यथा स्थिति से टकराते हुए

मुक्तिकामी विमर्शों के अपने-अपने प्रयास महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मुक्ति के प्रयासों में साझापन भी होना चाहिए। आंदोलनधर्मिता और रचनाशीलता के मौजूदा संबंधों को समझना तथा जाति और पितृसत्ता के मुद्दे पर युवा रचनाकारों की सोच को सामने लाना हमारा मकसद था।

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फुसफुसाहट में साजिश

संपादक मंडल को दलितों की समस्याएं अगर जड़ से मिटी दिखाई दे रही हैं तो गोहाना से लेकर खैरलांजी होते हुए मिर्चपुर तक फैली घटनाएं किस समाज से संबंधित हैं? दलितों के समक्ष अगर एकमात्र विकल्प धर्मवीर का विचार-दर्शन है तो आम्बेडकर के चिंतन पर अब उसकी क्या राय है? संपादक-मंडल दलितों के चेहरे पर ढाई हजार साल में पहली बार मुस्कराहट देख रहा है। इस चमत्कार को जारवादी नशे का परिणाम माना जाए या कुछ और?

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