दलित साहित्य: ‘प्रामाणिकता’ पर पुनर्विचार

लेकिन यह सवाल उठाने की बजाय दलित लेखकों- आलोचकों ने ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का सवाल उठाया। इसका सब से बड़ा लाभ यह था कि यह बिना किसी लम्बी बहस के एक झटके में सारे सवर्णों को दलित साहित्य के लेखन के लिए अयोग्य सिद्ध कर देता था। जिसने व्यक्तिगत रूप से खुद दलित जीवन के अपमान और अत्याचार को नहीं अनुभूत किया है, जब उसे उस अनुभूति का पता नहीं तो वह किसी दलित नायक का दलित पात्र के अंतर्मन की अनुभूतियों को कैसे व्यक्त कर पायेगा?

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तीन सौ रामायणें – ए.के.रामानुजन

तुम धरती पर लौटोगे तो राम नहीं मिलेंगे। राम का यह अवतार अपनी अवधि पूरी कर चुका है। जब भी राम के किसी अवतार की अवधि पूरी होने वाली होती है, उनकी अंगूठी गिर जाती है। मैं उन्हें उठा कर रख लेता हूं। अब तुम जा सकते हो।
हनुमान वापस लौट गये।

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अभिव्यक्ति की आजादी और नाक का सवाल

अपूर्वानंद ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सवाल मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से उठा रहे हैं। उनकी ‘आजादी’ एक खास काट की अभिजात-मध्यवर्गीय आजादी है जो लेखकों-कलाकारों को प्राप्त होनी चाहिए। इरोम शर्मिला, सोनी शोरी से लेकर करोड़ों दलितों-आदिवासियों-स्त्रियों और गरीबों की आवाज जब सत्ता द्वारा अनसुनी कर दी जाती है, कुचल दी जाती है तो उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई हमला होता नहीं दिखाई देता।

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नारीवाद के मायने

नारीवाद स्त्रियों के लिये उसी तरह अनुकूल है जिस तरह माक्र्सवाद सर्वहाराओं के लिये लेकिन इसका अर्थ यह कभी नहीं निकालना चाहिए कि स्त्रियां स्वभावतः नारीवादी होती है! ‘नारीवाद सहजात दृष्टि न होकर अर्जित दृष्टि है’ और इसे अर्जित करने के लिए पितृसत्तात्मक विचारधारा से अलग वैकल्पिक दृष्टि विकसित करनी पड़ती है, स्वयं पितृसत्ता द्वारा (स्त्रियों/पुरुषों को) मिलने वाली सुरक्षा और सुविधाओं को त्यागना पड़ता है।

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