आश्चर्य हुआ। उन्हें भी लगता है कि आजादी के नाम पर कोई वैचारिक फैशन चल पड़ा है। जहां उन्हें स्त्री की आजादी में उच्छृंखलता की आहट सुनाई देती है। अब कहा जा सकता है कि मैं भी उनमें से हूं जिनके बारे में उन्होंने कहा है कि वे यह पूछने पर भड़क उठती हैं और आंखे लाल-लाल करके पूछती हैं कि उच्छृंखलता की परिभाषा क्या है? मैं आंखे लाल करके नहीं पर कुछ सवाल जरूर खड़ा करना चाहूंगी।
उन्होंने अपने लेख में सबसे पहले मेरा नाम लेते हुए मेरे एक भाषण का एक अंश उद्धृत किया है और उसके बाद अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा को उद्धृत किया है और कहा है कि मैं यानी कविता कृष्णन क्रांति की और प्रियंका चोपड़ा प्रतिक्रांति या दक्षिणपंथ की प्रतीक हैं। पहली बात जो मुझे समझ में नहीं आ रही है कि इन सब बातों में जो मूल बात है उसे राजकिशोर जी को पकड़ने में क्या दिक्कत आ रही है। क्योंकि जो बात हम कहना चाह रहे हैं, वह प्रियंका चोपड़ा हों या मैं हूं, चाहे सड़क पर उतरी वे हजारों लड़कियां, जिन्होंने अपने हाथ से प्लेकार्ड बना-बना कर लिखा कि – ‘‘आप हम कैसे कपड़े पहनें यह मत सिखाओ, अपने बेटों को सिखाओ कि वे बलात्कार न करें’’- मुझे लगता है कि इन सारी बातों में एक मूल बात थी कि महिला के कपड़े, उसका उठना-बैठना, अकेले चलना, उसके चाल-चलन को आधार बना कर बलात्कार को जायज न ठहराया जाय। महिलाएं बलात्कार के लिए भड़काती हैं, उत्तेजित करती हैं, इस समूची तर्क पद्धति के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश उन नारों में था, जो कि मेरी बातों में भी झलका और अन्य सारी महिलाओं की बातों में भी झलका। लेकिन इससे बढ़ करके एक बात है, वह यह कि प्रियंका चोपड़ा तो एक अभिनेत्री हैं, वे एक ऐसे बाजार में अपनी जीविका अर्जित करती हैं, तमाम अन्य महिलाओं की तरह, जो बाजार महिलाओं की यौनिकता को, महिलाओं के सबआर्डिनेशन को बेचता है, उसे परोसता है। तो उस बाजार में काम करने वाली किसी महिला को दक्षिणपंथ या कि पूंजीवादी प्रतिक्रांति का प्रतिनिधि बताना, यह कितनी सही बात है? मैं अगर पूंजीवादी ताकतों के किसी प्रतिनिधि को खोजूंगी तो प्रियंका के बजाय नवीन जिंदल को खोजूंगी, जिन्होंने दूसरे कई पूंजीपतियों की तरह खाप पंचायत के तमाम फतवों का विरोध करने की जगह उनके पक्ष में बोला। वे हरियाणा से सांसद हैं और वहां खाप पंचायतों को बनाए रखने में उनका और उनकी सरकार का हाथ है। हमारे देश में जो पूंजीवादी व्यवस्था है वह सामंती पितृसत्तात्मक व्यवस्था को खत्म करने की चेष्टा बिलकुल ही नहीं करती बल्कि उसको और महिलाओं के सामंती शोषण को भी बनाए रखने में पूरी तरह से उसकी भूमिका और हिस्सेदारी है।
राजकिशोर जी ने कहा है कि आजादी और बराबरी का तो सम्मान करना चाहिए लेकिन स्त्रियां कृपा करके पूंजीवादी संस्कृति की चूनर पहन करके तो न घूमें। वे अब तक अज्ञात एक बात बताते हैं कि पूंजीवादी बाजार स्त्रियों को नग्न करता है। मैं पूछना चाहती हूं कि बाजार स्त्रियों को सिर्फ नग्न करता है क्या? क्या आइटम नंबर पेश करने वाला बाजार ही बागबान जैसी फिल्में पेश नहीं करता? जिसमें वह एक पुरानी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को, और महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज द्वारा तय किए गए कुछ मूल्यों को बनाए रखने के तर्क देता है, उसे बनाए रखने के पक्ष में है। क्या बाजार इस तरह के पितृसत्तात्मक मूल्यों को पेश नहीं करता है? जिस समय बाजार महिलाओं को नग्न न करता हो बल्कि ऐसे विज्ञापन जो दिखाते हों कि अगर आप लाइफ इंश्योरेंस खरीदते हैं तो यह एक तरह से महिलाओं के माथे में सिंदूर के बराबर है, तो क्या ऐसे विज्ञापन कम महिला विरोधी हैं? वही बाजार जो आइटम नम्बर पेश करता है क्या ढेर सारे फिल्मों-सिरियलों में महिलाओं के लिए उन्हीं सामंती मूल्यों को बनाए रखने में नहीं लगा रहता? अगर आपको बाजार सुनते सिर्फ नग्नता नजर आए और यह न नजर आए कि हमारे यहां बाजार तमाम तरह के सामंती मूल्यों को बेचता है तो फिर सवाल उठना चाहिए कि आखिर यह कैसी नजर है?
राजकिशोर जी महिलाओं की कामुकता को पेश करने की बात उठाते हैं। मैं याद दिलाना चाहूंगी कि कामुकता सिर्फ नग्न महिला में नहीं होती है, बाजार उसी कामुकता के लिए महिलाओं को अलग-अलग वेष और परिधान में पेश करता है। इसलिए उसमें हम सिर्फ और सिर्फ उन आयामों की ही ओर देखें और उन्हीं की आलोचना करें लेकिन जहां पर वह सामंती-पितृसत्तात्मक मूल्यों को पेश करता है वहां पर हम उसकी आलोचना न करें तो यह बेहद नाकाफी है। मुझे इससे भी सख्त आपत्ति होती है जब हम यह कहते हैं कि स्त्री उत्तेजना और कामुकता पैदा करने की कोशिश करती है। यह नितांत स्त्री-विरोधी बयान है। राजकिशोर जी कहते हैं कि नचैये-गवैयों को अपना ध्ंाधा करने दीजिए लेकिन दूसरी स्त्रियां उस कामुकता का पालन-पोषण क्यों कर रही हैं। ‘नचैये-गवैयों’ में जो पुरुषसत्तावादी महिला-विरोधी नजरिया और महिलाओं के प्रति अपमान भरा है, क्या वह ‘डेंटिंग-पेंटिंग’ वाली शब्दावली से अलग है?
हमें पूंजीवाद का और महिलाओं से उसके रिश्ते को और बेहतर ढंग से समझने की जरूरत है। महिलाओं की आजादी की बात करने का मतलब उन्हें पूंजीवादी आग में झोंक देना नहीं होता। मैं यह भी पूछना चाहती हूं कि पुरुषों के पास तो यह आजादी लंबे समय से है, जो महिलाओं को तो दी नहीं गई कि वे पैंट-शर्ट पहनें और उनको पसंद आए तो वे विदेशी ढंग की किस्म-किस्म की वेश-भूषा अपना सकें, पुरुषों को यह आजादी भी है कि वे खुली सड़क पर कहीं भी अपनी हाजत रफा कर सकते हैं, उन्हें ट्वायलट ढूंढने की भी जरूरत नहीं। उनके पास ये आजादी भी है कि वे कहीं भी खुलेआम सड़क पर अपना कपड़ा खोल सकते हैं और सलमान खान जैसे तमाम एक्टर अपना सिक्स पैक वाला पेट दिखा सकते हैं, उनके बारे में हम पूंजीवादी संस्कृति की बात या उच्छृंखलता की बात कभी नहीं करते। उन्हें देखकर उच्छृंखलता शब्द हमारी जुबान पर शायद ही आता हो तो आखिर महिलाओं की आजादी और बराबरी के मामले में ही ये बातें क्यों कही जाएंगी?
आज के समाज में महिलाएं आजादी से जो कुछ भी चुनती हैं, वह एक बहुत खास दायरे की, बहुत सीमित दायरे की आजादी होती है। क्योंकि हम जो भी चुनते हैं वह तमाम तरह के दबावों को झेलते हुए, जूझते हुए ही चुनते हैं। जैसे हम अगर एक रिसेप्सनिस्ट के बतौर काम करते हैं या अभिनेत्री के बतौर काम करते हैं तो हम पर एक खास तरह का दबाव होता है कि आपको एक खास तरह का डेªस पहन कर, खास तरह की लिप्स्टिक लगाकर, खास तरह का मेकअप करके आना पड़ेगा। यह मांग हमसे जाॅब मार्केट भी करती है और यह दबाव पूंजीवादी संस्कृति भी हम पर डालती है कि हम साइज जीरो बनें इत्यादि। इस दबाव को मैं कत्तई सही नहीं मानती। लेकिन सिर्फ यही दबाव तो है नहीं। लिपिस्टिक न लगाने का, मेकअप न करने का, डेंटिंग-पेंटिंग न करने का दबाव भी तो महिलाओं पर होता है। यह सामंती समाज का, पितृसत्तात्मक समाज का दबाव है, जो महिलाओं को अपनी यौन आजादी, या अन्य किस्म की भी जो आजादी है, उसे अभिव्यक्त करने की आजादी नहीं देता। पूंजीवादी समाज भी नहीं देता और हमारे यहां का दकियानूस पिछड़ा समाज भी यह आजादी कत्तई नहीं देता। तब किसी खास तरह के माडर्न कपड़े पहनने को, नाचने-गाने को ही कहा जाए कि महिलाएं यह सब पूंजीवादी दबाव में कर रही हैं और हम यह न समझ पाएं कि महिलाएं ऐसा जब नहीं करती हैं, खुद को रोकती हैं नाचने-गाने से, खुद को रोकती हैं जींस पहनने से, खुद को रोकती हैं पुरुष मित्र बनाने से तो यह वही बाजार है जो यह दबाव भी डालता है। क्योंकि यही बाजार है जो पिछड़े पुराने मूल्यों को भी पेश कर रहा है। इसीलिए इन तमाम तरह के दबावों को झेलते, उनसे जूझते हुए महिलाएं अपना निर्णय लेती हैं।
राजकिशोर जी अपने इस लेख में गांधीजी को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक महिलाएं सुरक्षित पैदल चल सकें तभी वास्तव में स्त्रियों का सम्मान होगा, लेकिन इसमें वे जोड़ते हैं कि यह स्थिति पैदा हो सके इसके लिए आवश्यक है कि स्त्रियां पैसा कमाने के लिए या फ्रीलांस के बतौर अपने को मिठाई की तरह प्रस्तुत करने का लालच त्यागें। यहां वे उपभोक्तावाद की भी बात करते हैं। अगर हम महिलाओं को सुरक्षित देखना चाहते हैं तो सबसे पहले यह नजरिया हमें त्यागना होगा कि महिलाएं जो पैसा कमाने के लिए नाचती-गाती हैं वे अपने को मिठाई की तरह पेश कर रही हैं। या जो महिलाएं माॅडर्न कपड़े पहनती हैं या लिप्स्टिक लगाती हैं वे मिठाई की तरह खुद को पेश कर रही हैं। यह नजरिया महिलाओं की सुरक्षा को उनके पहनावे, उनके चाल-चलन से जोड़ता है, महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी महिलाओं पर खुद डालता है और कहीं न कहीं बलात्कार और यौन हिंसा को जायज ठहराता है। क्योंकि ऐसा कहने का मतलब यही हुआ कि महिला अगर खुद को मिठाई की तरह पेश कर रही है तो उस पर यौन हिंसा होनी ही है। लक्ष्मण रेखा पार करेगी तो रावण सामने खड़ा ही है। इन तरह-तरह से कहे गये वाक्यों में कोई खास अंतर नहीं है। इसलिए मुझे लगता है कि प्रगतिशील तबकों में भी महिलाओं की आजादी-बराबरी की बात से अगर कुछ दुविधा पैदा हुई है, कुछ परेशानी पैदा हुई है तो अच्छी बात है और महिलाओं को इस परेशानी को आगे और आगे बढ़ाने की जरूरत है। मैं इस परेशानी का पूरा स्वागत करूंगी।
इस तरह की घटनाओं में राजनीति न हो ऐसा कहने वाले काफी सारे लोग होते हैं। वे कहते हैं कि ऐसी घटनाओं में राजनीति मत करिये। लेकिन मुझे लगता है कि राजनीति बहुत सस्ती चीज नहीं होती है। राजनीति करने की भी जरूरत है। क्योंकि मैं मानती हूं कि हमारे देश की बलात्कार को जायज ठहराने की जो संस्कृति है, जो लोग बलात्कार के पक्ष में बोलते हैं, मैंने सुना है केपीएस गिल ही कह चुके हैं कि लड़कियां तंग कपड़े पहनती हैं इसलिए बलात्कार होता है, और ऐसा कहने वाले ढेर सारे लोग हैं, जो देश भर में बड़े-बड़े पदों पर हैं। अगर इस संस्कृति को बदलना है तो हमें बलात्कार को एक राजनीतिक मुद्दा बनाना पड़ेगा। महिलाएं अपने साथ होने वाली हिंसा के बारे में क्या कह रही हैं, इसे सरकार को सुनना पड़ेगा। संसद के भीतर कुछ घड़ियाली आंसू बहा देने से काम नहीं बनेगा। मृत्युदंड, मृत्युदंड चिल्लाने से वास्तविक समस्या का हल नहीं निकलेगा। मुझे हास्यास्पाद लगता है, जब भाजपा मृत्युदंड की मांग करती है क्योंकि जिन प्रदेशों में उसकी सरकारें हैं, वहां भाजपा की गुंडा वाहिनियां जीन्स पहनने वाली लड़कियों को दौड़ाती हैं, उन लड़कियों को दौड़ाती हैं, जिनके मुसलमान या ईसाई दोस्त हैं और कहती हैं कि लड़कियों को भारतीय संस्कृति के हिसाब से रहना होगा वरना … इस तरह के गुंडे जिस तरह के समाधान देते हैं, उसके खिलाफ हमें एक प्रतिवादी-प्रतिरोधी संस्कृति खड़ी करनी होगी, प्रतिवादी राजनीति देनी होगी जो महिलाओं की सचमुच की आजादी, उनके बेखौफ जीवन जीने के अधिकार की सुरक्षा कर सके।
आज दिल्ली में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। यह शर्म की बात है कि जो सरकार और पुलिस बलात्कारियों के पक्ष में ढेर सारे तर्क पेश करती है, वह महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों पर हमला करने के लिए तैयार है। कम से कम सरकार को इतनी समझ तो होनी चाहिए कि लोगों का गुस्सा वाटर कैनन से ठंडा नहीं होने वाला और लाठी डंडों से पीछे नहीं हटने वाला।

7 Replies to “‘बलात्कार संस्कृति’ के विरुद्ध – कविता कृष्णन”

  1. बहन आपके विचार पूर्णतया सत्य हैं…, हम आपके विचार से पूर्णतया सहमत हैं…, इस समाज को आज एक क्रांति की जरुरत है जो इस पितृसत्ता को उखाड़ सके और नारी समाज को पूर्णतया आज़ादी दिला सके…, हम आपके साथ हैं…, जय हिन्द

  2. बिलकुल सही कहा की हमे इस पितृसतात्मक व्यवस्था को ख़त्म करने की बात करनी चाहिए कभी कभी मै सोचती हु की आज भी भारत में ये सामंती मूल्य क्यों बचे है तो मुझे ये लगता है की या जो मेरा अनुभव है वो ये की अंग्रेजो ने भारत का स्वाभाविक विकास अवरुद्ध किया और अपनी आधुनिकता आरोपित की मतलब हमारे यहाँ आधुनिकता किसी जनवादी क्रांति से नहीं बल्कि थोपी गई थी इसीलिए लोग आज भी उन सामंती मूल्यों से निकल नहीं पाए है

  3. सही बात है आज हर हाल में हमारा समाज हम लड़कियों को ही दोषी बनाता है. एक तरफ तो हमें स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दी जाती है तो दूसरी तरफ अनेकों पाबंदियां लाद दी जाती हैं.

  4. कविता जी का यह लेख रा. सहारा में छप चुका है। कविता जी ने इस लेख में राजकिशोर को विस्तार से उद्धृत किया है। इस लेख पर राजकिशोर की प्रतिक्रिया भी उसी दिन रा. सहारा में छपी थी। मेरे खयाल से, न्याय तभी हो सकता है, जब इस लेख के साथ राजकिशोर का मूल लेख और इस लेख पर उसकी प्रतिक्रिया भी प्रकाशित की जाए।
    अगर यह ब्लॉग डिबेट के लिए है, तो किसी भी बहस को एकतरफा नहीं होना चाहिए।
    – रा.

  5. राजकिशोर जी का मूल लेख 13 जनवरी तथा पुनः कविता जी के लेख पर उनकी प्रतिक्रिया 27 जनवरी के राष्ट्रीय सहारा में 10वें पेज पर प्रकाशित हुई थी. राष्ट्रीय सहारा की वेबसाइट पर ये लेख पढ़े जा सकते हैं.

  6. बिलकुल सहमत …
    मानसिकता में खोट तो कानून से क्या होगा ????

  7. सहमत …
    मानसिकता में खोट तो कानून से क्या ?

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