यथा स्थिति से टकराते हुए

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चूंकि इनके कथ्य में नवीनता है इसलिये ये कहानी लेखन के पारंपरिक ढांचे को तोड़ती हैं, लेकिन इस दिशा में कहानीकारों को और सजगता बरतने की जरूरत है। सुप्रसिद्ध कहानीकार अल्पना मिश्र ने यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुडी कहानियाँ कहानी संग्रह को वर्तमान समय की युवाओं द्वारा दलित स्त्री के पक्ष में खड़े होने की सामाजिक चेतना का प्रमाणिक दस्तावेज बताया। उन्होने कहा कि आज के समय में इस कहानी संग्रह के माध्यम से युवा रचनाकारों ने अपनी सृजनशीलता से समाज के तमाम तबको में सांझा काम और सांझा लडाई की ओर जो संभावनाशील संकेत किया है वह हमारे लिए लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में ऐसे काम की सबसे ज्यादा जरुरत है। दिनांक 24.4.2012 को सायं 5 बजे गाँधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली में अनिता भारती तथा बजरंग बिहारी तिवारी द्वारा संपादित कहानी संग्रह ‘यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियाँ’ (लोकमित्र प्रकाशन) का विमल थोरात, डॉ.तेजसिंह, अल्पना मिश्र, संजीव कुमार, कवितेन्द्र इन्दु, अनिता भारती और बजरंग बिहारी द्वारा लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम के शुरू में प्रकाशक की ओर से बजरंग बिहारी तिवारी ने उपस्थित लोगों का स्वागत किया। पुस्तक लोकार्पण के बाद हुई परिचर्चा में हिस्सा लेते हुए अनिता भारती ने कहानी संग्रह में शामिल कहानीकारों का परिचय तथा कहानी संग्रह पर काम करने के दौरान हुए अनुभवों को साझा किया। कहानी संग्रह की अवधारणा पर बात करते हुए उन्होने बताया कि इस महत्वपूर्ण कार्य के पूरा होने में लगभग छह महीने का समय लगा। बेहद सोच-समझ और वैचारिकता के साथ इसका मुख्य फोकस दलित स्त्री रखा गया। संग्रह में शामिल सारी कहानियां दलित स्त्री के संघर्ष के विभिन्न पहलुओं पर है तथा उनके पक्ष में खड़ा होने का दावा करती है। मुख्य वक्ता के तौर पर प्रो.विमल थोरात ने कहा कि दलित स्त्री की पहचान महाड़ सत्याग्रह से बननी शुरू हुई। यह ऐतिहासिक सत्याग्रह डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में चला था। उस समय तक हालांकि दलित स्त्रियों की पहुंच शिक्षा तक नहीं थी फिर भी उन्होंने आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और आन्दोलन को धार दी। बाद में दलित महिलाओं की शिक्षित पीढ़ी आई। यह पीढ़ी शांताबाई दांड़े, बेबी ताई काबंले से होती हुई अनिता भारती तथा पूनम तुषामड़ तक पहुंती है। विमल थोरात ने जोर देकर कहा कि दलित स्त्री विमर्श आयातित नहीं है और भारत के आयातित नारी विमर्श में दलित स्त्रियों के लिए कोई जगह नहीं बनी हैं। वरिष्ठ आलोचक तेजसिंह का कहना था कि जाति संकीर्णता पर प्रहार होना चाहिए। यह कहानी संग्रह जाति पर प्रहार करता है। इसमें दलित व गैर दलित युवा रचनाकारों का एक साथ दलित स्त्री के सवाल पर लिखना इस बात का इशारा करता है कि जाति के खिलाफ कैसे लडा जाए। संकलित कहानियों के संदर्भ में बात करते हुए उन्होने कहा कि कहानियों में आए विचार तो बहुत अच्छे हैं लेकिन कहानी सामाजिक बयान बन कर रह गयी है। कहानीकारों को अपने अनुभव को अनुभूति में ढालने का कौशल सीखना होगा। उन्होंने आदर्शवाद से बचने की सलाह दी। युवा आलोचक संजीव कुमार ने दोहरे आभिशाप से ग्रस्त दलित स्त्री को बीच बहस में लाने के लिए संपादकों व प्रकाशक को धन्यवाद देते हुए कहा कि पूरे संग्रह को एक इकाई के रूप में पढ़े जाने की जरूरत है न कि हर कहानी को अलग-अलग पढ़ा जाए। संग्रह में शामिल कहानियों के ‘फार्म’ पर विस्तार से बात करते हुए उन्होंने कहा कि ये कहानियां पात्रों के उत्पीड़न के लंबे इतिहास की कथा कहती हैं। स्त्री लेखन और दलित लेखन पर बात करते हुए अल्पना मिश्र ने दलितों व स्त्रियों में शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन की कमी रेखांकित करते हुए कहा कि स्त्रियों का असंगठित होना उनके विकास में सबसे बड़ी बाधा है। उन्होंने पितृसत्तात्मक चालाकियों को पहचानने तथा इनसे मुक्ति पाने के लिए समान विचार वालों को साथ आने का आह्वान किया। युवा आलोचक कवितेन्द्र इन्दु ने इस पुस्तक के प्रकाशन को हिन्दी जगत की ऐतिहासिक घटना बताते हुए दलित विमर्श और स्त्री विमर्श के बीच मौजूद उपेक्षा/विरोध के रिश्ते की आलोचना की और जातिगत-जेंडरगत उत्पीड़न को एक ही दमनकारी व्यवस्था के रूप में देखने और उनके खिलाफ साझी लड़ाई की जरूरत पर जोर दिया। अस्मितावादी विमर्शों के उलट दलित स्त्री विमर्श को ‘इन्क्लूसिव डिस्कोर्स’ का नाम देते हुए उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में शामिल रचनाकार जाति, जेंडर और वर्ग के सवालों को एक साथ उठा रहे हैं, इसलिये इसमें दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और मार्क्सवाद के सरोकारों का संश्लिष्ट रूप विकसित होता दिखाई दे रहा है। बेहद सफलतापूर्वक कार्यक्रम का संचालन करते हुए बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहा कि आंदोलनधर्मिता और रचनाशीलता के मौजूदा संबंधों को समझना तथा जाति और पितृसत्ता के मुद्दे पर युवा रचनाकारों की सोच को सामने लाना हमारा मकसद था। दलित स्त्री के दोहरे-तीहरे उत्पीड़न के यथार्थ पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि विभिन्न मुक्तिकामी विमर्शों के अपने-अपने प्रयास महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मुक्ति के प्रयासों में साझापन भी होना चाहिए। दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियों के रूप के बारे में उठे सवालों पर उनका कहना था कि अंतर्वस्तु अपने अनुसार रूप तलाश लेती है, इसे लेकर चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। अंत में पूनम तुषामड़ का काव्य पाठ भी हुआ। कार्यक्रम के अंतिम क्षणों में दलित साहित्य की वरिष्ठ व प्रख्यात लेखिका बेबी ताई कांबले के साहित्यिक सफरनामें पर चर्चा करते हुए उन्हें भावभीनी पुष्पांजली देते हुए दो मिनट का मौन रखा गया।