हॉब्सबॉम हमारे लिए

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एक व्यक्ति जिसने आपको अपने समय और समाज को देखने-समझने की अंतर्दृष्टि दी हो, जिसके लेखन में मौजूद आवेग से आप प्रेरणा लेते रहे हों, उसका गुजरना बहुत शाॅकिंग है – हाॅब्सबाॅम ऐसे ही व्यक्ति थे। पेशेगत तौर पर हाॅब्सबाॅम इतिहासकार थे, लेकिन उनका योगदान इतिहास की संभावनाओं के खोजकर्ता होने तक सीमित नहीं है, बल्कि वे पिछली दो सदियों की मानवीय सभ्यता और उसके संघर्षों को समझने की अन्तर्दृष्टि देने वाले चिंतक हैं, उन्होंने इतिहास के केन्द्र में मौजूद अभिजन को जन से विस्थापित कर दिया, यह उनकी पक्षधरता की सच्ची अभिव्यक्ति है।
हाॅब्सबाॅम से पहले हमने पिछली दो सदियों के इतिहास में बस बड़े-बड़े बुर्जुआ अभिजातों और राष्ट्राध्यक्षों के नाम और व्यवस्था परिवर्तन में उनकी ‘महान’ भूमिकाओं के बारे में ही सुना था। ग्रेट मैन – चर्चिल, हिटलर और ऐसे ही कुछ अन्य लोग इस सदी के केन्द्र में रहे थे। हाॅब्सबाम ने इस इतिहास में मौजूद समस्याओं पर ही सवाल नहीं खड़े किए, बल्कि कुछ ‘महान’ लोगों को इस सदी का केन्द्र और व्यवस्था परिवर्तन का स्रोत बताने वाले आख्यान को उन्होंने अब तक अदृश्य रहे जनसमुदाय की गतिविधियों से आच्छादित कर दिया। उन्होंने न सिर्फ जनसमुदाय को इस सदी और इसके इतिहास के केन्द्र में ला दिया, बल्कि इतिहास निर्माण के सक्रिय एजेंट के तौर पर उसे चिन्हित भी किया। ‘सोशल बैंडिट्स’, आउटलाॅज, अर्बन डिसेन्टर्स आदि पर उनका लेखन इसके उदाहरण हैं। हाॅब्सबाॅम के लिये सामाजिक इतिहास मजदूर वर्ग तक सीमित नहीं है, न ही उसमें केवल फैक्टरी वर्कर्स की बात की जानी चाहिए; शहरों में बैरिकेटिंग कर रहे लोग, जनता के हित में लैंड लाॅडर््स को लूटने वाले कैप्टन स्विंग जैसे लोग, इस इतिहास से बाहर नहीं किए जा सकते। हाॅब्सबाॅम को आपने पढ़ा न भी हो तो उनकी किताबों के शीर्षक बता देंगे कि वे किसकी ओर हैं, उनके नायक कौन हैं। ‘बैंडिट्स’, ‘लेबरिंग मेन’, ‘रिवोल्युशनरीज’ उनकी किताबों के नाम है। बैंडिट्स की सामाजिक भूमिका पर पहले-पहल हाॅब्सबाॅम ने ही लिखा।
बीसवीं सदी के दुख-दर्द, मंदी और परेशानियां हाॅब्सबाॅम की अपनी जिंदगी की भी परेशानियां थीं। एक यहूदी, जिसने यूरोप में पूंजीवाद की सफलता और उसके संकटकाल को देखा, अर्बन प्रोटेस्ट और विश्वयुद्ध को देखा, हिटलर के उभार के दौरान जिसने कम्युनिज्म से अपनी प्रतिबद्धता तय की। इस सदी को जिया था हाॅब्सबाॅम ने, लेकिन केवल जिया नहीं था। इन चीजों का उन्होंने ऐतिहासिक विजन के साथ विश्लेषण भी किया था। पूंजीवाद में परिणत हुई 20वीं सदी के बीजांे को तलाशने की प्रक्रिया में उन्होंने 19वीं सदी का अध्ययन किया और जिनका वजूद ही किसी को पता नहीं था उन स्थितियों को मूर्त रूप देते हुए इन दो सदियों के ऐतिहासिक महा-आख्यान को हमारे लिये खोल दिया। यही वजह है कि उनके लिये ‘एज आॅफ इंडस्ट्री’ असल में ‘एज आॅफ पीपुल’ भी थी। जिसकी शुरुआत को ट्रेस करने में उन्होंने अपनी पूरी बौद्धिक क्षमता, पूरी जिंदगी लगा दी।
उन्नीसवी सदी में कृषि क्रांति, पूंजीवादी कृषि, इंक्लोजर मूवमेंट जैसी परिघटनाएं जन्म ले रही थीं, जिसकी एंटी थीसिस के रूप में उन्हंे कैप्टन स्विंग मिला, जो लैंड लार्डस को हुक्म देता था, उन्हें धमकाता था। जो जनता का एक रहस्यमयी हीरो था, जिसने जनता पर किये जा रहे जुल्मों की मुखालफत की। मान सकते हैं कि कैप्टन स्विंग कुछ बदल नहीं सका, लेकिन एक सामाजिक प्रभाव था उसका, 19वीं शताब्दी के खेतिहरों की कल्चरल मेमोरी का पार्ट है वह। पूंजीवाद के विकास और निजी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिये नियम-कानून बनाये गए तो लैंड लाॅर्ड्स ने बड़े-बड़े क्षेत्रों की बाड़ेबंदी करनी शुरू की; जिसमें उन्होंने अब तक सार्वजनिक सम्पत्ति रहे नदी-नालों तक को कब्जा करना शुरू किया, किसानों ने इसका विरोध किया। वे उसे तोड़ नहीं सके, लेकिन उन्होंने विरोध तो किया। पूंजीवादी हितों और निजी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिये जो कानूनी ढांचा तैयार हुआ उसे प्रश्नांकित करने में ‘सोशल बैंडिट्स’ की भूमिका को हाॅब्सबाॅम ने ही पहचाना। विभिन्न स्तरों पर मौजूद इन सबवर्जन को किसी और ने इतनी अच्छी तरह नहीं पकड़ा। हाॅब्सबाॅम ने ‘सोशल फाॅर्म आॅफ प्रोटेस्ट’ के अर्थ को विस्तृत कर दिया, जहां ये प्रतिरोध अदृश्य थे वहां भी उन्होंने उसके तत्व ढूंढ़ निकाले। जन असंतोष को स्वयं प्रतिरोध का एक रूप बताते हुए हाॅब्सबाॅम ने प्रतिरोध की पारम्परिक धारणा (हम माक्र्सवादियों की भी) को ही बदल दिया। हॉब्सबॉम ने इन सबको एक ग्रैंड नैरेटिव के रूप में देखा। क्यों लिखा उन्होंने ‘सोशल बैंडिट्स’ पर? कैप्टन स्विंग पर? क्योंकि ये परम्परा के वे तत्व थे, जहां अन्याय के खिलाफ संघर्ष दिखाई देता है। रेस्क्यू किया उन्होंने अतीत में ही छोड़ दी गई ऐसी यादों को, जिन्हें छोड़ने का अर्थ होता मानवीय इतिहास के एक हिस्से का खत्म हो जाना। अगर उन्हें भुला दिया गया होता तो मानवीय इतिहास को जो नुकसान होता उससे बचा लिया हाॅब्सबाॅम ने।
पूंजीवादी विश्वव्यवस्था पर उनका लेखन माक्र्सवादी विचारों की बेहतरीन अभिव्यक्ति है, पूर्व-पूंजीवाद से पूंजीवादी समाज में मनुष्यता के दर्द भरे संक्रमण का बेहतरीन आख्यान। ‘एज आफ रिवोल्यूशन’ में हाॅब्सबाॅम ने फ्रांसीसी क्रांति और उसके बाद हुए छोटे-छोटे क्रांतिकारी आन्दोलनों को उनकी अंतर्संबद्धता के साथ दिखाया। उनका लेखन सिद्धांत के साथ व्यवहार का ऐसा सधा हुआ तालमेल है जिसमें इतिहास की बात करते हुए आख्यान भी साथ-साथ तैयार होता चलता है। इतिहास का विषय भले ही अतीत हो लेकिन उसकी वास्तविक चिंता तो हमारे वर्तमान से जुड़ी है और हाॅब्सबाॅम को पढ़ते हुए आप लगातार अपने वर्तमान को समझते चलते हैं। उनका इतिहास बताता है कि छोटे-छोटे विरोध, जैसे बैंडिट्स के विरोध – जिन्हें आपराधिक कहा गया – वे जनता के लिये आपराधिक नहीं थे, बल्कि वे जनता के ही प्रतिरोधी स्वर थे। इसी तरह 1917 की क्रांति को अलगाकर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि ऐसे छोटे-छोटे आन्दोलन लगातार रहे हैं, जिन्होंने समाज को बदलने में सहायता की है।
बैंडिट्स और कैप्टन स्विंग जैसीे सामाजिक परिघटनाओं की पहचान अगर न की गई होती, तो हमारे पास स्थितियों की सीमित व्याख्या होती। हम उन्हें सत्तातंत्र की व्याख्या के जरिये समझते और क्रिमिनल के तौर पर ही देखते। इस काम को ई.पी. थाम्पसन वगैरह ने आगे बढ़ाया है, लेकिन हाॅब्सबाॅम का काम न केवल पायनियर, बल्कि बेमिशाल है। कोई समाज किसी मैकेनिकल फार्मूले के तहत रिस्पांस नहीं करता, समाज कैसे रिस्पांस करता है, यह उन्होंने दिखाया। जनसमुदाय की गतिविधियांे से आच्छादित इतिहास को हमारे सामने रखकर हाॅब्सबाॅम ने सिद्ध कर दिया कि पूंजीवाद का इतिहास कुछ ‘महान’ लोगों और तकनीकी विकास की गाथा भर नहीं है, उसमें हर तरफ जनता और उसके प्रतिरोधी स्वर मौजूद हैं। वे एक ऐसे इतिहासकार थे जिन्होंने इतिहास को मूर्त रूप दिया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद-ऐतिहासिक भौतिकवाद के सूत्र को जिंदगी की ठोस जमीन पर साकार करने वालों को उन्होंने इतिहास का नायक बना दिया।
हाॅब्सबाॅम की दृष्टि जितनी व्यापक और गहन थी, प्रासंगिक सूचनाओं का उनका भंडार भी उतना ही अथाह था। उनकी ‘एज आफ एक्स्ट्रीम’ को पढ़ते हुए ऐसा लगता है, जैसे किसी ग्लोब पर बैठकर दुनिया भर के राष्ट्रों को, उनके तमाम छोटे-बड़े विरोधों और आन्दोलनों को एक साथ देखा जा रहा होे। ये बिखरी प्रतीत होती चीजें हाॅब्सबाॅम के लेखन में एक विलक्षण अंतदृष्टि का स्पर्श पाकर अपनी संबद्धता को जाहिर करने लगती हैं। इन सब को उन्होंने एक साझे इतिहास में पिरो दिया। कभी उन्होंने कहा था कि इतिहासकार के पास उसका प्राइवेट स्पेस होता, जिसमें वह अपने समय को अनुभव करता है, हाब्सबाम का वह स्पेस, वह समय 20वीं शताब्दी था, जो एक मुश्किलों भरा समय था। उस मुश्किल दौर में कम्युनिज्म से जुड़े हाॅब्सबाॅम की प्रतिबद्धता अपने जीवन के अंत तक बरकरार रही। कम्युनिस्ट आन्दोलन के विचलन के प्रति अत्यधिक आलोचनात्मक होने के बावजूद, उसे खारिज करने का (जो एक अकादमिक फैशन रहा है) सवाल उनके सामने पैदा ही नहीं हुआ। कम्युनिज्म से अपने संबंधों की बात करते हुए उन्हांेने कहा कि जिस आइडिया के साथ वे उससे जुड़े, उससे हटने का सवाल ही नहीं बनता।
अपने विषय के प्रति हाॅब्सबाॅम में एक रूमानियत दिखाई देती है, यह रूमानियत हरेक क्रांतिकारी में होती है, जो भी समाज में परिवर्तन चाहता है। क्रांतिकारी होने का अर्थ स्वप्नदर्शी होना भी है। भविष्य का स्वप्न हाॅब्सबाॅम के लेखन में अंतर्निहित रूप से विन्यस्त है, इसीलिये इतिहास निर्माण में लगे हुए लोगों को उनका लेखन हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।

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